बुधवार, 30 सितंबर 2015

"समदर्शी भगवान"

           जय श्रीकृष्ण! आज की चर्चा में आप सभी लोगों का स्वागत है। आज का प्रश्न है,"वेदों ने भगवान को समदर्शी बताया है। भगवान सारे जीवों को सदा एक भाव से ही देखते हैं, उनके यहाँ कोई राग-द्वेष नहीं, कोई भेद-भाव नहीं, कोई ऊँँच-नींच नहीं। उनके सामने हर कोई एक जैसा है। उनके दरबार में बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब, गोरा-काला, आदि कुछ भी नहीं चलता। भगवान ने स्वयं इस बात को मानस में कहा है, "समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ। "रा. च. मा. -४/२/८। । तो फिर ऐसा क्यों है, कोई पहले उनको पा लेता है, कोई कुछ-एक जन्मों में जा कर उनके दर्शन कर पाता है और कोई-कोई जन्म-जन्मान्तर बीत जाने पर भी उनसे दूर ही रहता है। जब भगवान समदर्शी हैं, तो ऐसा क्यों होता है। हर किसी को उनकीं कृपा अलग-अलग समय में प्राप्त होती है। इसका क्या कारण है?" 
           बहुत ही गूढ़ और अच्छा प्रश्न है। वेदों, उननिषदों तथा, और जितने भी धर्म-ग्रन्थ हैं, सब ने भगवान को समदर्शी बताया है। सारे संत-महात्मा भी भगवान को ऐसा ही बताते-कहते हैं। लेकिन संसार में हमें ठीक इसका उलटा दीखता है, किसी पर भगवत कृपा की बरसात होते रहती है और कोई एक-एक बूंद के लिए तरसते रहता है। कोई भगवान के बिल्कुल सानिध्य में है, तो कोई उनसे बहुत-बहुत दूर। ऐसा होने का क्या कारण  है, ऐसा क्यों होता है? आज हम सब इस पर चर्चा करेगें, और इसका कारण जानने की कोशिश करेगें। आइए आज की चर्चा शुरू करते हैं। भगवान स्वयं आनंदमय हैं, आनंद के स्वरुप हैं। इसकारण उनके समक्ष दुःख और द्वेष की कोई बात नहीं हो सकती। जो स्वयं सुख का सागर हो, उसके पास भला दुःख कैसे हो सकता है, जो स्वयं में अद्वितीय प्रकाश-पुंज्य हो उसके पास भला अंधेरा कैसे रह सकता है। साथ ही साथ भगवान सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ हैं, ऐसा कुछ भी नहीं जो वो कर नहीं सकें, जो वो दे नहीं सकें। मानस में एक प्रसंग आया है,
"काकभसुंडी मागु बर, अति प्रसन्न मोहि जानि । "
 - रा. च. मा.  -७/८३'
"हे काकभुशुण्डि!तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग "
"आजु देउँ सब संसय नाहीं । मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥ "
 - रा. च. मा.  -७/८३/२ 
"ये सब मैं आज तुझे दूँगा,इसमें संदेह नहीं । जो तेरे मन भावे,सो माँग ले "
इस कारण वो किसी से कोई राग-द्वेष नहीं करते, सभी जीवों को सदा एक भाव से ही देखते हैं। जरुरत ही नहीं, वे तो स्वयं में पूर्ण हैं। तो फिर संसार में जो जीवों को भगवान की कृपा अलग-अलग समय में मिलती है, उसका कोई और कारण होगा। वो कारण भगवांन नहीं ये तो तय हुआ। फिर अब हमें ये देखना है की भगवान की कृपा अलग-अलग मिलने का वो कौन सा कारण है। अब चूकिं कृपा देने वाले भगवान और लेने वाले हम जीव हैं, और अगर अलग-अलग कृपा के लिए भगवान कारण  नहीं हैं, तो फिर हम जीव ही हैं जो कि भगवान की कृपा को नहीं ग्रहण कर पा रहें हैं। भगवान की करुणा तो एक भाव से हर जगह बरस रही है, पर हम सब जीव अपनी आदतों और स्वाभाव वश, उन दयालु-कृपालु प्रभु से अब तक विमुख हैं। उदाहरण के लिए समझें, जैसे कक्षा में कोई शिक्षक एक पाठ पढ़ाता है, सारे बच्चों को वह एक ही भाव से पढ़ाता है, और कोई तरीका भी तो नहीं कि एक ही कक्षा में एक ही पाठ अलग-अलग ढंग से पढ़ाया जाये। वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर पायेगा। तो वह शिक्षक एक भाव से पाठ पढ़ाता है, पर कक्षा का हर बच्चा उस पाठ को अलग-अलग ढंग से समझता है। और इसका कारण है कि बच्चे ने कितनी तन्मयता से उस पाठ को सुना और समझा। जो बच्चा जितना ध्यान उस पाठ पर देता है, उसे उतना समझ में आता है। शिक्षक तो वही है, पाठ भी उसने एक सा ही पढ़ाया पर हर बच्चे ने उसे अलग-अलग ग्रहण किया। ठीक इसी प्रकार भगवान की भी करुणा सब जीवों पर एक सी ही होती है, किस को कितना मिलता है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसनें कितनी तन्मयता से, कितने विस्वास से उसको ग्रहण किया। तो ये हम पर निर्भर करता है कि हम भगवान की कितनी कृपा ले पते हैं।  
           एक कथा याद आ रही है, एक बार नारद मुनि भगवान के प्यारे नामों का गुणगान करते हुए किसी जंगल से गुजर रहे थे। वह जंगल बहुत ही सघन और निर्मल था, और भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़-पौधे से भरा पड़ा था। बहुतों प्रकार के जीव-जन्तु, उसमें स्वछंद विचरण किया करते थे। सुन्दर-सुन्दर पहाड़, नदी और झड़ने उसकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। उस वन में हर जगह शांति ही शांति थी, बहुत सारे मुनि-महात्मा अपनी-अपनी साधना, तपस्या में वहाँ लीन थे। नारदजी इसी वन से गुजर रहे थे, प्रेम से हरी नाम का गुणगान करते हुए। कुछ दूर चलने पर, नारदजी को रस्ते में एक साधु मिले, कुछ बूढ़े हो चले थे, लग रहा था वर्षों  से तपस्या में लीन थे। दोनों ने एक दूसरे