शुक्रवार, 17 जून 2016

"भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग १"

           आज के भगवत चर्चा में आप सभी का स्वागत है। आप सभी महानुभाव ने जो अपना बहुमूल्य समय निकाल के इस हरि नाम चर्चा में शामिल हुए, इसके लिए आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें, धन्यवाद, साधुवाद। ऐसे तो अक्सर हम सभी किसी न किसी भगवत विषय पर चर्चा करते आये हैं, पर आज की चर्चा मेरे लिए कुछ खास है। बहुत दिनों से इच्छा थी कि "रामचरित-मानस" में आये भक्तों पर एक चर्चा श्रृंखला शुरू की जाये। भगवत कृपा और आप लोगों के सहयोग से आज इसका आंरभ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह विचार, बहुत समय पहले रामचरितमानस का मनन करते समय, मन में आया था। मानस में बहुतों बार प्रसंग आया है, जब भक्त अपनी साधना से, अपनी तपस्या से, अपनी भक्ति से भगवान को प्रशन्न कर लेतें हैं, तो भगवान् साक्षात दर्शन देतें हैं और दर्शन का लाभ दे कर वर मांगने को कहते हैं। ऐसे में भक्त हमेशा, केवल और केवल भगवान् की भक्ति का ही वरदान मांगते हैं। ऐसे ही एक प्रसंग का मनन करते समय, यह विचार मन में आया कि क्यों न भगवान के भक्तों पर एक चर्चा शुरू की जाये और इसमें खास कर उन प्रसंगों को शामिल किया जाये, जहाँ पर भक्तों ने भगवान् से वरदान रूप में केवल और बस केवल भक्ति की ही मांग की है। अपनी कुछ लापरवाही और कुछ आलसपन की वजहों से ये छूटता ही जा रहा था। आज आपलोगों के सहयोग से, वह शुभदिन आ पड़ा है, जब यह चर्चा शुरू करने का परम सौभाग्य मिला है। चलिए हम सब मिलकर अब इस चर्चा श्रृंखला की शुरुआत करें।         
           चर्चा जब रामचरितमानस के भक्तों की हो तो सबसे पहले जिनका नाम जहन में आता है वो हैं, परम पूज्य श्री गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज। और इसका कारण भी है, "रामायण" की कथा को जनमानस के रोम-रोम में पहुँचाने का श्रेय परम पूज्य गोस्वामीतुलसीदासजी महाराज को जाता है। एक समय था जब पठन-पाठन का ज्ञान, अपने कठिन व्याकरण की वजहों से केवल कुछ पंडितों के पास रह गया था। साधारण जनों के लिए, इसको समझना अत्यन्त ही कठिन और असम्भव सा हो गया था। उस समय में, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए, मूर्धन्य विद्वानों का विरोध झेलते हुए, समाज में प्रचलित धारणाओं(उस समय ज्ञान और विद्वता का प्रतीक संस्कृत भाषा ही सर्वमान्य भाषा थी) को तोड़ते हुए, उन्होंने "रामचरितमानस" रूपी अमूल्य निधि हम सबको दी। और यह ग्रन्थ, तब से इस धरा के कण-कण में रच-बस गया है। सदियाँ बीत गयीं लेकिन आज भी यह उतना ही नवीन है जितना उस समय में था। पश्चिम के किसी दार्शनिक ने कहा है, "उत्तर भारत की जनता को अगर जानना-समझना है तो सबसे पहले 'रामचरितमानस' को जानना और समझाना होगा।" ये बात बस केवल किसी दार्शनिक के गूढ़ दर्शन की बात नहीं, रामचरितमानस वास्तव में भारतियों में कुछ इस तरह से रचा-बसा है कि अगर इसको भारत की आत्मा कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ये तो रही जन सामान्य की बात, और जहाँ तक भक्त, साधक और भक्ति की बात है, इसके बिना भगवत-भक्ति की परिकल्पना भी संभव नहीं है। कहते हैं, भारत भूमि के कण-कण में भक्ति, ज्ञान और दर्शन की ज्योति प्रज्वलित होते रहती है। प्रकाण्ड विद्वत जनों की बात क्या कहें, यहाँ उत्कृष्ट ज्ञान की गंगा जन-जन में प्रवाहित हो रही है। इसमें रामचरितमानस का एक अभूतपूर्व योगदान है। ऐसे में अगर तुलसीदासजी को आधुनिक गुरुओं की अग्रीम पंक्ति में रखा जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
           गुरु साक्षात् भगवत स्वरुप ही होते हैं, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर सहज में ही ले आते हैं। इनके बारे में कहा गया है,
"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर् विष्णुः र्गुरुर्देवो महेश्वरः|
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
गुरु "गुरु ब्रह्मा हैं ,गुरु विष्णु हैं ,गुरु देवो के देव महादेव हैं और गुरु ही परम ब्रह्म हैं। हम सब ऐसे परम दयालु-कृपालु गुरु को नमन करते हैं, उनकी शरण में जाते हैं।"
इतना ही नहीं कबीरदास जी ने तो गुरुओं को देवताओं से भी बड़ा बताया, क्योंकि देवताओं की पहचान तो तब होगी न जब गुरु अज्ञान रूपी पर्दे को सामने से हटा लें ,  
"गुरु गोबिन्द दोउ खडे काके लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने गोबिन्द दियो बताय॥" 
 -कबीर
आइए सर्व प्रथम हम सब इन्हीं परम पूज्य गुरुओं के चरण कमलों की वंदना करते हुए भगवत-भक्तों की यह चर्चा श्रृंखला शुरू करें। "भक्ति का वरदान", इस चर्चा श्रृंखला में हम सब "रामचरितमानस" के कथा-प्रसंगों में आए उन भक्तों की चर्चा करेगें, जिन्होंने भगवान् से वरदान रूप में केवल और केवल उनकी भक्ति ही माँगी है। जहाँ तक याद आ रहा है, मानस में कुल ऐसे २१ भगवत भक्तों की कथाओं का वर्णन आता है। अगर मेरी गणना  में कोई त्रुटि हो तो सहृदय भक्तगण इसके लिए मुझे क्षमा करेगें और भूल सुधार निमित्त पथ प्रदर्शित भी करेगें। मानस में भक्ति का वरदान रूपी प्रसंग कुछ इस प्रकार आया है,
१. बालकाण्ड :
       १. शतरूपा जी (१/१५०) चरणों में प्रेम
       २. अहल्या जी (१/२१०/१-१६) चरणों में प्रेम
२. अयोध्याकाण्ड : 
       ३. केवट (२/१०२) भक्ति
       ४. भरद्वाज जी (२/१०६/८) चरणों में प्रेम
       ५. श्री भरत जी (२/२०४) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम
३. अरण्यकाण्ड :
       ६. शरभंग जी (३/७/७; ३/८) हृदय में निवास
       ७. सुतीक्ष्ण जी (३/१०/२६; ३/११) हृदय में निवास 
       ८. अगस्त जी (३/१२/१०-११) हृदय में निवास
       ९. जटायु (३/३१/१८, ३/३२) हृदय में निवास
      १०. सबरी (३/३५/७) प्रेम
४. किष्किन्धाकाण्ड :
      ११. बाली (४/९/१०-११) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम
      १२. तारा (४/१०/६) चरणों में प्रेम
      १३. सुग्रीव जी (४/६/२१) भक्ति
      १४. स्वयंप्रभा (४/२४/८) भक्ति
५. सुन्दरकाण्ड :
      १५. श्री हनुमान जी (५/३३/१) भक्ति
      १६. श्री विभीषण जी (५/४८/७) भक्ति
६. लंकाकाण्ड :
      १७. इन्द्र (६/११२/१५) हृदय में निवास 
      १८. श्री शिवजी (४/१६४/७) हृदय में निवास 
७. उत्तरकाण्ड :
            श्री शंकर जी (७/१४) चरणों में प्रेम
      १९ . सनकादि मुनि (३/३४) हृदय में निवास , ३ -टाइम्स
      २०. काकभुसुंडि जी (७/८४) भक्ति
      २१. गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज (७/१३०'') प्रेम

