रविवार, 21 अप्रैल 2019

"श्री राम जन्म महोत्सव 2019"

"~~~ जय श्रीराम ~~~"
 "श्री राम जन्म महोत्सव 2019"
"आमंत्रण-पत्र"
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि का दिन था, भगवान श्रीराम अपने भाइयों सहित अयोध्या में प्रकट हुए। भक्तजन इस जन्मोत्सव को पूरे एक माह तक आनंद के साथ मानते हैं। भगवान की प्रेरणा और शक्ति से इस वर्ष जेपी आवासीय निवासियों ने इसे मानाने का निश्चय किया है। 
इस जन्म-महोत्सव के उपलक्ष में दिनांक 28 अप्रैल 2019, रविवार को संध्या 5 बजे से "आचार्य पण्डित श्रीरामजी भारद्वाज" के सानिध्य में सस्वर-संगीतमय "सुन्दरकाण्ड~पाठ" का आयोजन किया जा रहा है। आप सभी भक्तजन अपने बंधु-बांधव और परिवार के समस्त सदस्यों के साथ इसमें सम्मलित हो कर, भगवत-भक्ति का लाभ लें।" 
                               
तिथि - 28 -04-2019 रविवार
समय - संध्या 5.00 बजे से
स्थान - Kosmos Basket-Ball Court, B-38 Park
जोड़े में संकल्प के साथ "पाठ" में भाग लेने के लिए संपर्क करें (केवल आपकी उपस्थिति समय से चाहिए )
संपर्क - स्वाति & अमित @ 8130443330; 9599412375; 0120-6663709


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मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

"विवाह, प्रेम और प्रेम-विवाह"