को देख कर अभिवादन किया, एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछा। थोड़ी देर के बाद बूढ़े साधु ने नारदजी से पूछा, "भगवन वर्षों बीत गए तपस्या करते-करते, अब तो शरीर भी बूढ़ा हो चला है। आप तीनो लोकों में बिना रोक-टोक नित्य भ्रमण करते हैं, और तो और आप जब चाहें अपनी इच्छा से प्रभु के धाम जा सकते हैं, उनसे बातें  कर सकते हैं। तो अगली बार जब आप प्रभु से मिलें तो, जरा उनसे पूछियेगा, मेरी तपस्या कब पूर्ण होगी और कब भगवान का साक्षात दर्शन हो पायेगा?" नारदजी ने कहा ठीक है और उन साधु को आस्वासन दे आगे बढ़ चले। कुछ दूर आगे चलने के बाद नारदजी को रस्ते में एक और साधु मिले, जो थोड़े युवा और स्वस्थ थे। लग रहा था अभी कुछ दिनों से ही भगवत भक्ति शुरू की हो। उन्होंने भी नारदजी से वही प्रश्न किया कि भगवान कितने वर्षों की तपस्या के बाद दर्शन देगें? नारद मुनि उनसे भी भगवान से पूछने की बात कह आगे बढ़ चले। कुछ दिनों बाद एक बार फिर नारदजी उसी वन से गुजरे। आगे चलने पर उन्हीं बूढ़े साधु से भेंट हुई। उन साधु ने नारदजी से पूछा कि भगवान से मेरे बारे में आपकी बात हुई थी? तो नारदजी ने कहा, हाँ हुई थी, भगवान ने कहा है, अगले १०० वर्षों की तपस्या के बाद वो आपको दर्शन देगें। १०० वर्षों की बात सुन वो साधु थोड़े उदास हो गये। फिर नारदजी उन साधु को ज्ञान और भक्ति की ढेड़  सारी बातें  बतायीं, भक्ति मार्ग का उपदेश दिया, और बहुत प्रकार से समझा-बुझा कर, उनको संतुष्ट कर आगे बढ़े। कुछ दूर आगे चलने के बाद नारदजी को फिर वही युवा साधु मिले, और उन्होंने भी अपने प्रश्न के बारे में नारदजी से पूछा। उत्तर में नारदजी ने भगवान की कही बातें ज्यों का त्यों उन साधु को कह सुनाया। भगवान ने कहा था, इस घने पीपल के पेड़ में जितने पत्ते हैं उतने १००० वर्षों के बाद, तपस्या पूर्ण होगी और फिर दर्शन दूँगा। नारदजी के इतना कहते ही कि भगवान दर्शन देगें, वे युवा साधु भावविभोर होकर ख़ुशी से नृत्य करने लगे, झूमने लगे और भगवान के नामों का जोर-जोर से गुणगान करने लगे। नारदजी को लगा शायद इन्होंने बात को ठीक से समझा नहीं, उन्होंने अपनी बात फिर से दुहराई कि इस पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने १००० वर्षों के बाद भगवान दर्शन देगें। पर वो साधु तो भगवान दर्शन देगें यही सुन कर मस्त हो गए, कितने समय, कितने वर्षों वाली बात पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। उनके लिए तो भगवान दर्शन देगें यही काफी था। वो अपनी ही धुन में मस्त हो नृत्य करते रहे, वो इस बात को भी भूल गए की नारदजी भी वहीं हैं, उन्हें तो बस याद था कि अब भगवान दर्शन देगें, भगवान ने स्वयं कहा कि दर्शन देगें तो अवश्य ही दर्शन देगें और यही उनके लिए काफी था। अब इन साधु की भक्ति का क्या कहना, इनकी तपस्या का क्या कहना, इनकी लगन का क्या कहना, भगवान तत्क्षण वहाँ प्रगट हो गए। उसी क्षण भगवान ने साधु को दर्शन दिया और भक्ति का वरदान दे कृतार्थ किया। इसके बाद नारदजी ने भगवान को प्रणाम कर पूछा, प्रभु आप ने तो कहा था इस पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने १००० वर्षों के बाद भगवान दर्शन देगें, परन्तु आप तो अभी ही दर्शन दे दिया, बिना देर लगाये, बिना किसी तपस्या के, इसका क्या कारण है? अभी ऐसा क्या हो गया, इन साधु ने ऐसी कौन सी भक्ति कर डाली जिस कारण आप तत्क्षण दर्शन को उपलब्ध हो गए? तब भगवान ने कहा, "नारद! जिस क्षण भक्त सब आस-भरोस को छोड़ कर, पूर्ण विस्वास के साथ मेरी शरण में आ जाता है, मैं भी बिना देर लगाये उसी क्षण को उसको उपलब्ध होजाता हूँ। ये मेरा प्रण है। मुझे प्राप्त करने का न तो कोई समय सीमा है और न ही कोई नियम-कानून। बस पूर्ण विस्वास और समर्पण के साथ जब जीव मेरी शरण में आता है, उसी समय मैं उसे अपना बना लेता हूँ। मेरी अनन्य भक्ति ही एकमात्र रास्ता है, जिस से मैं प्राप्त किया जा सकता हूँ। यह भक्ति हर कोई कर सकता है, हर क्षण कर सकता है और इसके लिए कोई शर्त भी नहीं। विस्वासपूर्ण शरणागति और अनन्य भक्ति से मैं सहज ही उपलब्ध हो जाता हूँ।" इतना कह भगवान अंतर्ध्यान हो गए और नारदजी हरि नामों का गुणगान करते आगे बढ़ चले। 
           तो संसार में जो लोग यह कहते रहते हैं, भगवान ने यह नहीं दिया, वह नहीं दिया, उन्होंने ऐसा नहीं करा, उन्होंने वैसा नहीं करा, वो सब उन लोगों का ही दोष है न की भगवान का। भगवान ने तो सब दे रखा है, बस आप पात्र तो बनिए। उन्होंने सारा संसार देने के लिए ही तो बनाया है, वो तो पूर्ण हैं, वो तो करुणा करने के लिए ही हैं, वो तो दया करने के लिए ही हैं। तो हमको जो कुछ भी नहीं मिला उसमें  भगवान की नहीं हमारी अपनी गलती है। चूँक भगवान से नहीं, हमसे हो रही है। हम ही अब तक उस लायक नहीं बन पायें हैं। तो देरी भक्तों से होती है, हम सब जीवों से होती है, भगवान तो बिना देर लगाये हर क्षण को उपलब्ध होतें हैं। विमुखता तो हमने कर रखी है, भगवान तो कब से हम जीवों के आस में बैठे हैं, वो