जय श्रीकृष्ण! आज की चर्चा में आप सभी लोगों का स्वागत है। आज का प्रश्न है,"वेदों ने भगवान को समदर्शी बताया है। भगवान सारे जीवों को सदा एक भाव से ही देखते हैं, उनके यहाँ कोई राग-द्वेष नहीं, कोई भेद-भाव नहीं, कोई ऊँँच-नींच नहीं। उनके सामने हर कोई एक जैसा है। उनके दरबार में बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब, गोरा-काला, आदि कुछ भी नहीं चलता। भगवान ने स्वयं इस बात को मानस में कहा है, "समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ। "रा. च. मा. -४/२/८। । तो फिर ऐसा क्यों है, कोई पहले उनको पा लेता है, कोई कुछ-एक जन्मों में जा कर उनके दर्शन कर पाता है और कोई-कोई जन्म-जन्मान्तर बीत जाने पर भी उनसे दूर ही रहता है। जब भगवान समदर्शी हैं, तो ऐसा क्यों होता है। हर किसी को उनकीं कृपा अलग-अलग समय में प्राप्त होती है। इसका क्या कारण है?"
बहुत ही गूढ़ और अच्छा प्रश्न है। वेदों, उननिषदों तथा, और जितने भी धर्म-ग्रन्थ हैं, सब ने भगवान को समदर्शी बताया है। सारे संत-महात्मा भी भगवान को ऐसा ही बताते-कहते हैं। लेकिन संसार में हमें ठीक इसका उलटा दीखता है, किसी पर भगवत कृपा की बरसात होते रहती है और कोई एक-एक बूंद के लिए तरसते रहता है। कोई भगवान के बिल्कुल सानिध्य में है, तो कोई उनसे बहुत-बहुत दूर। ऐसा होने का क्या कारण है, ऐसा क्यों होता है? आज हम सब इस पर चर्चा करेगें, और इसका कारण जानने की कोशिश करेगें। आइए आज की चर्चा शुरू करते हैं। भगवान स्वयं आनंदमय हैं, आनंद के स्वरुप हैं। इसकारण उनके समक्ष दुःख और द्वेष की कोई बात नहीं हो सकती। जो स्वयं सुख का सागर हो, उसके पास भला दुःख कैसे हो सकता है, जो स्वयं में अद्वितीय प्रकाश-पुंज्य हो उसके पास भला अंधेरा कैसे रह सकता है। साथ ही साथ भगवान सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ हैं, ऐसा कुछ भी नहीं जो वो कर नहीं सकें, जो वो दे नहीं सकें। मानस में एक प्रसंग आया है,
"काकभसुंडी मागु बर, अति प्रसन्न मोहि जानि । "
- रा. च. मा. -७/८३'
"हे काकभुशुण्डि!तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग "
"आजु देउँ सब संसय नाहीं । मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥ "
- रा. च. मा. -७/८३/२
इस कारण वो किसी से कोई राग-द्वेष नहीं करते, सभी जीवों को सदा एक भाव से ही देखते हैं। जरुरत ही नहीं, वे तो स्वयं में पूर्ण हैं। तो फिर संसार में जो जीवों को भगवान की कृपा अलग-अलग समय में मिलती है, उसका कोई और कारण होगा। वो कारण भगवांन नहीं ये तो तय हुआ। फिर अब हमें ये देखना है की भगवान की कृपा अलग-अलग मिलने का वो कौन सा कारण है। अब चूकिं कृपा देने वाले भगवान और लेने वाले हम जीव हैं, और अगर अलग-अलग कृपा के लिए भगवान कारण नहीं हैं, तो फिर हम जीव ही हैं जो कि भगवान की कृपा को नहीं ग्रहण कर पा रहें हैं। भगवान की करुणा तो एक भाव से हर जगह बरस रही है, पर हम सब जीव अपनी आदतों और स्वाभाव वश, उन दयालु-कृपालु प्रभु से अब तक विमुख हैं। उदाहरण के लिए समझें, जैसे कक्षा में कोई शिक्षक एक पाठ पढ़ाता है, सारे बच्चों को वह एक ही भाव से पढ़ाता है, और कोई तरीका भी तो नहीं कि एक ही कक्षा में एक ही पाठ अलग-अलग ढंग से पढ़ाया जाये। वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर पायेगा। तो वह शिक्षक एक भाव से पाठ पढ़ाता है, पर कक्षा का हर बच्चा उस पाठ को अलग-अलग ढंग से समझता है। और इसका कारण है कि बच्चे ने कितनी तन्मयता से उस पाठ को सुना और समझा। जो बच्चा जितना ध्यान उस पाठ पर देता है, उसे उतना समझ में आता है। शिक्षक तो वही है, पाठ भी उसने एक सा ही पढ़ाया पर हर बच्चे ने उसे अलग-अलग ग्रहण किया। ठीक इसी प्रकार भगवान की भी करुणा सब जीवों पर एक सी ही होती है, किस को कितना मिलता है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसनें कितनी तन्मयता से, कितने विस्वास से उसको ग्रहण किया। तो ये हम पर निर्भर करता है कि हम भगवान की कितनी कृपा ले पते हैं।