       आज की चर्चा में आप सभी जनों का स्वागत करता हूँ। आज का विषय थोड़ा अलग है और गंभीर भी। गंभीर इसलिए की सामान्यतः हमलोग इस विषय पर चर्चा करने से बचते हैं। कहने और सुनने के लिए तो बहुत कुछ होता है, फिर भी यह विषय प्रायः अछूता ही रहता है। और अगर संयोग से कभी संवाद होता भी है, तो टुकड़ों में होता है और अधिकतर स्थिति में इसका अंत किसी और ही दिशा में जा कर होता है। ऐसे तो विषय एक ही है पर इसको तीन भागों में बांटतें हैं, "विवाह", "प्रेम" और "प्रेम-विवाह"। आज हम लोग इस पर एक-एक कर के गहन चर्चा करेगें। लोगों ने अलग-अलग कर इन विषयों पर प्रश्न पूछे हैं, जैसे, परिवार वाले प्रश्न पूछते हैं, लड़का-लड़की अब बड़े हो गए हैं, इनकी शादी की चिंता है, क्या करें? लड़का-लड़की पूछते हैं, घर वाले शादी के लिए बहुत कह रहे हैं, क्या किया जाये? कोई पूछता है, बेटा प्रेम में है, और शादी की ठान राखी है, क्या करें? समाज क्या कहेगा? कुछ प्रश्न यूँ होते हैं, वर्षों से प्रेम में हूँ पर समाज में कहने से डरता हूँ? कुछ प्रश्न तार्किक भी होते हैं, जैसे, किसी ने पूछा है मैंने प्रेम कर लिया, अब विवाह की क्या जरुरत है? मनुष्य को छोड़ और कोई जीव तो विवाह नहीं करता, मैं विवाह क्यों करूँ? कुछ प्रश्न थोड़े कठिन भी होते हैं, जैसे एक प्रश्न आया है, प्रेम-विवाह करना चाहता हूँ पर अभी तक प्रेम नहीं हुआ है? पेट भर खाता हूँ और पैर फैला के सोता हूँ, बहुत मज़े में हूँ अब कुछ और नहीं चाहता? किसी ने कहा, जिंदिगी में ऐसे ही क्या कोई कम समस्या है जो विवाह कर के एक और पालें? आदि-आदि, प्रश्न तो बहुत हैं पर मूल में यही तीन विषय है "विवाह, प्रेम और प्रेम-विवाह"। आइए अब एक-एक कर इन पर चर्चा आरंभ किया जाये। 
       अब सबसे पहले बात करते हैं, "विवाह" की।  ये विवाह क्या है? शब्दकोष की सुने तो, "विवाह, वह सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया है, जिसके अनुसार एक स्त्री और एक पुरुष अपने अधिकारों और दायित्त्वों के साथ पत्नी और पति रूप में स्थापित होते हैं, सम्बंधित होते हैं।"। कहते हैं, भगवान् ने जब संसार रचने की इच्छा की तो स्वयं को दो भागों में विभक्त किया। एक भाग पुरुष तत्त्व और दूसरा भाग स्त्री तत्त्व बना और तब से स्त्री और पुरुष तत्त्व मिल कर इस सृष्टि को आगे बढ़ा रहे हैं। अब थोड़ा समझते हैं, ये स्त्री और पुरुष तत्त्व क्या है? कैसे है? पुरुष ऊर्जा का प्रतीक है और स्त्री इस ऊर्जा को धारण करने का स्थूल रूप। स्त्री अगर शरीर है, तो पुरुष उस शरीर में बैठा प्राण है। पुरुष आकाश है, तो स्त्री धरती। यूँ कहें, पुरुष को तभी समझा जा सकता हैं जब स्त्री रूपी धारण शक्ति साथ हो। इसको एक उदाहरण से समझें। आप ने अपने आप को देखा हैं? आप बोलेगें, हैँ! ये कैसा प्रश्न हैं! बहुतों बार देखा है अपने आप को, दर्पण में, चित्र में, मोबाइल विडियो में। हाँ, बिलकुल सही, आप ने अपने आप को बहुतों बार देखा होगा, लेकिन आप,अपने आप को ऐसे नहीं देख सकते। आप को दर्पण की जरुरत होती है, चित्र की जरुरत होती है, वीडियो की जरुरत होती है। जैसे अगर आप को जल का संचय करना हो, तो एक पात्र की आवश्यकता होती है। ऐसे ही पुरुष तत्त्व होता है, स्त्री के बिना उसको जाना नहीं जा सकता। पुरुष को जानना है तो स्त्री तत्त्व चाहिए। वैसे ही जैसे परमात्मा को जानने के लिए भक्ति। तो पुरुष तत्त्व को अकेले नहीं जाना जा सकता है और स्त्री बिना पुरुष के वीरान सी होती हैं। किन्तु जब स्त्री तत्त्व और पुरुष तत्त्व मिलते है तो सृजन होता है। सदा से की सृजन की ये परिक्रिया चल रही है। साधारण शब्दों में अगर पुरुष को बीज शक्ति माने तो स्त्री उस बीज को वृक्ष बनाने के लिए धरती शक्ति है। अगर स्त्री हार्डवेयर है, तो पुरुष इसका सॉफ्टवेयर है और ये हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर मिलकर के सम्पूर्ण सयंत्र बनाते हैं। जैसे किसी मशीन को सुचारु रूप से चलने के लिए उसका हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों का ठीक होना जरुरी है, उसी प्रकार से संसार का संचरण सही ढंग से चलता रहे इसके लिए स्त्री और पुरुष तत्त्वों का सही ढंग से चलना जरुरी है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है। अपने आप में दोनों अधूरे हैं, दोनों आपस में मिल कर ही पूर्णता को प्राप्त होते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, दोनों उसी परमात्मा के जो अंश हैं। तो ये बात हुई स्त्री और पुरुष तत्त्व के मिलने की। इन स्त्री और पुरुष के मिलने की नींव विवाह है। विवाह प्रतीक है, उस सृजन के प्रारंभ की जिसमें बंधकर स्त्री और पुरुष अपने पूर्णता की यात्रा, शुरू करते हैं। विवाह बीजारोपण की वह प्रक्रिया है, जिसमें  हम एक विशाल वृक्ष की परिकल्पना करते हैं। वह वृक्ष जिसमें एक दिन रंगबिरंगें फूल होगें, वह वृक्ष जिसमें मीठे और रसदार फल लगेगें, वह वृक्ष जो एक दिन राहगीरों को छाया देगा, वह वृक्ष जो रात में पंछियों का ठिकाना बनेगा। यह परिकल्पना ही आंनद देती है।इसलिए किसी भी समाज में विवाह एक उत्सव का विषय होता है, आनंद का विषय होता है, हर्षोउल्लास का विषय होता है। तो विवाह करने और कराने की सारी उत्कांक्षा, इसी आनंद को जीने की होती है। इसकारण जीवन जीने के चार प्रकार या चार आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सबसे श्रेष्ठ और उत्तम बताया गया है। 
        अब आतें हैं, अपने दूसरे विषय "प्रेम" पर। ये प्रेम क्या है? "प्रेम" को शब्दों में कहना कठिन है, क्यूंकि यह अनुभव की विषय-वस्तु है। किन्तु हाँ प्रेम के लक्षण को जरूर देखा जा सकता है। आप किसी से पूँछें प्रेम क्या है! तो उसके कुछ भी बोलने से पहले, उसके चेहरे पर एक मुस्कान दिखेगी। यही प्रेम का लक्षण है। इस मुस्कान के बाद, वह जो कुछ भी कहेगा, वो प्रेम न हो के, बस प्रेम का प्रतिबिम्ब भर होगा। शब्दों को मत पकड़ियेगा, प्रश्न और उसके उत्तर के बीच की मुस्कान को परखिये यही प्रेम है। शब्द तो एक छलावा भर होगा, प्रेम चहरे की भाव-भंगिमा में दिखेगा। प्रेम प्रकृति के सौंदर्य में, फूलों के सुगंध में, भौरों के गूंज में, कल-कल बहती नदी आदि में, आपको दिखेगा। जब आप प्रेम में होते है तो सबसे ज्यादा शांत होते हैं, आनंद में होते हैं। ये प्रकृति का प्रेम है। इनके अलावा आप और भी अलग-अलग तरह के प्रेम से रुबरु होते रहते हैं। जैसे, किसी संगीतकार का गीत सुन कर, किसी चित्रकार का चित्र देख कर, किसी मूर्तिकार की कलाकृति देख कर आप प्रेम का अनुभव करते हैं। किन्तु ये सभी एकतरफ़ा प्रेम है, कोई भी अच्छी वस्तु होती है, वह आपको आनंदित करती है आप उसके प्रेम में होते हैं, जैसा कि ऊपर बताया गया।अभी जो हम प्रेम की बात कर रहे हैं, वो पुरुष और स्त्री के बीच के प्रेम का है। इस प्रेम और पहले कहे गए प्रेम में बस इतना सा अंतर है, पहले वाले प्रेम को आप बहार से अनुभव कर रहे होते हैं, जबकि दूसरा वाला प्रेम में आप स्वयं प्रेम में होते हैं। वैसा ही अंतर जैसे जब आप कोई खेल, मैदान के बहार से देखें रहे हों या जब आप स्वयं खेल रहें हों। पहले वाला प्रेम स्थिर है, स्टैटिक है, जबकि दूसरे वाला डायनामिक है, प्रतिक्षण बढ़ते रहता है। जैसे किसी कवि ने कोई कविता रची, आप के लिए वो स्थिर प्रेम है,  परन्तु वो कवि का कविता के साथ बढ़ने वाला प्रेम है, वो उस कविता के साथ जीता है। तो डायनामिक प्रेम, गतिशील प्रेम,  सृजन करता है। स्त्री और पुरुष का प्रेम डायनामिक प्रेम है। यह सृष्टि का निर्माण करता है, संसार को आगे ले जाता है। यह वही प्रेम हैं, जिसमें फूल खिलते हैं, फल लगते हैं, राहगीरों को छाया मिलती है, पंछियों का बसेरा बनता है आदि। प्रेम के और भी कई रूप होते हैं। अलग-अलग स्तर का होता है, अलग-अलग कक्षा का होता है। अभी तक जिस प्रेम की चर्चा हुई वो पहले वाली कक्षा का प्रेम है। प्रतिक्षण बढ़ने वाला होने के कारण इसका पार पाना मुश्किल है। आप प्रेम में जितना आगे जायेगें, आपकी रचनात्मकता उतनी ही बढ़ती जाएगी। समयाभाव के कारण, यहाँ पर और चर्चा करना संभव नहीं, बाद में फिर अलग से प्रेम के कुछ और पहलुओं पर चर्चा करेगें।किन्तु अभी, आप को कुछ संकेत करना चाहूँगा। स्त्री और पुरुष का जब प्रेम बढ़ता है, तब स्त्री, स्त्री नहीं रह जाती, पुरुष, पुरुष नहीं रह जाता। दोनों अपनी पहचान खो देतें हैं। एक वह दौर आता है, जब स्त्री पुरष हो जाता है और पुरुष स्त्री हो जाती है। दोनों के बीच का भेद मिट जाता है। आपने सुना होगा, देखा होगा, भगवान् शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप को, यह प्रेम के उसी पराकाष्ठा को बताता है। जिसमें  दो के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। ये इतने घुल-मिल गए होते हैं की एक ही दिखते हैं। जैसे गुड़ को जल में घोल दीजिए, फिर जल गुड़ जैसा मीठा हो जाएगा और गुड़ जल जैसा तरल। यही प्रेम श्रीराधा-कृष्ण, श्रीसीता-राम के बारे में आप ने सुना होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में संकेत किया है,
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ।।
रा. च. मा. १/१८ 
"जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं।"
तो प्रेम अनुभव की विषय-वस्तु है, थोड़े में भी बहुत कहा जा सकता है और बहुत कहने सुनने पर भी थोड़ा ही रहेगा। प्रेम के बारे चर्चा को कबीरदासजी के एक दोहे से विराम करता हूँ,
अंबर बरसै धरती भीजै, यहु जाने सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई।।
प्रेम बिरला के बूझ का नाम है। परमात्मा ने हम सबों को बहुत कुछ दिया है। अब हमारी बारी है, लौटने की।और हम बस प्रेम लौटा सकते हैं, प्रेम दे सकते हैं, प्रेम बाँट सकते हैं। प्रेम में रहें और प्रेम बाटें।
        अब चर्चा के अंतिम विषय "प्रेम-विवाह" की बात करते हैं। भारत में विवाह, मनुष्य जीवन के सोलह संस्कारों में से एक संस्कार होता है। कहते हैं, विवाह की जोड़ियाँ ऊपर से बन कर आतीं हैं, धरती पर तो हम उसे बस भौतिक रूप देतें हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं, ऐसी मान्यता है, एक बार विवाह के बंधन में बंध जाने पर वो जन्म-जन्मांतर तक साथ रहता है। अब तो विज्ञान भी इस बात को मान रहा है। परमात्मा की सारी सृष्टि ही द्वैत प्रकृति की है। संसार की बात करें तो संसार में सबसे ज्यादा कोई प्रिय हो सकता है, तो वह जीवन-साथी होता है। भले ही साथ चलने की जीवन यात्रा, जन्म के कुछ वर्षों बाद से शुरू होती है, लेकिन ये जीवन पर्यन्त तक चलती जाती है। और शायद इसलिए विवाह के साथी को जीवन साथी कहते हैं। ऐसे तो विवाह बहुत प्रकार के बताये गए हैं, उन सभी में प्रेम विवाह का एक प्रमुख स्थान है, बशर्ते प्रेम हो, उच्च कोटि का हो। आज-कल प्रेम का विकृत स्वरूप खूब प्रचलन में है, इससे बचना चाहिए। आम तौर पर विवाह रूपी बीजारोपण पहले होता है और बाद में प्रेम रूपी जल से इसका सींचन कर पेड़ बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। बहुत हद तक यह प्रयोग सफल होता है, क्यूँकि इसमें जब तकआप समझ पाते पौधा अपना जड़ जमा चुका होता है। एक बार जड़ जमने के बाद यह आसानी से मौसम की प्रतिकूलता को सह लेता है या सहने की क्षमता विकसित कर लेता है। प्रेम-विवाह इससे अलग होता है। एक "आदर्श प्रेम-विवाह" में पहले मिट्टी को खुरद कर हलका किया जाता है, फिर इसको प्रेम रूपी जल से सींचा जाता है। और जब मिट्टी तैयार हो जाती है तब विवाह रूपी बीजारोपण किया जाता है। इस प्रकार का बीज जल्दी अपना जड़ जमाता है और विकसित होते जाता है। ऐसा पेड़ जल्द ही सबसे आगे निकल जाता है। किन्तु ऐसे प्रेम विवाह देखने को कम ही मिलते हैं। अक्सर प्रेम-विवाह ऐसा होता है, जैसे बाजार से कोई गमले में लगा पौधा खरीद लाये हों। ऐसे विवाह बंधन में स्त्री-पुरुष को मिट्टी की तैयारी, उसका सींचन, बीजारोपण आदि का कुछ भी पता नहीं होता। इनकी यात्रा जड़ से शुरू ही नहीं होती, मिट्टी के ऊपर-ऊपर का ही इनको पता होता है। सीधे इनका ध्यान फूल और फल देखने का होता है। कभी-कभी कुछ एक स्थिति में तो इनको लगता है, गमला सहित पौधा ले आए अब सारी जिम्मेवारी खत्म। इस अवहेलना के कारण, अगर ठीक से रख-रखाव न किया जाए तो ऐसे पौधे की वृद्धि धीमी हो जाती है, विकास रुक जाता है, पत्तियाँ मुरझाने लगती हैं। और कभी-कभी स्थिति इतनी भयावह हो जाती है की इनको लगने लगता है, जो पौधा खरीद के लाए थे, वह पौधा ही खराब था, निर्णय गलत था। जबकि स्थिति कुछ और ही होती है। आप विवाह किसी भी प्रकार का करें, बीजारोपण करें, पौधा खरीद कर लायें, गमले में ले आयें, फूल और फल सहित लायें, कोई फर्क नहीं पड़ता।आपका लक्ष्य हमेशा वृक्ष तैयार करने का होना चाहिए। जिस किसी भी स्थिति से शुरुआत किये हों, उसे बढ़ाने और बड़ा करने का होना चाहिए। और इसके लिए जरुरी है यात्रा में जड़ को शामिल किया जाए। भले ही कुछ समय के लिए आप की यात्रा उल्टी हो, कुछ समय के लिए तने से जड़ की ओर जा रहे हों, वृद्धि हो सकता है थोड़ी कम दिखे लेकिन जब आप जड़ पर पहुँच कर पुनः यात्रा को आगे बढ़ाएगें तो कोई खतरा नहीं होगा। फिर आपको घना पेड़ बनने से कोई रोक नहीं पाएगा। तो प्रेम-विवाह उत्तम है, जब आप उसके स्वरुप को भली-भाँति समझें हुए हों। यह आग के साथ खेलने जैसा है। एक कुशल खिलाड़ी तो इसे आसानी से कर जाता है पर अनजान के लिए थोड़ी सी असावधानी एक बड़े दुर्घटने को निमंत्रित भी कर देती है। आप प्रेम कर विवाह करें या विवाह कर के प्रेम, दोनों ही स्थिति में आप का लक्ष्य एक ही होता है, सृष्टि-सृजन, समाज का निर्माण। और जब लक्ष्य एक हो तो यात्रा भी एक ही प्रकार से होगी और वह है "प्रेम" का रास्ता। लक्ष्य अगर एक बड़े पेड़ की है तो पौधे को अनवरत प्रेम रूपी जल से सींचते रहना होगा। और ये प्रेम कोई सीखा नहीं सकता, कोई बता नहीं सकता, आप कितने ही पुस्तक पढ़ लें उससे कुछ नहीं होगा। इस प्रेम की खोज आप को स्वयं करनी होगी। और अगर प्रेम होगा तो अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, आप आगे और आगे बढ़ते ही जाएगें, इसमें कोई संदेह नहीं। प्रेम की शक्ति ही कुछ ऐसी होती है, इसका बल ही कुछ अलग होता है। यह किसी भिखारी को राजा बना दे, लंगड़े को भी पहाड़ चढ़ा दे। ये प्रेम अमूल्य है, प्रेम ही जीवन है। इसे हर समय प्रज्ज्वलित रखें। कबीरदास जी ने कहा है,
प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देय ले जाई ।।
ऐसे तो हमने "विवाह", "प्रेम" और "प्रेम-विवाह" पर अलग-अलग चर्चा कर ली और परोक्ष रूप से सारे प्रश्नों को देख चुके। अब जाते-जाते संक्षेप में इन पर विचार कर लेते हैं...
लड़का-लड़की अब बड़े हो गए हैं, इनकी शादी की चिंता है, क्या करें? 
जब बच्चे बड़े हो गए हों तो साथ में बैठ कर खुल कर बात करें। कहते हैं, बात करने से बात बनती है। और जब भी बात करें अपने अनुभवी होने का भाव किसी तिजोरी में बंद कर के आएं, माहौल सामान्य रहेगा।
घर वाले शादी के लिए बहुत कह रहे हैं, क्या किया जाये?
बचपन से ले कर आज तक घर वालों ने जो कुछ भी किया है, आप के भले के लिए किया है। अब आपको डर क्यों लग रहा है? आपकी सोच से उनका अनुभव कहीं बड़ा है, उस अनुभव को सम्मान दें।
बेटा प्रेम में है, और शादी की ठान राखी है, क्या करें? समाज क्या कहेगा? 
आप कुछ करें या न करें, समाज तो कुछ न कुछ कहेगा ही। दूसरों के बजाय अपने बच्चों की सुनें। आगे जीवन की गाड़ी उन्हें ही चलानी है।
वर्षों से प्रेम में हूँ पर समाज में कहने से डरता हूँ?
अभी आपका प्रेम परिपक्कव नहीं हुआ है, प्रेम में थोड़ा और समय दें।
मैंने प्रेम कर लिया, अब विवाह की क्या जरुरत है? 
प्रेम पाठ्यक्रम नहीं जो वर्ष भर पढ के परीक्षा उत्तीर्ण कर गए। प्रेम तो चन्द्रमा की कलाओं की तरह है, जिस दिन बढ़ाना बंद हुआ समझो उसी दिन से घटना शुरू हो गया।
मनुष्य को छोड़  कोई और जीव तो विवाह नहीं करता, मैं विवाह क्यों करूँ? 
लगता है, मनुष्य योनि में आपका प्रमोशन दुर्धटना वश हो गया। विवाह कर उसका आनंद लें।
प्रेम-विवाह करना चाहता हूँ, पर अभी तक प्रेम नहीं हुआ है? 
आप विवाह कर लें, फिर प्रेम करना मजबूरी हो जाएगी।
पेट भर खाता हूँ और पैर फैला के सोता हूँ, बहुत मज़े में हूँ, अब कुछ और नहीं चाहता? 
कोई जरुरी नहीं हर कोई शादी करे ही, कुछ लोगों के लिए हिमालय भी है। लेकिन ऐसा न हो की बाद में विचार  बदल जाए और फिर कोई जीवन साथी मिले नहीं।
किसी ने कहा, जिंदिगी में ऐसे ही क्या कोई कम समस्या है जो विवाह कर के एक और पालें?
आप को तो विवाह अवश्य ही करनी चाहिए, वो भी जितनी  जल्दी हो सके। इतना ज्ञान तो शादी के बाद ही आता है। आप तो पहले से ही ज्ञानी हैं, बहुत आगे जाएगें।