इस इंतजार में बैठे हैं कि कब जीव उनके सन्मुख हो और वो कृपा की बरसात करें। वो तो करुणा और दया करने के लिए ही हैं, देने के लिए ही हैं, बस हम ही उनसे मुँह छुपाये बैठे हैं, तो कल्याण कैसे होगा। वो तो चाहतें हैं कि जीव जल्द से जल्द उनके सन्मुख होकर अपने दुःखों, कष्टों से सदा के लिए मुक्त हो जाये और कभी न ख़त्म होने वाले, प्रति क्षण बढ़ने वाले आनंद को प्राप्त करे। भक्ति के मार्ग में स्वयं भी आगे बढे और दूसरों को भी भक्ति मार्ग के लिए प्रेरित करे। तो देरी हमारी ओर से ही हो रही है, हम ही उलटी दिशा की ओर हैं, हमने ही अपने को संसार से जोड़ रखा है, संसार में ही आनन्द  को खोज रहे हैं, भटक रहे हैं। बस एक बार अगर हम पूर्ण विस्वास के साथ उनकी ओर हो लें, भगवत-भक्ति के मार्ग पर चल पड़ें, तो फिर हमें भगवान की करुणा भी मिलेगी, दया भी मिलेगा और कृपा भी प्राप्त होगी वो भी बिना किसी देरी के। तो जीव भगवान से विमुख होने के कारण  उनकी कृपा से अब तक वंचित है।
           तो भगवान अनंत काल से ही हम सब जीवों पर करुणा की बरसात किये जा रहें हैं, लेकिन हम सब माया के वशीभूत होकर उनकी दया और करुणा को अब तक प्राप्त नहीं कर पाये। जिस क्षण हम सजग हो भगवान के सन्मुख हो जायेगें, भगवान की कृपा हमें उसी क्षण को प्राप्त हो जाएगी और हम सदा के लिए अपने दुखों से मुक्त हो भगवतानन्द को प्राप्त हो जायेगें। भगवान सूक्ष्म रूप से प्रत्येक जीव के हृदय में विराजमान रहते हैं। वो जीव के अनंत जनमों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उसके अनुसार फल भी देते हैं। जीव अपने ही कर्मों के अनुसार संसार में आता और फल भोगता है। भगवान ने ये संसार हम सब जीवों के उद्धार के लिए बनाया है। जीवों को शरीर प्रदान कर कर्म करने योग्य बनाया है। उन्होंने हमें ये जीवन उनकी भक्ति कर उनको ही प्राप्त करने के लिए दी है। पर हम सब मोह के वशीभूत होकर भगवान को ही भूल बैठे हैं और इसीकारण से संसार में नित्य भटक रहे हैं। हम सब जीवों को चाहिए, संसार से प्रेम के बजाय भगवान से प्रेम करें। और अभ्यास के द्वारा भक्ति के मार्ग पर निरंतर चलते हुए भगवान को प्राप्त करें। यह शरीर, यह जीवन, सब भगवान की धरोहर है, जो कि भगवान ने हमें थोड़े से समय के लिए दी है, अपनी भक्ति करने के लिए, अपनेको प्राप्त करने के लिए। समय बीतता जा रहा है, उनकी और से कोई विलंब नहीं, उनकी दया और करुणा में कोई कमी नहीं हो रही है, बस हमें ही थोड़ा सा प्रयास करना होगा, उनके सन्मुख हो उनकी भक्ति करनी होगी। आइए आज से, अभी से हम सब भगवत भक्ति का प्रण करें, फिर सब अच्छा होगा, कल्याणमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरी ॐ ॥
"सब साधन को एक फल, जेहिं जान्यो सो जान। 
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं, राम धरें धनु बान ॥ "
- दोहावली  -९० 
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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

किनको भगवान माने?

           जय श्रीकृष्ण! कभी-कभी कोई छोटी सी घटना, कोई छोटी सी बात, कोई छोटी सी कहानी, आप के मन को छू जाती है, आप को भा जाती है और आप चाह कर भी उसे नहीं भुला पाते। आप सभी ने अपने-अपने जीवन में कभी न कभी कुछ ऐसा अनुभव किया होगा। ऐसे ही कभी-कभी, किन्हीं-किन्हीं साधक का प्रश्न मन को छू जाता है, लगता है कि जैसे, ये आपका अपना ही प्रश्न हो। आज कुछ ऐसा ही हुआ, आज एक साधक ने जो प्रश्न किया, वो मन को छू गया। उन्होंने अपने प्रश्न में पूछा, किनको भगवान माने? कोई कहता है, श्रीराम भगवान हैं, वो मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तो कोई कहता है, अरे नहीं श्रीकृष्ण ही भगवान हैं, वो सोलह कलाओं में निपुण थे, कोई और कहता है, भगवान भोले शंकर को भूल गए क्या, वास्तव में तो वही भगवान हैं, अनादि-अजन्मा और तो और बहुत जल्दी प्रशन्न भी हो जाते हैं, तो कोई और देवी माँ की बात करता है। अब आप बताइये असली भगवान कौन हैं?  कौन से भगवान सबसे बड़े हैं? क्या वो श्रीकृष्ण हैं? क्या वो श्रीराम हैं? क्या भगवान भोले शंकर, या देवी माँ हैं? या इन सबों से अलग, वो कोई और ही हैं? तो आज का ये प्रश्न मन में कहीं बैठ गया। मन को जैसे भा सा गया। इसका कारण है, क्योंकि ये वह प्रश्न है, जो संभवतः अनादि काल से चला आ रहा है, हर युग में ऐसे प्रश्न उभर कर आते रहें हैं। न जाने कितनो के मन में उपजा, न जाने कितनो ने जाहिर किया, और कितनों ने इस पर वाद-विवाद किया। ये वही प्रश्न है, जिस पर अनगिनत बार लड़ाइयाँ हो चूकिं, पूरे शहर के शहर नष्ट हो गए। ये वही प्रश्न है, जो सदियों से हमें धर्म और संस्कृति के आड़ में तोड़ती आ रही है। हमने बहुत कुछ गवाँया है, इस एक प्रश्न को ले कर के। और आज भी समूचा सामाज इसी एक प्रश्न पर ही बटा हुआ है। तो आइए आज की चर्चा में हम सब इस एक प्रश्न पर विचार करें कि, आखिर वो एक भगवान कौन हैं? आज की चर्चा में हम इसको समझने की कोशिश करेगें।   
continue.....