"ये सब मैं आज तुझे दूँगा,इसमें संदेह नहीं । जो तेरे मन भावे,सो माँग ले "
एक कथा याद आ रही है, एक बार नारद मुनि भगवान के प्यारे नामों का गुणगान करते हुए किसी जंगल से गुजर रहे थे। वह जंगल बहुत ही सघन और निर्मल था, और भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़-पौधे से भरा पड़ा था। बहुतों प्रकार के जीव-जन्तु, उसमें स्वछंद विचरण किया करते थे। सुन्दर-सुन्दर पहाड़, नदी और झड़ने उसकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। उस वन में हर जगह शांति ही शांति थी, बहुत सारे मुनि-महात्मा अपनी-अपनी साधना, तपस्या में वहाँ लीन थे। नारदजी इसी वन से गुजर रहे थे, प्रेम से हरी नाम का गुणगान करते हुए। कुछ दूर चलने पर, नारदजी को रस्ते में एक साधु मिले, कुछ बूढ़े हो चले थे, लग रहा था वर्षों से तपस्या में लीन थे। दोनों ने एक दूसरे को देख कर अभिवादन किया, एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछा। थोड़ी देर के बाद बूढ़े साधु ने नारदजी से पूछा, "भगवन वर्षों बीत गए तपस्या करते-करते, अब तो शरीर भी बूढ़ा हो चला है। आप तीनो लोकों में बिना रोक-टोक नित्य भ्रमण करते हैं, और तो और आप जब चाहें अपनी इच्छा से प्रभु के धाम जा सकते हैं, उनसे बातें कर सकते हैं। तो अगली बार जब आप प्रभु से मिलें तो, जरा उनसे पूछियेगा, मेरी तपस्या कब पूर्ण होगी और कब भगवान का साक्षात दर्शन हो पायेगा?" नारदजी ने कहा ठीक है और उन साधु को आस्वासन दे आगे बढ़ चले। कुछ दूर आगे चलने के बाद नारदजी को रस्ते में एक और साधु मिले, जो थोड़े युवा और स्वस्थ थे। लग रहा था अभी कुछ दिनों से ही भगवत भक्ति शुरू की हो। उन्होंने भी नारदजी से वही प्रश्न किया कि भगवान कितने वर्षों की तपस्या के बाद दर्शन देगें? नारद मुनि उनसे भी भगवान से पूछने की बात कह आगे बढ़ चले। कुछ दिनों बाद एक बार फिर नारदजी उसी वन से गुजरे। आगे चलने पर उन्हीं बूढ़े साधु से भेंट हुई। उन साधु ने नारदजी से पूछा कि भगवान से मेरे बारे में आपकी बात हुई थी? तो नारदजी ने कहा, हाँ हुई थी, भगवान ने कहा है, अगले १०० वर्षों की तपस्या के बाद वो आपको दर्शन देगें। १०० वर्षों की बात सुन वो साधु थोड़े उदास हो गये। फिर नारदजी उन साधु को ज्ञान और भक्ति की ढेड़ सारी बातें बतायीं, भक्ति मार्ग का उपदेश दिया, और बहुत प्रकार से समझा-बुझा कर, उनको संतुष्ट कर आगे बढ़े। कुछ दूर आगे चलने के बाद नारदजी को फिर वही युवा साधु मिले, और उन्होंने भी अपने प्रश्न के बारे में नारदजी से पूछा। उत्तर में नारदजी ने भगवान की कही बातें ज्यों का त्यों उन साधु को कह सुनाया। भगवान ने कहा था, इस घने पीपल के पेड़ में जितने पत्ते हैं उतने १००० वर्षों के बाद, तपस्या पूर्ण होगी और फिर दर्शन दूँगा। नारदजी के इतना कहते ही कि भगवान दर्शन देगें, वे युवा साधु भावविभोर होकर ख़ुशी से नृत्य करने लगे, झूमने लगे और भगवान के नामों का जोर-जोर से गुणगान करने लगे। नारदजी को लगा शायद इन्होंने बात को ठीक से समझा नहीं, उन्होंने अपनी बात फिर से दुहराई कि इस पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने १००० वर्षों के बाद भगवान दर्शन देगें। पर वो साधु तो भगवान दर्शन देगें यही सुन