आज के लिए बस इतना ही... अब, आप सबों लिए एक विशेष सूचना, ध्यान दें, -
१. उपर्युक्त चर्चा के बाद अगर आप को अपने जीवन साथी के प्रति ज्यादा प्यार उमड़े और आप कोई ऐसा-वैसा वादा कर दे, वचन दे दें, जिसकी पूर्ति आपके लिए संभव न हो तो इसके लिए चर्चा करने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। उन सभी स्थितियों का सामना आप को स्वयं करना होगा। बस भगवान से प्रार्थना है, उन सभी परिस्थियों से उबरने के लिए आप को शक्ति प्रदान करें।
२. जीवन-साथी के गुण-स्वाभाव को जानने की शक्ति तो देवताओं में भी नहीं होती है। ऐसे में हम मनुष्यों का तो कहना ही क्या। शादी-विवाह हमेशा सोच-विचार कर ही करें। शादी के बाद की किसी भी परिस्थिति के लिए चर्चा करने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं है।
३. यह चर्चा न तो आप को शादी के लिए प्रेरित करता है और न ही सन्यास ले हिमालय जाने के लिए कहता है। जो भी निर्णय आप लेगें वह आप का स्वयं का निर्णय होगा और किसी भी परिस्थिति के लिए चर्चा करने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। सूचना समाप्त हुई
आप यूँ ही हँसते रहें, मुस्कुराते रहें, हर्षोउल्लास से जीवन को खुल कर जिएँ... परमपिता परमेश्वर आप सभी को शक्ति, समृद्धि, शांति और आनंद  प्रदान करें...  हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ
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शनिवार, 8 दिसंबर 2018