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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

"सम्यक ज्ञान"

           गीता में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं,  "सर्वधर्मान्परित्यज्य..." - भगवत गीता १८/६६, अगर इसका साधारण सा अर्थ देखें  तो लगता है, श्रीकृष्ण कह रहे हैं, सभी धर्मों को छोड़ दो। जहाँ एक ओर धर्म को छोड़ने की बात कर रहें हैं, वहीँ दूसरी और कहते हैं,"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।" - भगवत गीता ४/७, और यहाँ पर लगता है कह रहे हैं, जब-जब धर्म की हानि होती है… तब तब मुझे आना पड़ता है। तो बात उलटी हो गयी न, एक जगह बोल रहें हैं, धर्मों को छोड़ दो, और वहीँ दूसरी जगह बोल रहे हैं, लोग धर्म छोड़ देते हैं इसलिए मुझे समय-समय पर अवतार ले कर आना पड़ता है। ऐसा कैसे? श्रीकृष्ण दो विरोधाभासी बातें कैसे कह रहे हैं? ऐसा कहने का क्या मतलब है। 
           प्रश्न सरल है, सच्चे मन से पूछा गया है और स्वागत योग्य है। अगर आपने निर्मल मन से प्रश्न किया है और उत्तर की आशा करतें हैं, तो भागवत-भक्ति मार्ग के पर आपका स्वागत है, आपने भक्ति के मार्ग पर कदम रख दिया है। जब मन में प्रश्न होगा और जिज्ञासा होगी, तब उत्तर पाने की आशा भी होगी। और आप उत्तर जानने के लिए प्रयत्न भी शुरू करेगें। फिर आप को उत्तर मिलेगा, आपको ज्ञान होगा, ज्ञान होगा तो आप भगवान के सन्नमुख होगें और जब आप भगवान के सन्नमुख  होगें तो सुख-शांति मिलेगी, आनंद  मिलेगा और आप संसार सागर से सदा के लिए पार हो जायेंगे। तो आइए वापस उसी प्रश्न पर विचार करते हैं कि आखिर भगवान दो विरोधी बातें क्यों कह रहें हैं। एक-एक कर के हम इन बातों को समझेगें। 
           तो पहली बात जहाँ भगवान "सर्वधर्मान्परित्यज्य..." की बातें कर रहे हैं, मतलब सभी धर्मो को छोड़ कर, बिलकुल साधारण सा मतलब है, सभी धर्मो को छोड़ कर। सर्वप्रथम यहाँ गौर करने वाली बात है, भगवान धर्मों को ही छोड़ने की बात कर रहें हैं, कर्मों को छोड़ने की नहीं। धर्म और कर्म अलग-अलग हैं, हम लोग इसकी चर्चा आगे करेगें। तो यहाँ भगवान सभी धर्मों को छोड़ने की बात करतें हैं, लेकिन साथ में आगे "मामेकं शरणं व्रज" भी जोड़ते हैं। मतलब सभी धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। धर्मों को छोड़ो पर केवल मेरे लिए। लेकिन भगवान ऐसा भी क्यों कह रहे हैं, धर्मों को बिना छोड़े भी तो उनकी शरण में जाया जा सकता है। हाँ आप की बात सही है, धर्मों को छोड़े बिना भी आप उनकी शरण में जा सकतें हैं, लेकिन धर्मों से जुड़ाव आप को संसार से भी जोड़े रखेगा। और माया के बने इस संसार से किसी भी प्रकार का जुड़ाव, अंत में दुःख का कारण \ ही होता है। और ऐसे भी भगवान अनन्य और केवल अनन्य भक्ति की ही बात करते हैं। तो भगवान कहते हैं, "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। " और संयोग से अगर आपने सब धर्मों को छोड़ कर भगवान के शरण हो लिए तो फिर भगवान की प्रतिज्ञा भी सुन लीजिये, भगवान कहतें हैं "अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।" मतलब मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तो पूरा मंत्र इस प्रकार है, 
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 
"अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। "
- भगवत गीता १८/६६
"सम्पूर्ण  धर्मों को मुझमें त्याग कर, तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेस्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा , तू शोक मत कार ॥ "
तो भगवान धर्मों को छोड़ने की बात तो कर रहे हैं, पर केवल और बस केवल अपनी अनन्य भक्ति के लिए ही। जब कोई भक्त ऐसा करता है तो फिर भगवान उसके सारे कर्मों के द्वारा अर्जित फल को समाप्त कर देते हैं। जब आपके सारे कर्म जनित फल नष्ट हो जाते हैं तो फिर आप माया के बंधन से भी मुक्त हो जाते हैं। और माया के बंधन से मुक्त हो कर भगवत-आनंद की प्राप्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इसकारण भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सब धर्मों को छोड़ कर, मेरे और बस केवल मेरे शरणागत हो जाओ। 
           अब दूसरी बात जिसकी चर्चा हम सब पहले कर रहे थे, भगवान ने धर्मों को छोड़ने की बात की है, कर्मों को छोड़ने की नहीं। इसका कारण  है, इस मानव शरीर में आ कर हम एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकते। आप कुछ करें तो कर्म तो होता है, जब नहीं कुछ करें तब भी न करने का कर्म होता है। जैसे आप सो रहे हों और कहें कि मैं तो सो रहा था, मैंने थोड़े की कोई कर्म  किए। हाँ संसार में यह मान्य है, आप जब सोतें हों तो आप का कर्म नहीं होता। लेकिन अगर थोड़े ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि आप ने सोते हुए भी कर्म  कर रहे थे, सोने का कर्म या यूँ कहें कुछ न करने का कर्म। और जैसे कोई सब कुछ छोड़-छाड़ के जंगल चल जाये तो भी वह उस समय जंगल जाने का कर्म कर रहा होता है। जैसे अगर आप के इलाके में कोई अपराध होता है और पुलिस अपराधी को जानते हुए भी गिरफ्तार नहीं करती, तो आप कहते हैं पुलिस ले कोई करवाई नहीं की। तो ये करवाई नहीं करने का कर्म पुलिस को हुआ। तो कोई भी शरीरधारी जीव, कभी भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता है। आप अच्छे कर्म करें, आप बुरे कर्म करें या आप कुछ भी न करें, सब आप के कर्मों में ही लिखा जायेगा। तो भगवान ने सब धर्मों के त्याग की बात की, कर्मो की नहीं और यहाँ सब धर्मों के त्याग का मतलब है, शास्त्र सम्मत कर्मों के फलों का त्याग, कर्तापन का त्याग। आप कर्मों को तो त्याग नहीं सकते, उसके फलों में अनाशक्त जरूर हो सकते हैं और सारी शक्तियाँ  तो जीव को भगवान से ही प्राप्त होती है, इसकारण कर्तापन का अभिमान भी बेमानी ही है। तो भगवान श्रीकृष्ण कर्म फलों में अनाशक्ति की बात कर रहे हैं। आप कर्म फलों में अनशक्त हुए, कर्तापन को छोड़, उनकी शरण में जाएँ तो आप का तत्क्षण कल्याण होगा। जैसे ही आप का कर्म फलों से लगाव ख़त्म होगा, कर्तापन का अभिमान दूर होगा, वैसे ही आप का मन निर्मल हो जायेगा और जब आप निर्मल मन से भक्ति करेगें तो भगवत प्राप्ति अवश्य ही होगी, भगवान का यह वचन है।