अगर गौर से विचार करें तो पता चलता है, भक्तों ने भक्ति के रूप में मूलतः दो चीजों की प्रार्थना की है,माँग की है। वह है, पहला चरणों में प्रेम और दूसरा ह्रदय में निवास। सम्पूर्ण रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने इन दो विषयों पर बहुत ज्यादा ध्यान दिए हैं। भक्ति के बस दो ही तत्व हैं, पहला भगवान के चरणों में प्रेम और दूसरा भगवान् का ह्रदय में निवास या यूँ कहें सबके ह्रदय में बसने वाले पभु का ह्रदय में दर्शन।  तो पहला प्रयास ये होना चाहिए, जिस किसी भी प्रकार से भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाये। और जब प्रभु के चरणों में प्रेम हो जायेगा तो स्वतः ही करुणानिधान आपके ह्रदय में आ विराजेंगे, दर्शन देगें। जब ह्रदय में आ बसेगें तो चरणों में और भी ज्यादा प्रेम बढ़ेगा और ज्यादा श्रद्धा होगी, इससे और भी भक्ति दृढ होगी, और आपका ह्रदय भगवान् का स्थाई निवास हो जायेगा। चरणों में प्रेम ---> ह्रदय में निवास ---> ह्रदय में निवास ---> चरणों , में प्रेम : भक्ति और प्रेम का यह सिलसिला अनवरत रूप से चलता रगेगा और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहेगी। आप सब ने ध्यान दिया होगा, गोस्वामी जी ने भी बालकाण्ड से उत्तरकाण्ड तक भक्ति का यही क्रम मानस में दर्शाया है।
"भक्ति का वरदान"

पहले चार बार चरणों में प्रेम, 
फिर भक्ति, 
इसके बाद चार बार ह्रदय में निवास, 
फिर प्रेम । 

दो बार चरणों में प्रेम, 
 चार बार भक्ति, 
दो बार ह्रदय में निवास । 

चरणों में प्रेम,
ह्रदय में निवास,
भक्ति, और 
प्रेम ।।

ऐसे भगवत-भक्ति में कोई नियम और शर्तें नहीं होती हैं(जैसे शंकर भगवान्, पहले ह्रदय में निवास फिर चरणों में प्रेम), आप कहीं से प्रारंभ करें भगवत दर्शन निश्चित है। फिर भी हम सब साधारण जीवों को भगवत भक्ति आसानी से समझा में आ जाये, इस कारण साधु-संतों थोड़े बहुत सुगम रस्ते बताये हैं। 
तो गोस्वामी जी कहते हैं, जीवन का अंतिम लक्ष्य भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाना है, अंतिम इसलिए कि इसके बाद आप का काम ख़त्म हो जाता है। इसके बाद भगवान् का काम शुरू होता, इसके आगे आपको कुछ करने की जरुरत नहीं, वो आप के लिए आपका सब काम करते हैं। तो भगवान् के चरणों में प्रेम कैसे हो यह प्रश्न है? इसका उत्तर हम सब अगली चर्चा में सुनेगें समझेगें। आज की चर्चा यहीं पर समाप्त काटें हैं। परमपिता परेश्वर आप सब का कल्याण करें, सदबुद्धि दें, सन्मार्ग पर ले चलें। हरि  ॐ, हरि  ॐ, हरि ॐ...   
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