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता एक परिचय... भाग - २

तो गीता शुरू होती है, एक कथा से| कथा है, महाभारत की, हस्तिनापुर की राजगद्दी को अकेले पाने की चाहत में कौरवों के द्वारा पांडवों को युद्ध के मुहाने तक लाने की| शुरुआत होती है, एक प्रश्न और एक निर्णय से| प्रश्न, युद्ध के मैदान से बहुत दूर राजमहल के किसी कोने में बैठे धृतराष्ट्र का संजय से है कि "युद्ध में क्या हुआ?" प्रश्न, युद्ध का पूरा समाचार जानने का है | यह प्रश्न भी उस समय जब युद्ध रोकने के सारे रस्ते बंद कर दिए गए हों| और दूसरा एक निर्णय, एक निश्चय से कि "युद्ध मैं नहीं करूँगा"| और ये निर्णय है अर्जुन का| युद्ध की सारी तैयारी हो चुकी है, दोनों पक्षों ये योद्धा आमने-सामने हैं, युद्ध अब कभी भी आरंभ हो सकता है| रणभेरियाँ बज चुकी हैं, दोनों पक्षों के योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ तैयार बैठे हैं| तो ऐसे में अर्जुन ने एक निर्णय लिया कि "अब मैं युद्ध नहीं करूँगा, भले ही निहत्थे मारा क्यों न जाऊँ"|  