कर मस्त हो गए, कितने समय, कितने वर्षों वाली बात पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। उनके लिए तो भगवान दर्शन देगें यही काफी था। वो अपनी ही धुन में मस्त हो नृत्य करते रहे, वो इस बात को भी भूल गए की नारदजी भी वहीं हैं, उन्हें तो बस याद था कि अब भगवान दर्शन देगें, भगवान ने स्वयं कहा कि दर्शन देगें तो अवश्य ही दर्शन देगें और यही उनके लिए काफी था। अब इन साधु की भक्ति का क्या कहना, इनकी तपस्या का क्या कहना, इनकी लगन का क्या कहना, भगवान तत्क्षण वहाँ प्रगट हो गए। उसी क्षण भगवान ने साधु को दर्शन दिया और भक्ति का वरदान दे कृतार्थ किया। इसके बाद नारदजी ने भगवान को प्रणाम कर पूछा, प्रभु आप ने तो कहा था इस पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने १००० वर्षों के बाद भगवान दर्शन देगें, परन्तु आप तो अभी ही दर्शन दे दिया, बिना देर लगाये, बिना किसी तपस्या के, इसका क्या कारण है? अभी ऐसा क्या हो गया, इन साधु ने ऐसी कौन सी भक्ति कर डाली जिस कारण आप तत्क्षण दर्शन को उपलब्ध हो गए? तब भगवान ने कहा, "नारद! जिस क्षण भक्त सब आस-भरोस को छोड़ कर, पूर्ण विस्वास के साथ मेरी शरण में आ जाता है, मैं भी बिना देर लगाये उसी क्षण को उसको उपलब्ध होजाता हूँ। ये मेरा प्रण है। मुझे प्राप्त करने का न तो कोई समय सीमा है और न ही कोई नियम-कानून। बस पूर्ण विस्वास और समर्पण के साथ जब जीव मेरी शरण में आता है, उसी समय मैं उसे अपना बना लेता हूँ। मेरी अनन्य भक्ति ही एकमात्र रास्ता है, जिस से मैं प्राप्त किया जा सकता हूँ। यह भक्ति हर कोई कर सकता है, हर क्षण कर सकता है और इसके लिए कोई शर्त भी नहीं। विस्वासपूर्ण शरणागति और अनन्य भक्ति से मैं सहज ही उपलब्ध हो जाता हूँ।" इतना कह भगवान अंतर्ध्यान हो गए और नारदजी हरि नामों का गुणगान करते आगे बढ़ चले।
तो संसार में जो लोग यह कहते रहते हैं, भगवान ने यह नहीं दिया, वह नहीं दिया, उन्होंने ऐसा नहीं करा, उन्होंने वैसा नहीं करा, वो सब उन लोगों का ही दोष है न की भगवान का। भगवान ने तो सब दे रखा है, बस आप पात्र तो बनिए। उन्होंने सारा संसार देने के लिए ही तो बनाया है, वो तो पूर्ण हैं, वो तो करुणा करने के लिए ही हैं, वो तो दया करने के लिए ही हैं। तो हमको जो कुछ भी नहीं मिला उसमें भगवान की नहीं हमारी अपनी गलती है। चूँक भगवान से नहीं, हमसे हो रही है। हम ही अब तक उस लायक नहीं बन पायें हैं। तो देरी भक्तों से होती है, हम सब जीवों से होती है, भगवान तो बिना देर लगाये हर क्षण को उपलब्ध होतें हैं। विमुखता तो हमने कर रखी है, भगवान तो कब से हम जीवों के आस में बैठे हैं, वो इस इंतजार में बैठे हैं कि कब जीव उनके सन्मुख हो और वो कृपा की बरसात करें। वो तो करुणा और दया करने के लिए ही हैं, देने के लिए ही हैं, बस हम ही उनसे मुँह छुपाये बैठे हैं, तो कल्याण कैसे होगा। वो तो चाहतें हैं कि जीव जल्द से जल्द उनके सन्मुख होकर अपने दुःखों, कष्टों से सदा के लिए मुक्त हो जाये और कभी न ख़त्म होने वाले, प्रति क्षण बढ़ने वाले आनंद को प्राप्त करे। भक्ति के मार्ग में स्वयं भी आगे बढे और दूसरों को भी भक्ति मार्ग के लिए प्रेरित करे। तो देरी हमारी ओर से ही हो रही है, हम ही उलटी दिशा की ओर हैं, हमने ही अपने को संसार से जोड़ रखा है, संसार में ही आनन्द को खोज रहे हैं, भटक रहे हैं। बस एक बार अगर हम पूर्ण विस्वास के साथ उनकी ओर हो लें, भगवत-भक्ति के मार्ग पर चल पड़ें, तो फिर हमें भगवान की करुणा भी मिलेगी, दया भी मिलेगा और कृपा भी प्राप्त होगी वो भी बिना किसी देरी के। तो जीव भगवान से विमुख होने के कारण उनकी कृपा से अब तक वंचित है।