           ये तो हुई धर्मों अर्थात शास्त्र विहित कर्मों की बात, किन्तु जब जीव मूढ़ भाव से ग्रषित होकर, वेद और शास्त्र निषिद्ध कर्मों में लिप्त होता है, तो ऐसे दुराचारियों को ख़त्म करने के लिए भगवान स्वयं अवतार लेते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं। धर्म की रक्षा और अपने भक्तों सो सुख पहुचने के लिए ही भगवान समय-समय पर अवतार लेते हैं। इसी क्रम में भगवान ने ने कहा है, 
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ 
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम । 
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ "
- भगवत गीता ४/७-८ 
"हे भारत,जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होई है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। "
"साधु पुरषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रगट हुआ करता हूँ  "
           तो प्रथमतया जो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भगवान दो विरोधाभासी बातें कर रहें हैं, ऐसा नहीं है। पहले मंत्र में जहाँ सब धर्मों को छोड़ कर शरणागति की बात कर रहें हैं, वहीँ दूसरी और इस सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने के लिए, समय-समय पर अवतार ले कर कल्याण करने की बात कह रहे हैं। दोनों ही बातें दो अलग-अलग सन्दर्भ में कही गयी हैं और दोनों का अलग-अलग भाव है। सब धर्मों को छोड़ कर जब आप, परम दयालु-कृपालु भगवान के शरण में जातें हैं तो भगवान आप के सारे पापों को हर लेतें हैं, उसको ख़त्म कर देतें हैं। जीव जब कर्तापन का अभिमान छोड़ कर भगवान के शरण में जाता है तो वह सारे बंधनों से मुक्त हो, अपने चरम लक्ष्य को पा लेता है, फिर और कुछ करने की जरुरत नहीं रह जाती, और उसके लिए कुछ भी शेष नहीं बच जाता। वह हमेशा-हमेशा के लिए दुखों से निवृत हो संसार सागर से बिना परिश्रम के ही पार हो जाता है। वह सदा भगवत-आनंद में डुबकियाँ लगाते निरंतर भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता ही रहता है। ऐसे जीव सहज ही भगवान और उनकी दिव्य भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
           आइए हम सब भी, कर्म फलों का त्याग करते हुए, बिना कर्तापन का भाव लिए, निर्मल मन से भगवान के शरणागत हो जाएं। फिर सब अच्छा होगा, मंगलमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरि ॐ ॥  
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । 
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोअसि मे॥ "
- भगवत गीता १८/६५ 
"हे अर्जुन!तू मुझ में मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा,यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। "
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सोमवार, 21 सितंबर 2015

"भगवत-भक्ति का प्रारंभ"

           आज एक साधक ने बहुत ही छोटे से ई-मेल कर के पूछा है, " भगवत-भक्ति का प्रारंभ कब करें, कैसे करें और कहाँ से करें?" प्रश्न का स्वागत है, प्रश्नकर्ता को धन्यवाद। ऐसा लगभग हमेसा देखने-सुनने को मिलता है, लोग प्रायः ऐसा सोचते पाये जाते हैं, भक्ति आज से शुरू करें या कल करें, ऐसे करें या वैसे करें, यहाँ करें या कहीं और जा कर करें। ये दुविधा अक्सर लोगों के मन में आती है, आप ने भी लोगों को विचार करते हुए देखा होगा।और ऐसे होने का कारण भी है, भक्ति के लिए, इतने सारे उपाय, इतने सारे रास्ते, इतने प्रकार के तौर-तरीके, आज संसार में बताये जा रहे हैं कि दुविधा होना लाज़मी है। बहुत से तरीके तो विरोधाभासी भी होते हैं, तो लोगों का सर चकराना स्वाभाविक ही है। पर वास्तव में, आपके इस प्रश्न में ही इसका उत्तर भी छिपा है। जिस किसी समय आप के मन में ये विचार आया कि भगवत-भक्ति करनी है, आपकी भक्ति उसी क्षण से शुरू हो गयी, कब, कैसे और कहाँ की बात ही नहीं, जिस किसी पल आप के मन में, भगवान को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई, समझिए आप ने भक्ति के मार्ग पर पहला कदम रख दिया। साधारणतया भगवान की भक्ति क्यों करें? ये प्रश्न पहला प्रश्न होता है। आपने कब, कैसे और कहाँ पूछा, इसका मतलब आप क्यों वाले प्रश्न से ऊपर उठ चुके हैं। आप ने, भगवान की भक्ति क्यों?, को भली भाँति समझ लिया है। आपने पहली बाधा पाड़ कर ली, क्यों का उत्तर जान कर ही आपने परम दयालु को पाने की इच्छा जाहिर की। तो प्रश्न पूछने वाले ने पहले ही भक्ति का प्रारंभ कर लिया है, शुरुआत हो चुकी है, भक्ति की पहली कक्षा में नामांकन हो चुका है, इनकी भक्ति की गाड़ी चल पड़ी है। अब इसमें रफ़्तार देनी है, भक्ति के मार्ग में निरंतर आगे और आगे बढ़ना है। अब प्रयास ये करना है कि कैसे भक्ति की एक कक्षा से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी कक्षाओं में आगे बढ़ा जाय। भक्ति के मार्ग पर आपने पहला कदम तो रख दिया है, अब मंजिल से पहले रुकना नहीं है, इसकी व्यवस्था करनी है। अब वो उपाय करने है जिससे प्रभु से साक्षात्कार हो सके। आज हम सब इसी बात पर विचार करेगें कि भगवत-भक्ति की इस यात्रा को कैसे सुचारू रूप से जारी रखा जाय। कैसे परमपिता परमेस्वर का दर्शन किया जाये। 