तो गीता की शुरुआत होती है, युद्ध के शुरुआत से, जहाँ दो पक्ष आमने सामने खड़े हैं हस्तिनापुर की राजगद्दी को पाने की चाहत में| यहाँ युद्ध को तीन लोग देख रहें हैं या देखने की इच्छा कर रहें हैं| पहला संजय की दृष्टि से धृतराष्ट्र, दूसरा धृतराष्ट्र पुत्र और हस्तिनापुर युवराज दुर्योधन और तीसरा पांडवों में से एक अर्जुन| तीन दृष्टि और तीन मनोस्थितियाँ| सबसे पहले धृतराष्ट्र की बात करें| एक राजा, जिसके पुत्र मोह ने पूरे राजपरिवार को यद्ध के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया| जब कुछ करना चाहिए, जब कुछ कर सकते थे तब तो कुछ किया नहीं| अपने अंधेपन के आर में अपनी पुत्र मोह रुपी दुर्बलता को छुपाते रहे| जब कुछ जानना चाहिए, जब कुछ जान सकते थे तब तो जाना नहीं कि क्या हो रहा है, तब यह जिज्ञासा नहीं की कि मेरे पुत्र क्या कर रहे हैं, पांडवों के पुत्र क्या कर रहें हैं | अब जब कुछ नहीं हो सकता, जब समय हाथ ने निकल चूका है (ये प्रश्न तब का है जब युद्ध शुरू हुए कुछ दिन बीत चूँके हैं, भीष्मपितामह वाण-शय्या पर गिरे पड़े हैं|) अब पूँछ रहें हैं, "युद्ध में क्या हुआ? मेरे पुत्र और पांडवों के पुत्र ने क्या किया"?  मन का मोह अभी भी खत्म नहीं हुआ है| महाभारत की लड़ाई का परिणाम पहले से पता था फिर भी घटनाओं पर अंधे बने रहे| और जब दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी हैं तो प्रश्न कर रहे हैं कि क्या हो रहा है? युद्ध में क्या हुआ? दोनों सेनाएँ क्या कर रहीं हैं? धृतराष्ट्र की यह दृष्टि तमोगुण का प्रतीक है| अपने लोभ, मोह, क्रोध के कारण उन्होंने ये स्थिति उत्पन्न की| 

दूसरी दृष्टि दुर्योधन की है| जो विपक्षी सेना को एक क्षत्रिय की भाँति देख रहा है| यह दृष्टि रजोगुण है| सामने जब युद्ध आ चूका हो तो अपने और पराये के पहचान की कोशिश भर है| शत्रुओं और मित्रों की शक्तियों को जान लेने की है| दुर्योधन अपने रजोगुण दृष्टि से युद्ध को देख रहा| हाँ कभी उसकी भी दृष्टि तमोगुणी हुआ करती थी| वह भी कभी लोभ से, क्रोध से, अभिमान से पांडवों को देखा करता| उसके मन में इच्छा थी पुरे राज्य पर एकक्षत्र राज करने की| इसी तमोगुण के कारण उसने भगवान श्रीकृष्ण तक को बंदी बनाने की बात तक कह डाली थी| लेकिन आज जब युद्ध की घड़ी नजदीक आ गयी तो सारा अभिमान जाता रहा| बेहोशी की अवस्था से होश में आ गया| सत्य उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था, अब उससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता था| उसकी तमोगुणी बुद्धि पीछे छूट गई और रजोगुणी बुद्धि ने शरीर और मन को नियंत्रित किया| अब वह एक क्षत्रिय की भाँति अपनी सेना का मनोबल बढ़ा रहा है| तो ये रजोगुण है| 

अब बात करते हैं, तीसरी दृष्टि की, अर्जुन के दृष्टि की| अर्जुन ने भी दोनों सेनाओं को आमने-सामने देखा| लेकिन इस दृष्टि में न तो आसक्ति थी और न ही अभिमान| न युद्ध जीतने की अभिलाषा और न हार जाने का गम| अर्जुन की दृष्टि सत्य की दृष्टि थी| दृष्टि निःश्छल थी, शांत थी, आसक्ति रहित थी| यह दृष्टि सात्त्विक दृष्टि थी| इसके पीछे धर्म और कुल की मर्यादा, शास्त्र ज्ञान, सत्य पर चलने की सपथ आदि था| अर्जुन, युद्ध तो करने आये थे लेकिन अभी भी मन के किसी एक कोने में सब ठीक नहीं हो रहा ऐसा सोच रहे थे| उन्हें अपने गांडीव पर भरोसा तो था, साथ ही पता भी था, अगर तीनों लोकों के योद्धा भी आ जायें, तो भी वे ही युद्ध को जीतेगें| लेकिन केवल युद्ध को  जीतना उनकी मंशा नहीं थी| मन में परिवार और कुल के कल्याण का भी भाव था| युद्ध जीतने के लिए तो आस्वस्थ थे, पर परिवार के बिख़ड़ने का डर मन में था| उन्होंने युद्ध जीतने के बाद, राजगद्दी से ज्यादा, गुरुजनों और परिवार के बड़े जनों के, मान और मर्यादा को अधिक महत्त्व दिया| तो अर्जुन की दृष्टि सत्य की दृष्टि थी| ये था उनका सत्त्वगुण| 

एक और दृष्टि थी जो, इन सबों से अलग थीं, जो युद्ध को एक अलग ही तरह से देख रहा थे| ये दृष्टि मान और अपमान, निंदा और प्रशंसा से परे थी| ये युद्ध को बिना राग और भय के देख रहे थे| ये दृष्टि सम्यक दृष्टि थी| ये दृष्टि थी कृष्ण की, जो युद्ध के मैदान में होते हुए भी वहां से कोसों दूर थे| उनकी दृष्टि प्राकृतिक गुणों से परे थी| वे सब कुछ देखते हुए भी कुछ भी नहीं देख रहे हों ऐसा व्यवहार कर रहे थे| सत्य और असत्य से अलग ये दृष्टि तुरीय दृष्टि थी| ये गुणातीत अवस्था, तुरीय अवस्था होती है, जब आप अपने सच्चे स्वरुप में होते हैं| इसमें कोई आवरण नहीं होता, बिल्कुल शुद्ध, सहज और सबका मूल| प्रकृति के गुणों के आच्छादित तीन अवस्था का वेदों में वर्णन आया है, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति| सामान्यतः राग और द्वेष, छल और प्रपंच से भरा तमोगुण प्रधान जाग्रत अवस्था| शांत शरीर के साथ रजोगुण रुपी स्वप्न की अवस्था और सांसारिक माया के प्रपंचों से बिल्कुल अलग सुषुप्ति अवस्था जो सत्त्वगुण प्रधान होती है| पर इसके साथ ही एक बिल्कुल शुद्धतम अवस्था होती है, वह है तुरीय अवस्था| जो तीनों अवस्थाओं में होते हुए भी उनसे अलग होती है| कृष्ण भी इसी तुरीय अवस्था में थे, उनकी दृष्टि तुरीय दृष्टि थी| बिल्कुल शुद्ध, शांत, सनातन| जब आप अपने तुरीय अवस्था या रूप को जान लेते हैं तो आप प्रकृति के गुणों से ऊपर उठ जाते हैं| इसमें न तमोगुण होता है, न ही रजोगुण और न ही सत्त्वगुण| प्रकृति से परे आप बस भगवत आनंद में रहते हैं| न मोह, न अभिमान, न शोक, न दुःख यहाँ तक की धर्म रुपी सत्त्व गुण भी चला जाता है| आप सबकुछ से मुक्त हो जाते हैं| श्रीकृष्ण यही तुरीय दृष्टि से सब देख रहे थे| 

