गुरुवार, 27 अगस्त 2015

"भाग्य क्या?"

          भाग्य क्या? आज एक साधक ने पूछा, भाग्य क्या? अच्छा किया की पूछ लिया। वर्ना लोग तो अपने मन में ही बात बैठा लेतें हैं, अपने अनुसार सब हुआ तो ठीक, अपने काम का हुआ तो ठीक, अपने मन का हुआ तो ठीक, नहीं तो सब कुछ भाग्य पर छोड़ देते हैं। अपनी सफलता का तो जश्न मानते हैं, अपने कर्मो को ध्यान में रख कर, लेकिन जब कभी असफलता मिलती है तो उसका विश्लेषण करने के वजाय, भाग्य का रोना रटते रहते हैं। बहुतों को आप ने कहते सुना होगा, समय ही साथ नहीं दे रहा, भाग्य से ही सब कुछ मिलता है, हम क्या करें। ऐसे लोग अपनी गलतियों को बस छुपाना चाहते हैं, औरों से छुपाये तो कुछ हद तक ठीक भी है, पर अपने आप से छुपाने से कुछ हासिल नहीं होता, वरन भाग्य का रोना, और भी असफलताओं के द्वार खोल देता है। पर ये भाग्य क्या है? आज हम लोग इस पर चर्चा करेगें। कुछ लोगों को सफलता मिल जाती है और कुछ को नहीं, ऐसा क्यों होता है? ऐसा क्यों होता है की एक ही उम्र के कुछ बच्चे आगे निकल जाते हैं और खुछ पीछे रह जाते हैं। ऐसा क्यों होता है की एक जैसा काम करते हुए भी लोगों की जिंदगी अलग-अलग तरीके की होती है।तो आ हम लोग भाग्य के बारे में चर्चा करेगें। देखेगें ये भाग्य क्या है और क्यों ये कुछ खास लोगों पर ही मेहरवान होता है। देखेगें की भाग्य को कैसे संवरा जा सकता है। कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता पाई जा सकती है। कैसे समय को अपने अनुकूल किया जा सकता है। तो आइए  देखें  ये भाग्य क्या है? 
तैयारी और अवसर 
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सोमवार, 24 अगस्त 2015

"भगवान की कृपा कैसे प्राप्त करें?"