           तो आप सब ने देखा, भगवत-भक्ति की शुरुआत तभी से हो जाती है, जब से आप उस परम दयालु को जानने, सुनने और देखने की ठान लेते हैं, उनके दर्शन को ललायित हो जाते हैं। अब इस भक्ति को कैसे दृढ किया जाये, इस पर विचार करते हैं। किसी प्रकार की भक्ति तभी दृढ होती है, जब आप उसको भली भाँति जान कर, सोच कर, समझ कर, उस पर विस्वास कर करते हैं। ऐसे भगवान की भक्ति किसी भी प्रकार से की जाये, फलदाई होती है, परन्तु ये फलदाई तभी होती है, जब ये निरंतर जारी रहे। हम सब भक्ति की शुरुआत तो कर देते हैं, पर दिक्कत तब आती है, जब उसे हम जारी नहीं रख पाते। और जारी नहीं रख पाने का एक मात्र कारण है, विस्वास की कमी। विस्वास की यह कमी भगवान को तत्व से नहीं जान पाने के कारण होती है। जब कभी भी आप भगवान को तत्व से जान जायेगें, स्वतः ही आप का विस्वास दृढ होगा, और प्रेम-भक्ति बढ़ेगी और बढ़ती ही रहेगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में कहा है,
"जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ 
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥ " 
-रा. च. मा. ७/८८/७-८ 
"प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता,विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही ढृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज!जल की चिकनाई ठहरती नहीं "
तो भगवान को भगवान जानकर अगर भक्ति की जाय तो वह भक्ति दृढ होगी। तो अगर भक्ति के मार्ग में निरंतर आगे बढ़ना है तो भगवान को जाना जाए। हमारे सारे धर्म-ग्रंथ भी उन्ही एक को जान लेने की बात करते हैं। तो एक बात तय हुई की भगवान को जानना है, अब उनको कैसे जाने यह पता करना है। आइए देखें, भगवान को कैसे जाना जाए । 
           अभी तक हमने देखा, भक्ति कैसे करें, ही अपने आप में भक्ति का पहला कदम है। और इस भक्ति को निरंतर जारी रखने के लिए, हमें भगवान में पूर्णतः विस्वास होना चाहिए, और पूर्णतः विस्वास तभी हो पायेगा, जब हम भगवान हो तत्व से जानेगें। अब इस बात पर विचार करें कि भगवान को कैसे जाना जाये। किसी भी चीज को जानने के लिए, पहले हमें अपने और आपने आस-पास के बारे में जानना होता है। हमारा ज्ञान कहाँ तक है, इस बात का पता होना चाहिए, तभी हम कितना और जानना है, ये पता कर सकते हैं। और इन सब की जानकारी होने के बाद हम आगे की जानकारी को क्रम से पाते जातें हैं। आइए देखें हम कौन है और कहाँ हैं? जानने के लिए तो केवल भगवान ही हैं पर उनके दो रूप जीव और मायिक संसार को जाने बिना पूर्णता नहीं होगी। continue… 

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शनिवार, 5 सितंबर 2015

"भक्ति का कभी नाश नहीं होता"

           आप सभी को भगवान श्रीकृष्ण के जन्मदिन और शिक्षक दिवस पर बहुत सारी बधाईयाँ और शुभकामनायें। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का यह पावन पर्व, आप सब के जीवन में खुशियाँ और प्रेम की बहार ले कर आए और साथ ही  शिक्षक दिवस पर आप सब, अनादि काल से चले आ रहे गुरु शिष्य परम्परा का सम्मान करते हुए ज्ञान और  सद्मार्ग के पथ पर निरंतर चलते रहें, यही मंगल कामना है। "भक्ति का कभी नाश नहीं होता"। आज एक पत्र आया है, उसमें पूछा गया, "भक्ति का कभी नाश नहीं होता", इसका क्या मतलब है? पत्र लिखने वाले ने अपना  नाम नहीं लिखा और न ही अपने बारे में कुछ बताया, छोटा सा पत्र है, कुछ आध्यात्म की बातें हैं और अंत में  उन्होंने पूछा है, "भक्ति का कभी नाश नहीं होता", इसका क्या मतलब है? पत्र पढ़ कर बहुत ख़ुशी हुई, इसका कारण है, जब उन्होंने कहीं पढ़ा या सुना होगा, भक्ति के सनातन और अनश्वर होने के बारे में, तो मन में थोड़ी जिज्ञासा हुई होगी। और उसी जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश में, उन्होंने ये पत्र लिखा। हर किसी के जीवन में संयोगवश,  भगवत कृपा से ऐसा शुभ समय आता है, जब कुछ ज्ञान की बातें सामने आतीं हैं, उन्हें सुनने और समझने का मौका मिलता है।  लेकिन बहुत कम ऐसे व्यक्ति होतें हैं, जो ज्ञान की उन बातों को अपने अंतःकरण में ला कर, उस पर मनन और चिंतन करतें हैं, तथा प्रयास करतें हैं कि ज्ञान की उन बातों के जड़ तक जाया जाय। तो जब कहीं उन्होंने भक्ति के अनित्य होने  के बारे में सुना होगा तो, उसके मूल को जानने की कोशिश की होगी और जिस कारण उन्होंने ये पत्र लिखा, ज्ञान के मूल को जानने की उनकी यह कोशिश सराहनीय है, वंदनीय है। आइए आज हम लोग इसी विषय पर चर्चा करें कि, आखिर भक्ति को अनित्य  क्यों कहा गया है।