यहाँ जैसे दृश्य एक से होते हुए भी दृष्टि अलग-अलग होने के कारण, एक ही घटना सब को अलग-अलग भाव दे रही थी| इसी प्रकार समय के व्यवहार से भी लोग अलग-अलग देख रहे थे| यहाँ धृतराष्ट्र भूतकाल में देख रहे थे या देखने की ईच्छा किये हुए थे| जानना छह रहे थे क्या हुआ? पांडव के और मेरे पुत्रों ने क्या किया? युद्ध के मैदान में क्या-क्या हुआ, किसने क्या-क्या किया? ये तमोगुण का प्रतीक है| ऐसे लोग अपने बिते हुये कल से बाहर नहीं आते| ऐसे लगता है जैसे इनकी जिंदगी भूतकाल में ही अटक गई हो| तो ये लोग मोह, प्रमाद, आलस्य आदि से ग्रसित होते हैं| होने को तो समय के साथ बस इनका शरीर ही होता है जो वर्तमान समय में लोगों को दिखाई देता है पर ये खुद इतिहास के किसी पन्ने में सिमटे होते हैं| समय का प्रवाह इसकी दुनियाँ में रुका होता है| ऐसे लोग तमोगुणी स्वाभाव के होते हैं|

अब बात करते हैं, दुर्योधन की, जो अपनी सेना और अपने सामने खड़ी पांडवों की सेना को देख रहा है| उनके सैन्य क्षमता का आकलन कर रहा है, कितने रथी, कितने महारथी| ऐसे लोग केवल वर्तमान में रहते हैं| अपने भूतकाल की गलतियों से न सीखते  और न सीखने की कभी सोचते हैं| जो बीत गया हो इनके लिए जैसे हुआ ही न हो| बीता हुआ समय इन्हें यद् नहीं होता| ऐसे लोग बस आज और अभी का बस सोचते हैं| दुर्योधन भी कुछ ऐसे ही हिसाब लगा रहा था| मेरी ओर से तो भीष्मपितामह, गुरुद्रोण, कर्ण आदि हैं, पांडवों को तो खेल-खेल में ही हरा देगें और हमेशा-हमेशा के लिए राज्य उसका हो जायेगा| उस कुछ भी याद नहीं था कि इसी सेना को अर्जुन ने अकेले ही धुल चटा दी थी|  ऐसे लोगों लो लगता है जो है आज है और यह उनकी मुट्ठी में हैं| ऐसे लोग रजोगुणी स्वाभाव के होते हैं|

अब अर्जुन की देखें, भूतकाल की सीख और वर्तमान की परख तो है पर दृष्टि में भविष्य है| धार्मिक दृष्टि से देख रहे हैं| कोई भी कार्य प्रांरभ करने से पहले उसके परिणाम का आकलन कर रहे हैं| अर्जुन युद्ध में अपने स्वजन को सामने देख, भावी परिणाम से चिंतित हो उठे हैं| उन्हें भूतकाल में युद्ध का कारण और वर्त्तमान में कौन किसके साथ है सब पता हैं| लेकिन वे फिर भी विचलित हैं वो है युद्ध का परिणाम| वो परिणाम जो उन्हें धर्म सांगत नहीं लग रहा है| वो अपना सुख नहीं देख रहे वरन भविष्य में जो परिवार और समाज की हानि होती दीख रही है उससे घबड़ा रहे हैं| ये सत्त्व गुण है| धर्म और शास्त्र की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कर्म करने की बात करते हैं|

अब बात करते हैं श्रीकृष्ण की जो तीनों कालों में देख रहे हैं पर किसी में भी आसक्ति नहीं है| कृष्ण कभी सूर्य के साथ हुई अपनी चर्चा की बात बताते हैं तो कभी अर्जुन को युद्ध क्यों करना चाहिए ये बताते हैं और साथ ही साथ ये बताना भी नहीं भूले की मेरी पूर्ण शरणागति में आ जाओ मैं तुम्हें सब कुछ से मुक्त कर दूँगा | एक ही साथ भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों की राह दिखते हैं| कृष्ण कभी भूतकाल के ज्ञान की सनातन धारा की बात करते हैं, तो कभी वर्तमान समय में युद्ध की विवशता का और कभी स्वर्णिम भविष्य की छटा दिखाते हैं| पर स्वयं में वो कहीं किसी में लिप्त नहीं हैं, देख सब रहें हैं, जान सब रहें हैं पर कुछ भी उनको प्रभावित नहीं कर रहा है| वो कर वही रहें हैं जो वो करना चाहते हैं| कल क्या हुआ, अभी क्या हो रहा है और आगे क्या होगा इन सब की उनके निर्णय पर असर नहीं डाल रहा| ऐसे सात्त्विक लोग हमेशा सत्य के साथ होते हैं| ऐसे लोग हमेसा चेतना में होते हैं| कृष्ण समय के बंधन में नहीं बंधें हैं, इसलिए सत्य उनके सामने प्रत्यक्ष है वो सत्य को देख पा रहे हैं| ऐसी तुरीय दृष्टि से जीव कर्म करता हुआ कर्म-बंधन से नहीं बंधता| वो मुक्त होता है, आनंद में होता है|    

जारी है ... 

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता एक परिचय... भाग - १

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 
-वृहदारण्यक उपनिषद

"वो पूर्ण है, ये भी पूर्ण है और ये पूर्ण उसी पूर्ण से प्रकट हुआ है| उस पूर्ण से इस पूर्ण के निकलने पर भी वो पूर्ण ही है|" वो पूर्ण है, अद्वितीय है, बस वो एक ही है, उससे अलग कुछ भी नहीं| उसे आप परमात्मा,भगवान आदि जो भी नाम दे लें, सब कुछ, बस उस एक को ही इंगित करता है| वेदों ने परमात्मा बारे में कहा है, "जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्त्पन्न होती है, जो इसका पालन करता है, और फिर अपने में ही इसको लीन कर लेता है|" परमात्मा की एक और परिभाषा है, जिसका वेदों में चर्चा है, "जो बड़ा है और दूसरों को बड़ा करने में सक्षम है|" इस दूसरी बात पर हम आगे चर्चा करेगें| तो पहली बात है वो एक है| उसी एक से इस सृष्टि का प्राकट्य हुआ है| तो यहाँ एक परमात्मा और दूसरी सृष्टि ये दो बातें हुईं| तीसरी बात है, हम स्वयं जो इस सृष्टि को देख रहें हैं, अनुभव कर रहे हैं|  हम जो देख और समझ रहें हैं, वह इसी सृष्टि का ज्ञान कर रहे हैं| तो यहाँ तीन तत्व हैं, परमात्मा, सृष्टि और हम दूसरे अर्थ में वो, ये और मैं और साहित्य दृष्टि में ब्रह्म, माया(संसार) और जीव| जीव की सीमा है, संसार की सीमा है, किन्तु ब्रह्म अनंत है, सीमा रहित है| 
माया और जीव दोनों ब्रह्म की ही शक्ति हैं, क्योंकि दोनों ब्रह्म से ही उत्त्पन होतीं हैं और उसी में लीन भी हो जातीं हैं| जीव(आप स्वयं) जिस दिन माया के आवरण से परे उस ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है, उसका दर्शन कर लेता है, उसे जान जाता है, वह मुक्त हो जाता है, ब्रह्म से एक हो जाता है, आनंद को प्राप्त होता है| पूरी गीता में इसी माया के आवरण को हटाने की बात की जाती है| लगभग ७०० श्लोकों की श्रीमद्‍भगवद्‍गीता, महर्षि वेदव्यास प्रणीत महाभारत से उद्धत है|