           भगवान की कृपा कैसे प्राप्त करें? आपकी जिज्ञासा का दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न। पहला प्रश्न, जब आपने पूछा था, भगवान हैं या नहीं। और जब आपने जान कर, अनुभव कर, ये माना कि भगवान हैं, तो अब ये प्रश्न स्वाभाविक है कि, "भगवान की कृपा कैसे प्राप्त करें?" भगवान को कैसे जाने, उनको कैसे देखें, उनका सानिध्य कैसे प्राप्त हो, उनका अलौकिक प्रेम कैसे मिले, उनका आनंद कैसे मिले? आज की चर्चा में हम लोग, इन सब प्रश्नों पर एक-एक कर विचार करेगें।
           बहुतों बार आपने लोगों से सुना होगा, 'भगवान को आपने देखा है? आप दिखा दो तो हम माने!'। 'यहाँ पर अभी बुला लाओ, तो मान जाएँ'। अक्सर लोग ये पूछ बैठते हैं। यहाँ दो-तीन बातें हैं, पहला, 'भगवांन को मैंने देखा है, या भगवान मुझे दिखाई देते हैं', इस बात से आप को क्या लाभ मिलेगा?, जो ये पूछ रहें हैं। जैसे मैंने कोई परीक्षा पास कर ली, तो इस से, आप को परीक्षा के बारे में कुछ भी पता नहीं चलेगा। इसी प्रकार मैं ने भगवान को देखा है या नहीं, इस बात से आपको कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। दूसरी बात, 'आप भगवांन को यहाँ बुला लीजिये, फिर मैं  मान जाऊँ'। ये बात भी वैसी ही हुई कि, आप मुझे उपाधि दे दो, फिर मैं उसकी तैयारी करूँगा, पहले मुझे प्रधानमंत्री बना दो, फिर मैं चुनाव लड़ूँगा। और एक बात, 'पहले मुझे भगवान दिखा दो', जैसे इन्होंने हर चीज को देख कर ही जाना है। अब कोई इन से पूछो, हवा को तो आप ने देखा नहीं, फिर तो हवा को आप नहीं मानते होगें। आप अमेरिका नहीं गए हैं, तो आप के लिए अमेरिका भी नहीं है? तो कोई कहे हवा को दिखा दो, तो हम माने। तो क्या लगता है, ऐसे लोग कब मानेगें कि हवा है? देखने की चीज तो नहीं है, फिर कैसे माने कि हवा है। साधारण सी बात है, अगर हवा को मानना है, तो इसका अनुभव करना होगा। अगर हवा को जानना है, तो इसकी शीतलता को महसूस करना होगा। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिन्हें हम अनुभव के द्वारा ही जान सकतें हैं। पर अब इसका मतलब ये मत निकालिएगा कि भगवान को देखा नहीं जा सकता। भगवान को देखा जा सकता है, बहुतों ने देखा है, बहुतों बार देखा है। भगवान को बुलाया जा सकता है, भगवान का सानिध्य मिल सकता है। तो भगवान देखे गए हैं, जाने गए हैं, पर इन सबकी अलग शर्तें हैं। और बिना उन शर्तों को पूरा किये आप को कुछ भी पता नहीं लग पायेगा। हम सब इस पर आगे चर्चा करेगें।
           तो पहली बात, भगवान को जानने और मानने के लिए केवल देखने की शर्त नहीं हो सकती। अब दूसरी बात लें, अगर किसी चीज को हम देख भी लें तो, हमारा काम बन जायेगा, इसकी कोई संभावना नहीं। अगर किसी प्रकार से कोई आप को भगवान का दर्शन करा भी दे, तो भी आप को यथेष्ठ फल नहीं मिल पायेगा। जैसे रसगुल्ला, आप सब ने देखा होगा, देखने की बात क्या बहुत बार खाया भी होगा। तो कल जब आप किसी के घर जाएँ और वह पूरे थाली में रसगुल्ला भर कर ले आये और केवल दिखा के पूछे, कैसा लगा? मीठा है या नहीं, संतुष्ट हुए की नहीं? तो आप क्या कहेगें! उस समय आप कहेगें, मित्र रसगुल्ला कोई देखने की चीज है क्या? जब तक खिलाओगे नहीं, स्वाद का कुछ भी पता नहीं चलेगा। रसगुल्ले की मिठास जानना है तो उसे खाना पड़ेगा, कोई बस देख कर रसगुल्ले के मिठास को नही बता सकता। हो सकता है, उसे मीठी चाश्नी में डुबोया ही न गया हो, हो सकता है उसमे मिर्ची का चूर्ण भर दिया गया हो, हो सकता है वो सजावट का कोई खिलौना भर हो। तो केवल देखने से ही बात नहीं बनेगी। अगर प्रारब्धवश भगवान को देख भी लिए, तो अनुभव नहीं कर पायेगें, पहचान नहीं पायेगें। और जब तक पहचानेगें नहीं, तब तक प्रेम नहीं होगा। एक कथा आती है रामायण में, हनुमानजी को सुग्रीव ने बुलाया और कहा जा कर देखिये, ये कौन दो वीर हैं, जो हमारे पर्वत की ओर  ही आ रहे हैं। कहीं ये बाली का भेजा, कोई गुप्तचर तो नहीं। सुग्रीव ने साक्षात परमेस्वर को अपनी ओर आते देखा, पर पहचान नहीं पाये। और हनुमानजी भी जा कर भगवान से पूँछते हैं, आप दोनों वीर कौन हैं और कहाँ से आ रहें हैं? भगवान स्वयं दर्शन दे रहें हैं पर पहचान नहीं पाये, जिसके कारण प्रेम नहीं हुआ। आगे की कथा आप सब ने सुन राखी होगी। तो तातपर्य यह कि केवल भगवान को देख लेने भर से काम नहीं बनेगा। हो सकता है, आप को रोज भगवान दर्शन देतें हों, रोज आप उनसे बातें भी करतें हों, पर पहचान नहीं होने के कारण आप उनके दिव्य और अलौकिक प्रेम से अभी तक वंचित रहें हैं।  
           तो भगवान को केवल देखने की शर्त कर आप चाहें कि, आप का सारा काम बन जाये तो यह संभव नहीं। भगवान को देख कर, उनको जान कर, अपनी बुद्धि में बिठा कर, उनसे प्रेम करना होगा, उनकी भक्ति करनी होगी। ऐसे नहीं कि पहले दिखा दो फिर मैं मानूँ। आपको अनन्य भक्ति करनी होगी, निष्क्षल प्रेम करना होगा, उनको रिझाना होगा, उनको मनाना होगा। तब प्रभु दया कर, करुणा कर, दर्शन देगें और आप तब उनको पहचान भी पायेगें। तब वह दर्शन बस इन्द्रियों का दर्शन नहीं होगा, वह सच्चा दर्शन होगा, और आप उनका अनुभव भी कर पायेगें। उस अनंत प्रेम की गंगा में डुबकी लगा सकेगें। उस असीम आनंद की अनुभूति कर पायेगें, जिसके बाद और कुछ पाने की जरुरत नहीं रह जाएगी।
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"भगवान हैं!!!"