           आगे बढ़ने से पहले, आज आपको महाभारत का एक प्रसंग सुनाता हूँ। आप सभी को कहानी पता है, आप ने पहले भी सुन रखी होगी। महाभारत की लड़ाई शुरू होने वाली थी, दोनों ओर की सेनाएं, कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने थी। हर कोई तैयार था, हर कोई अपने मकसद को पूरा करने के लिए वहाँ खड़ा था। समय था, रण-कौशल दिखने का, अपने शत्रुओं का नाश करने का। इधर दुर्योधन अपनी सेना का मनोबल बढ़ा रहा था और उधर पांडव अपनी सेना और लड़ाई की रणनीति तय करने में लगे थे। तभी धनुर्धर अर्जुन ने भगवान कृष्ण, जो की उस समय सारथि बन कर उस के साथ थे, से कहा, "हे माधव जरा रथ को दोनों सेनाओं  के बीच में ले चलिए, मैं  देख तो लूँ कि किन-किन लोगों के साथ मुझे युद्ध करना है।" फिर जब कृष्ण ने, रथ को दोनों सेनाओं के बीच में रखा तो, विपक्षियों में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को देख कर अर्जुन व्याकुल हो गए, उन्हें लगा 'ये मैं  क्या करने जा रहा हूँ, थोड़े से राज-सुख के लिए अपने ही लोगों का वध करूँ, नहीं ये ठीक नहीं होगा।' अर्जुन को मोह से ग्रषित देख, कृष्ण ने अर्जुन को बहुत सारी कर्म, धर्म, ज्ञान, योग, भक्ति आदि की बातें बताई। उत्तर-प्रतिउत्तर का यह दौर लम्बा चला, भगवत गीता के १८ अध्याय में इसी की चर्चा है। इसी क्रम में अर्जुन, भगवान से पूछते हैं,
"अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमनासः । 
अप्राप्य योग संसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ "
-भगवत गीता  ६/३७ 
"जो योग में श्रद्धा रखने वाला है , किन्तु संयमी नहीं है , इस कारण जिसका मन अंतकाल  में योग से विचलित हो गया है ,ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत साक्षात्कार को न प्राप्त हो कर किस गति को प्राप्त होता है । " 
अर्जुन का मूल प्रश्न है कि जिसकी साधना पूर्ण नहीं हुई, ऐसे भक्त की क्या गति होती है। अगर संसार के सन्दर्भ में यही प्रश्न किया होता तो, हम सभी भी इसका उत्तर आसानी बता देते। यहाँ संसार में जब तक कि काम पूरा न हो जाये तब तक आप असफल ही माने जातें हैं। जैसे आप नदी में तैर रहें हों, आप पूछें, जब आधे नदी में हों, नदी के बींचो-बींच हों और आप पूछें कि अब अगर तैरना बंद कर दूँ, तो क्या होगा? जबाब आसान है, कोई बच्चा भी बता देगा कि आप डूब जायेंगें, नदी की तेज धरा आप को बहा ले जाएगी। कोई उपाय नहीं कि नदी के बीच में तैरना छोड़ें और पार  हो जाएँ। और ऐसा भी नहीं की आधा आज तैर लिया और बांकी का आधा कल पार कर लेगें। नहीं, बिलकुल नहीं, ऐसा संभव नहीं, यदि नदी को पार करना है तो एक बार में ही पार करना पड़ेगा। संसार का हर काम इसीप्रकार का है, काम यहीं करना है, इसी जन्म में समाप्त करना है, और कोई हल नहीं, संसार के सारे कर्म इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।
           लेकिन जब अर्जुन ने भगवान से ऐसा, भक्ति के सन्दर्भ में पूछा तो, भगवान का उत्तर ठीक उल्टा था। भगवान् कृष्ण अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में कहतें हैं,
"पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । 
न ही कल्याण कृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ "
-भगवत गीता  ६/४० 
"हे पार्थ ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न ही परलोक में। क्योंकि आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता अर्थात उसका नाश नहीं होता " 
इसका मतलब, साधक के द्वारा की गयी भक्ति का कभी नाश नहीं होता, और वही भक्ति साधक को भी नाश से बचाती है। एक क्षण के लिए भी भगवान के प्रति की गयी भक्ति, जीव के पास हमेशा-हमेशा के लिए रह जाती है। ऐसी भक्ति सनातन रहती ही नहीं वरन समय के साथ-साथ बढ़ती भी रहती है और जुड़ती भी रहती है। आप संसार में कोई भी कर्म करें, चाहे पुण्य करें या पाप करें, वो अपना फल दे कर ख़त्म हो जाता है। यदि आपने पुण्य किया, तो अच्छा फल मिलगा और यदि कोई पाप किया, तो उसके अनुरूप बुरा फल मिलेगा। कर्म के अनुसार फल मिलना तय है, और अनुकूल फल देने के बाद, वो कर्म भी समाप्त हो जाता है। जैसे आप ने अच्छे कर्म किये, बहुत समाज सेवा की, और मेहनत कर चुनाव जीत गए। संयोग बैठा और देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन ये भी केवल पाँच वर्षों तक के लिए होगा, पाँच वर्षों के बाद, आप यदि एक दिन के लिए भी चाहेंगें कि प्रधानमंत्री बने रहें, क्योंकि पाँच वर्ष पहले आप ने चुनाव जीता था, तो ये सम्भव नहीं। आप को समय के साथ ही हटना पड़ेगा। हमारे जीवन के हर कर्म हमें ऐसा ही फल देतें हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो सदा-सदा के लिए आप का हो जाये।
           तो भगवान कृष्ण कहतें हैं, मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, उसकी भक्ति का कभी नाश नहीं होता। इसी कारण सारे संत-महात्मा, केवल और बस केवल, भगवान के प्रति भक्ति की ही, कामना करते रहतें हैं, इन्हें और कुछ भी नहीं चाहिए। और भगवान की, यह भक्ति बिल्कुल सरल है, इसमें कोई नियम नहीं, कोई शर्त नहीं। बस आपको प्रभु से सन्मुख हो जाना है, उनके शरणागत हो जाना है, बाकीं सब, वो खुद ही कर देतें हैं। आज संसार में आपको भक्ति करने के लिए भी, हजारों नियम-कानून बताने वाले मिल जायेंगें। आप ने बहुतों को कहतें और करते सुना होगा, शंकर भगवान, बेलपत्र चढाने से खुश होतें हैं, विष्णु भगवान के लिए, पीला फूल और फल चाहिए, देवी माँ को खुश करना है, तो एक बार वैष्णोदेवी के दर्शन कर आओ, हनुमान जी को सिन्दूर, गणेश जी को लड्डू आदि न जाने क्या-क्या। पर क्या ऐसा है, क्या भगवान को आपकी, इन सब चीजों जी जरुरत है? नहीं बिल्कुल नहीं! पर आप कहेंगें, "धर्म-ग्रंथों में तो यही लिखा है", हाँ मानता हूँ, धर्म-ग्रंथों में यही है, लेकिन उस समय ये सब मिलना बिल्कुल आसान हुआ करता था। उस समय बेलपत्र, पीले फूल हर जगह मिल जाया करता था,हर समय मिल जाया करता था और वो भी बिना किसी खास परिश्रम के। तो भक्ति के लिए कुछ प्रतीकात्मक चाहिए था, तो धर्म-ग्रंथों में वो सब चीजें बताई गईं, जो कि आसानी ने मिल जाये, सब को मिल जाये, हर समय मिल जाये। मंदिरों में पत्थरों की मूर्तियाँ, नदी का जल, फूल, फल, पत्तियां आदि, ये सब चीजें अनिवार्य नहीं हैं, इनके बिना भी भक्ति की जा सकती है, अगर मिल जाये, अगर हो जाये तो सही, नहीं तो ऐसे भी भक्ति करें, सच्ची श्रद्धा से करें, तो भी आप को पूरा फल मिलेगा। आप की भक्ति मन से होनी चाहिए, संसार की चीजें उसमे शामिल हो जाएँ, तो अच्छी बात, न हो पाये तो भी आप भक्ति करें, पूर्ण शरणागत हो कर करें, भगवान का मिलना तय है। सभी धर्म-ग्रंथों का मूल ज्ञान यही है।