महाभारत लगभग एक लाख श्लोकों का ग्रंथ है और श्रीमद-भागवत-गीता, उन सभी का निचोड़, उन सभी का सार| अगर महाभारत एक आम का वृक्ष हो तो, गीता उसमें रसीले आम| जड़ से लेकर शीर्ष तक पेड़ महत्त्वपूर्ण होता है, लेकिन उसके रसीले फल का आंनद ही कुछ और होता है| अगर कोई महाभारत नहीं पढ़ सके, उसका ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके तो गीता को पढ़ ले, बस गीता भर को जान जाये तो उसको और कुछ जानने की जरुरत नहीं रह जायेगी, उसका काम हो जायेगा| महाभारत रुपी अथाह समुद्र में गीता मोती स्वरुप है| समुद्र मंथन के बाद का अमृत है| यह वह ज्ञान है जो सदियों से गुरु-शिष्य परम्परा से चला आ रहा है| गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, "ये जो मैं तुम्हें बता रहा हूँ, ये आज की बात नहीं है, बात बहुत प्राचीन है| इससे पहले भी मैं इसे सूर्य को बता चूका हूँ| पर समय के साथ यह ज्ञान लुप्त हो गया था| तू मेरा प्रिय शिष्य है इसलिए आज फिर से ये बात तुम्हें बता रहा हूँ|" (गीता अध्याय ४/१-३ ). तो गीता का ज्ञान कल भी प्रासंगिक था, आज भी है और आगे भी रहेगा, जबतक संसार में द्वन्द है, दुःख है, पीड़ा है| यह केवल युद्ध का समाचार जानने की इच्छा रखने वाले धृतराष्ट और संजय के बीच की बात नहीं| और न ही केवल श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच तर्कों, शास्त्रों और ज्ञान की बातें बस भर है| अगर गीता केवल धृतराष्ट का का प्रश्न भर होता तो पहले ही अध्याय में यह खत्म हो जाताक्यूँकि आपको पहले अध्याय के बाद युद्ध का कुछ भी प्रसंग इसमें नहीं मिलेगा| आगे के सत्रह अध्याय में तो युद्ध है ही नहीं| और यह अगर केवल श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच तर्कों की बात होती तो वह भी दूसरे अध्याय में ही पूरा हो गया होता| अर्जुन ने पहले अध्याय में जिन-जिन तर्कों को सामने रखा, उसे श्रीकृष्ण दूसरे ही अध्याय में एक एक करके निरस्त कर दिया|  अर्जुन के सारे तर्क श्रीकृष्ण के सामने धरासाई हो गए| तो गीता तर्कों की भी बात नहीं है| यह कुछ और ही है| यह उस हर घड़ी की कहानी है जब हम द्वन्द में होते हैं| दो राहें पर होते हैं और पता नहीं होता सही क्या है और गलत क्या है? न्याय क्या है और अन्याय क्या है? सत्य क्या है और असत्य क्या है?जीवन में आगे बढ़ने के लिए कौन से रस्ते पर आगे बढ़ा जाये? गीता ऐसे ही समय में हमारा मार्ग प्रसस्थ करता है| हमें सही और गलत में सही को चुनने में मदद करता है|   

कहते हैं "श्रीमद्‍भगवद्‍गीता" स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के शब्द ही है| इसपर कोई कुछ कहता है या इसकी व्याख्या करता है तो वह उसके शब्द होते हैं उसके अर्थ और भाव होते हैं, उसकी अपनी व्याख्या होती है| गीता स्वयं में पूर्ण है, शुद्ध है| इसकी व्याख्या कर हम इसकी सुंदरता, इसके भाव को और कम ही कर रहे होते हैं| लेकिन ऐसा बहुत कम हुआ है, जो कोई गीता को पढ़े, समझे, जाने, अनुभव करे और फिर बिना कुछ बोले रह जाए| क्यूँकि इसकी मिठास ही कुछ ऐसी है, जिसने इसको चखा वो बिना बताये रह न पायेगा, बिना गुनगुनाये रह न पायेगा| और इसमें कोई बुराई भी नहीं, अगर हमारी चर्चा से, व्याख्या से किसी की जिज्ञासा जागृत हो जाती है और वह भी ज्ञान की इस पावन गंगा की खोज में निकल जाता है तो समझिए वो भूल-चूक माफ, समझिये वो व्याख्या सफल हुई| ऐसे तो भगवान के शब्दों पर कुछ टीका टिप्पणी करना पाप है, लेकिन अगर इस पाप से किसी की ज्ञान यात्रा प्रारंभ होती हो तो ऐसे पाप सिरोधार्य है| इसके लिए विज्ञ जन क्षमा करें| अपनी ओर से धृष्टता कर रहा हूँ, आशा करता हूँ, आप सभी मान्यवर एक अबोध बालक की मनोस्थिति को समझ कर, मेरी इस कृति को स्वीकार करेगें और मार्गदर्शन करेंगें|      