           भगवान हैं!!! आज एक बच्चे ने पूछा। वो प्रश्न नहीं कर पाया, बस विस्मय भरी निगाहों से इतना ही बोल पाया, "भगवान हैं!!!"। मुझे लगता है, प्रश्न होना चाहिए। विस्मय वाचक चिन्ह की जगह प्रश्न वाचक चिन्ह होना चाहिए था। लेकिन हमें इतनी आजादी नहीं कि खुलेआम ये प्रश्न कर सकें, वरना नाश्तिक का ठप्पा लगना तय है, हमारा समाज हमें इतनी छूट कहाँ देता। आप कहेगें ये क्या बचकना है। बात तो सही है, ये बचकना ही है, ये बच्चा है, तभी इतना बोल पाया, वरना आप तो, इन सब चक्कर में पड़ते ही नहीं, मन किया तो मंदिर में नारियल चढ़ा आये और मन नहीं किया तो कोई बात नहीं। कौन चक्कर में पड़ें, भगवान हैं की नहीं। काम तो चल ही रहा है। आप सब लोग यहाँ आये हैं, आप में से कुछ लोग भगवान को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं, और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो मानते भी हैं और नहीं भी, समय के साथ बदलते रहतें हैं, जब मानने से काम बना, मान लिया, जब नहीं जरुरत हुई तो भगवान कहाँ। पर बहुत कम ऐसे लोग होगें, जिन्हें इन तीनों में से, किसी भी एक पर पूर्ण रूपेण विस्वास हो। अधिकतर लोग, ऐसे ही काम चला रहें हैं, बिना जाने, बिना पहचाने। आपमें बिल्कुल बच्चे जैसा शुद्ध ह्रदय हो, इसके जैसा निर्मल मन हो, तो आप ऐसे प्रश्न कर सकेगें, और तभी आपकी आधात्मिक यात्रा प्रारंभ होगी। वरना यूँ ही संसार में भटकते रहेगें। तो बच्चे ने जो जिज्ञासा की, आज इस पर विचार करें। हर किसी के मन में ये प्रश्न आना चाहिए, भगवान हैं? अगर हैं तो उनके बारे में जानने की, उनको प्राप्त करने की कोशिश करें और अगर भगवान नहीं हैं, तो फिर कुछ कहने-सुनने की जरुरत नहीं। तो आज हम सब, इस बात पर विचार करें कि भगवान हैं या नहीं। बस कहा और मान लिए, ऐसी बात नहीं, अनुभव के द्वारा जानें, स्वयं अनुभव करें और तब मानें कि भगवान हैं या नहीं।  