           एक और बात, कुछ लोगों को आप ने कहते सुना होगा, अरे इस व्रत में तो बहुत सारे नियम हैं, मुझ से नहीं हो पायेगा। इतना समय कहाँ दे पाऊँगा, पता नहीं सब ठीक-ठीक से हो पायेगा की नहीं आदि-आदि। पर ऐसा नहीं है, भगवान ने भक्ति को सनातन कहा है। आप के द्वारा की गयी थोड़ी सी भक्ति, थोड़े समय के लिए की गयी भक्ति भी, आप को, भगवत-प्रेम के मार्ग में और आगे तक ले कर जाएगी। आप अपने लक्ष्य के, और करीब हो जायेगें। कोई जरुरी नहीं कि पहले ही प्रयास में सफलता मिल जाये, लेकिन इसका मतलब ये नहीं की प्रयास ही छोड़ दिया जाये। और दूसरी बात आप दूसरों से तुलना भी न करें, दूसरों से तुलना भी एक आम बाधा है। अरे! सामने वाला तो दो-दो दिन तक, फलाहार पर ही रह जाता है, अरे! वो तो मीलों पैदल ही दौड़ जाता है, अरे सामने के पड़ोस में रहने वालों ने तो, चारों धाम की यात्रा चार बार कर ली है, क्या करें मुझसे तो कुछ होता ही नहीं। बहुतों बार आपकी ये तुलना भी, आप को भक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने से रोक देती है। बिल्कुल छोटी सी बात है, यहाँ तुलना का कोई सवाल ही नहीं होना चाहिए, आपको किसी और की जरुरत का कुछ भी पता नहीं, उसे कितना दूर और जाना है, आपके पास इसका कोई हिसाब नहीं। और वो कितना कर रहा है, इससे आप को क्या मतलब, आप को, न वो अपनी भक्ति का कुछ अंश दे सकता है, और न आप ही कुछ, उसको दे सकतें हैं। तो फिर आप ये सब सोचना छोड़ें। आपको जिस प्रश्न का हल खोजना है, वह कुछ और है, और आपके सामने वाला किसी और ही प्रश्न का उत्तर लिखे जा रहा है। आप क्यों उसकी नक़ल करने की कोशिश कर रहें हैं, और नक़ल कर भी लिए, पूरा का पूरा, उसी का उत्तर लिख के आ भी गए, तो भी कुछ नहीं होगा, तो भी आप का उत्तर गलत होगा, आप तब भी असफल ही रहेगें। तो तुलना करना छोड़ें बिल्कुल ही छोड़ें, जितना बन पाये आप से आप करें। भगवान्  तक आप की प्रार्थना अवश्य ही पहुंचेगी।
           एक छोटी सी कथा याद आ रही है, शायद आप में से कुछ ने सुन रखी हो। रामायण की कथा है, जब पता चला, रावण ने माँ सीता को हर कर, लंका में रखा है, तो भगवान राम ने, अपनी वानरी सेना के साथ, लंका जाने का विचार किया। लेकिन विशाल समुद्र रास्ता रोके खड़ा था, फिर तय हुआ कि, समुद्र पर एक पुल बनाया जाये। सबने मिल कर काम शुरू कर दिया। कोई बड़े-बड़े पत्थर ला कर समुद्र में रख रहा था, तो कोई वृक्ष की बड़ी-बड़ी डालियाँ, कोई रास्ता बनाने का काम कर रहा था, तो कोई पत्थरों को सलीके से रखने का, कोई-कोई तो पुरे का पुरे पहाड़ ही ला-ला कर समुद्र में डाल दे रहे था। जिसे देखिये वही अपने-अपने काम में लगा था, दिन-रात काम चल रहा था। एक दिन की बात है, लोगों ने कुछ अजीब देखा, देखा एक नन्हीं गिलहरी रेतों पर जाती है, अपने शरीर को वहाँ, रेतों पर रगड़ती है, फिर जहाँ पुल बन रहा था, वहाँ पर जा कर, अपने बालों पर चिपके रेत के कणों को झाड़ देती है। फिर वापस रेतों पर जाती है, दिन भर यही सिलसिला चलता रहता था। सब लोगों को आश्चर्य हुआ, जहाँ पुरे के पुरे पहाड़ समुद्र में समा जा रहे थे, वहाँ  इस छोटी सी गिलहरी के द्वारा लाए गए कुछ एक रेत के कण से क्या होगा। आपस में कानाफूसी होने लगी, और बात बढ़ते-बढ़ते भगवान राम तक पहुँची। भगवान राम ने गिलहरी के शरीर पर, प्यार से हाथ फेरा और सबको समझाया, "आप सब के जैसा ही, इसका भी काम है। इसकी चेतना, इसकी इच्छाशक्ति में जरा सी भी कमी नहीं है। अतः इसका फल भी आप सब के समान ही होगा, तनिक भी कम नहीं होगा।" जब एक नन्हीं गिलहरी, समुद्र पर पुल बनाने जैसे विशाल काम में, यथाशक्ति मदद कर, भगवान की भक्ति प्राप्त कर सकती है। तो हम सब को, प्रभु ने बहुत सक्षम बनाया है, फिर अगर हम, भक्ति से अभी तक दूर हैं, तो कोई भी कारण जो आप बतातें हैं, वो बस हमारा बहाना मात्र है। हम भगवान कि भक्ति करें, जितनी हो सके करें, निरंतर करें। अंत में अवश्य ही भगवान मिलेगें, उनकीं दिव्य भक्ति मिलेगी। फिर आप के सारे कर्म बंधन ख़त्म होगें, सारे दुखों से छुटकारा मिलेगा। परम शान्ति मिलेगी, सनातन आनंद मिलेगा। सब मंगल होगा, सब कल्याणमय होगा। हरि ॐ ॥
" अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । 
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ 
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शव्श्रच्छान्तिम । 
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ "
 -भगवत गीता  १०/३०-३१ 
"यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है , क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अंन्य कुछ भी नहीं है । 
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त (कभी )नष्ट नहीं होता । "
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