अंत में आप सभी से एक विनती करता हूँ, एक प्रार्थना करता हूँ| अगर गीता के बारे में कोई शंका हो, मन में कुछ दुविधा हो, अगर कभी लगे कि गीता में ऐसे नहीं, ऐसे होना चाहिए तो बस एक बात ध्यान में रखियेगा| "श्रीमद्‍भगवद्‍गीता" नर्सरी से लेकर पीएचडी करने वालों तक, के लिए है| यह उसके लिए भी है जिसने अभी-अभी ज्ञान के मार्ग पर पहला कदम रखा है और उनके लिए भी है जो भगवत भक्ति के मार्ग में नित्य नए नए रिसर्च कर रहे हैं| आप की शंका आप का प्रश्न बस आपकी कक्षा के लिए ही है| जिस किसी भी दिन आप को उसका उत्तर मिल जायेगा आप फिर अगली कक्षा में होगें| इसलिए शंका को मन में जगह न दें, वरन इसके बदले जिज्ञासा करें| शंका और जिज्ञासा में एक छोटा सा अंतर होता है| शंका में आप अपने को बड़ा समझते हैं, आपने ज्ञान को बड़ा आँकते हैं| आपका प्रश्न आपके लिए छोटा होता है| आप प्रश्न को इसलिए नहीं मन में जगह देते कि आपको इसका उत्तर चाहिए होता है, वरन आप कहीं न कहीं अपने अहंकार को बल दे रहे होते हैं| इसके ठीक उल्टा जिज्ञासा में आप छोटे होते हैं आप का प्रश्न बड़ा होता है| आप में जानने की उत्सकता होती है| आपमें ज्ञान को पाने की चाहत होती है| और जब आप किसी भी चीज को बिल्कुल शुद्ध मन से पाने की कोशिश करते हैं तो वो आप को मिल ही जाती है| शुरू-शुरू में आप को लगे की गीता के ७०० श्लोक कुछ ज्यादा हैं, तो बस याद रखिए ये भक्तों के लिए रिसर्च बुक भी है और रिफरेन्स बुक भी| कुछ समझ में आये तो अच्छा न आये तो और उसे अगली कक्षा के लिए छोड़ दीजिए| ज्यादा तर्क-वितर्क में न पड़ें| प्रभु कृपा करेगें और धीरे-धीरे सभी रहस्यों से एक दिन पर्दा उठ जाएगा| आप को कुछ करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी| अर्जुन ने कौन सा परिश्रम किया था| वो तो बस युद्ध में अपने सामने परिजनों को देख बस मोहित हो गए थे| बात तो युद्ध नहीं करने भर का था| भगवान ने करुणा की और अर्जुन धन्य-धन्य हो गए, कृतार्थ हो गए| ऐसे ही भगवान हम सभी को दया से करुणा से सराबोर करते रहते हैं| बस एक बार अपने को खुल के इस बारिश में भींगने का मौका दीजिए, सब मंगल होगा, सब कल्याण होगा..... हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ     

जारी है ...... 

बुधवार, 21 मार्च 2018

"श्री राम जन्म महोत्सव 2018"

"~~~~~ जय श्री राम ~~~~~"

"सुन्दरकाण्ड ~ पाठ"

 "आमंत्रण ~ पत्र"


"जहाँ भगवान के स्मरण मात्र से सारे संकट खत्म हो जाते हैं, वहाँ जब प्रभु स्वयं प्रकट हों, तो कहना ही क्या! अब वो दिन दूर नहीं जब प्रभु श्रीरामजी, भरतजी, लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी अयोध्या में प्रकट हुये थे और महीनों आनंदोत्सव मनाया गया था| इसी परम्परा को जारी रखते हुए, भगवान की महती कृपा और प्रेरणा से, हम लोग हर वर्ष "श्रीराम जन्म महोत्सव" मनाते रहें हैं| इस वर्ष इस पावन अवसर पर हम लोग "आचार्य पण्डित श्रीरामजी भारद्वाज" के सानिध्य में सस्वर "सुन्दरकाण्ड~पाठ" का आयोजन करने जा रहे हैं। आप सपरिवार, इसमें सम्मलित हो कर, भगवत-भक्ति का लाभ लें।"
                                 
तिथि - 31-03-2018  (शनिवार) पूर्णिमा "हनुमान जयंती
समय - संध्या 4.00 बजे से 
स्थान - Kosmos Basket-Ball Court, B-38 Park
संपर्क - स्वाति & अमित @ 0120-6663709

विशेष: इसी दिन दोपहर १ बजे से "शिव-मंदिर" प्रांगण में भंडारा का आयोजन किया जायेगा| 

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"भगवान कैसे दिखते हैं"

           आज की भगवत चर्चा में आप लोगों का स्वागत है| एक कथा याद आ रही है| एक गांव में कहीं से एक संत आते हैं| कहीं से आ रहें होगें, शाम होता जान सोचे रात इसी गांव में गुजारते हैं| कुछ आगे चलने पर उन्हें एक छोटा सा घर दिखाई पड़ा| घर के सामने ही घर का स्वामी कुछ काम कर रहा था| संत उसकी ओर चल पड़े|  अपने घर पर एक संत को आता देख वो व्यक्ति श्रद्धा से संत को प्रणाम किया| संत ने अपने मन की बात उसे बताई और रात में उसके घर में रुकने के लिए प्रार्थना की| रात में संत उसके घर में रुकेगें यह सोच वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और अपने को परम भाग्यशाली मन संत की सेवा में लग गया| पूरे परिवार के साथ उसने उनकी खूब सेवा की| रात में भोजन कर लेने के बाद वो संत के सामने बैठ गया| संत भी उसके और उसके परिवार के लोगों की सेवा-भक्ति से बहुत खुश हुए| यूँ की कुछ भागवत-चर्चा शुरू हुई| संत ने बहुत सारी कथाएँ कहीं| कथाओं के पूरे होने पर वो व्यक्ति हाथ जोड़ कर बोला, "प्रभु! मन में एक बात की जिज्ञासा है| आपकी आज्ञा हो तो मैं एक बात पूछूं?" संत ने कहा, "हाँ-हाँ पूछो जो भी तुम्हारा प्रश्न है|" वो बोला, "क्या आपने भगवान को देखा है? वो कैसे दिखतें हैं|" संत उस भोले ग्रामीण की बात को सुन कर मुस्कुरा बैठे और बोले "पहले तुम बताओ, तुम्हें क्या लगता है, भगवान कैसे दिखतें होगें?" वो ग्रामीण बहुत ही गरीब था| अपने पूर्वजों से मिले एक छोटे से ज़मीन पर खेती-बाड़ी कर, किसी तरह से घर चला रहा था| दोनों शाम घर में खाना मिल जाये यही उसके लिए बहुत था|  थोड़ी देर सोचने के बाद वो ग्रामीण बोला, ""  
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शनिवार, 12 अगस्त 2017

"श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव २०१७ आमंत्रण-पत्र"

१४-अगस्त २०१७ संध्या ९ बजे से 

          "श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव २०१७ आमंत्रण-पत्र"
           "जन्म" संसार में पदार्पण की पहली-पहल शुरुआत और जन्मदिन उसी स्वर्णिम क्षण से एकाकार होने का एहसास| ऐसे तो जन्मदिन हर किसी के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है| जन्मदिन चाहे अपना हो, अपनों का हो या किसी भी और का, हमेशा ही एक उत्सव का विषय होता है, किन्तु अगर जन्मदिन स्वयं सृस्टिकर्ता परमपिता परमेश्वर का हो तो महोत्सव बन जाता है| 
           ऐसे ही एक महोत्सव-आनंदोत्सव का दिन नजदीक आ गया है| भगवान् की महती कृपा और प्रेरणा से, हमें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है और हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी, हम लोग "श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव" मना रहें हैं। आप सभी सपरिवार, इसमें सम्मलित होकर, भगवत-भक्ति का लाभ लें।

तिथि - १४-८-२०१७(सोमवार) 14th-August-2017  
समय - संध्या ९ बजे से 9 pm Onwards 
स्थान - "सेवा-कुंज" कॉस्मोस नोएडा   
संपर्क - स्वाति & अमित @ 8130443330, 0120-6780137 

प्रायोजक -
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