तो भगवान अनंत काल से ही हम सब जीवों पर करुणा की बरसात किये जा रहें हैं, लेकिन हम सब माया के वशीभूत होकर उनकी दया और करुणा को अब तक प्राप्त नहीं कर पाये। जिस क्षण हम सजग हो भगवान के सन्मुख हो जायेगें, भगवान की कृपा हमें उसी क्षण को प्राप्त हो जाएगी और हम सदा के लिए अपने दुखों से मुक्त हो भगवतानन्द को प्राप्त हो जायेगें। भगवान सूक्ष्म रूप से प्रत्येक जीव के हृदय में विराजमान रहते हैं। वो जीव के अनंत जनमों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उसके अनुसार फल भी देते हैं। जीव अपने ही कर्मों के अनुसार संसार में आता और फल भोगता है। भगवान ने ये संसार हम सब जीवों के उद्धार के लिए बनाया है। जीवों को शरीर प्रदान कर कर्म करने योग्य बनाया है। उन्होंने हमें ये जीवन उनकी भक्ति कर उनको ही प्राप्त करने के लिए दी है। पर हम सब मोह के वशीभूत होकर भगवान को ही भूल बैठे हैं और इसीकारण से संसार में नित्य भटक रहे हैं। हम सब जीवों को चाहिए, संसार से प्रेम के बजाय भगवान से प्रेम करें। और अभ्यास के द्वारा भक्ति के मार्ग पर निरंतर चलते हुए भगवान को प्राप्त करें। यह शरीर, यह जीवन, सब भगवान की धरोहर है, जो कि भगवान ने हमें थोड़े से समय के लिए दी है, अपनी भक्ति करने के लिए, अपनेको प्राप्त करने के लिए। समय बीतता जा रहा है, उनकी और से कोई विलंब नहीं, उनकी दया और करुणा में कोई कमी नहीं हो रही है, बस हमें ही थोड़ा सा प्रयास करना होगा, उनके सन्मुख हो उनकी भक्ति करनी होगी। आइए आज से, अभी से हम सब भगवत भक्ति का प्रण करें, फिर सब अच्छा होगा, कल्याणमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरी ॐ ॥
तो भगवान अनंत काल से ही हम सब जीवों पर करुणा की बरसात किये जा रहें हैं, लेकिन हम सब माया के वशीभूत होकर उनकी दया और करुणा को अब तक प्राप्त नहीं कर पाये। जिस क्षण हम सजग हो भगवान के सन्मुख हो जायेगें, भगवान की कृपा हमें उसी क्षण को प्राप्त हो जाएगी और हम सदा के लिए अपने दुखों से मुक्त हो भगवतानन्द को प्राप्त हो जायेगें। भगवान सूक्ष्म रूप से प्रत्येक जीव के हृदय में विराजमान रहते हैं। वो जीव के अनंत जनमों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उसके अनुसार फल भी देते हैं। जीव अपने ही कर्मों के अनुसार संसार में आता और फल भोगता है। भगवान ने ये संसार हम सब जीवों के उद्धार के लिए बनाया है। जीवों को शरीर प्रदान कर कर्म करने योग्य बनाया है। उन्होंने हमें ये जीवन उनकी भक्ति कर उनको ही प्राप्त करने के लिए दी है। पर हम सब मोह के वशीभूत होकर भगवान को ही भूल बैठे हैं और इसीकारण से संसार में नित्य भटक रहे हैं। हम सब जीवों को चाहिए, संसार से प्रेम के बजाय भगवान से प्रेम करें। और अभ्यास के द्वारा भक्ति के मार्ग पर निरंतर चलते हुए भगवान को प्राप्त करें। यह शरीर, यह जीवन, सब भगवान की धरोहर है, जो कि भगवान ने हमें थोड़े से समय के लिए दी है, अपनी भक्ति करने के लिए, अपनेको प्राप्त करने के लिए। समय बीतता जा रहा है, उनकी और से कोई विलंब नहीं, उनकी दया और करुणा में कोई कमी नहीं हो रही है, बस हमें ही थोड़ा सा प्रयास करना होगा, उनके सन्मुख हो उनकी भक्ति करनी होगी। आइए आज से, अभी से हम सब भगवत भक्ति का प्रण करें, फिर सब अच्छा होगा, कल्याणमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरी ॐ ॥
"सब साधन को एक फल, जेहिं जान्यो सो जान।
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं, राम धरें धनु बान ॥ "
- दोहावली -९०
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