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

“केहि विधि उतरब पार”

केहि विधि उतरब पार,
दयानिधि केहि विधि उतरब पार ||
२ 
हम सन पतित,जगत नहीं होअल, 
अधम, निर्ल्लज, बेकार, 
दयानिधि, अधम, निर्ल्लज, बेकार || 
३ 
तुम सन पतित पावन नहीं सुनलौं, 
कर दो बेड़ा पार, 
दयानिधि, कर दो बेड़ा पार || 
४ 
अब प्रभु विनती करौं कर जोड़ी, 
दर्शन दो साकार, 
दयानिधि, दर्शन दो साकार || 
५ 
केहि विधि उतरब पार, 
दयानिधि केहि विधि उतरब पार || 
केहि विधि उतरब पार, 
दयानिधि केहि विधि उतरब पार || 
~*~*~*~
           केहि विधि उतरब पार! ये प्रश्न एक भक्त के मन में आ रहा है, और वह भगवान के समक्ष विनती कर रहा है, हे प्रभु कैसे हम इस संसार रूपी सागर के पार होगें? उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि, वह क्या करे? वह जहाँ देखता है, वहीँ उसे बलवती माया, रास्ता रोके खड़ी दिखाई देती है। वह अपनी शक्तिहीनता और लाचारता को भी भली भाँति जनता है, और इसी कारण अपनी व्यथा प्रभु को सुना रहा है। वह अपने आप को अधम से भी अधम, निर्ल्लज से भी निर्ल्लज और बेकार से भी बेकार, बता रहा है। उसका मानना है कि सारे संसार में, उसके जैसा आज तक कोई अधम नहीं हुआ, निर्ल्लज नहीं हुआ, बेकार नहीं हुआ। इसी कारण वह भगवान से पूछ रहा है, कैसे वह सांसारिक सुख दुःख से मुक्त हो पायेगा। वह अपने आप को अधम कहता है, और इसका कारण बताता है, मानव शरीर पा कर भी अब तक वह प्रभु की भक्ति नहीं कर पाया, भगवान का साक्षात्कार नहीं कर पाया, उनका दर्शन नहीं कर पाया। वह अपने आप को निर्ल्लज बताता है, और इसका कारण यह बताता है कि, इस संसार में, पेट की भूख शांत करने के लिए, दिन-रात न जाने कितने पापों में लगा रहता है, और इसी  प्रकार अनन्त जन्मों में न जाने कौन-कौन से पाप इक्कठे कर लिए हैं, ऊपर से इन सब पापों का कुछ भी याद नहीं, फिर भी वह भगवान से दया चाहता है, कृपा चाहता है। वह अपनी निर्ल्लजता भगवान के सामने रख रहा है। वह अपने आप को बेकार भी कह रहा है, इस का कारण वह बता रहा है, सारी सुविधा मिलने के बाद भी, वह ऐसा कोई काम नहीं कर पाया जिससे वो प्रभु के नजदीक जा सके। प्रभु की कृपा बरस रही है पर वह उसको वह ग्रहण नहीं कर पा रहा है, उनकी भक्ति नहीं कर पा रहा है। वह तरह-तरह के तर्क दे कर पभु को अपनी दीनता बता रहा है।    
           एक ओर वह अपने आपको अधम, निर्ल्लज और बेकार बता रहा है, तो दूसरी और वह कह रहा है, हे प्रभु सारे संसार में आप के जैसा कोई और पतितों का उद्धार करने वाला नहीं है। वह कहता है वेद-पुराण आदि सारे धर्मग्रंथ, यही कहते हैं, सारे संत-महात्मा भी यही कहते हैं कि आप के जैसा कोई दयालु नहीं, आपके जैसा कोई कृपालु नहीं। आप ने, न जाने कितनों पतितों, अधमों और पापियों को संसार से मुक्त किया है, न जाने कितनो को दर्शन दिया और न जाने कितनो को अपनी भक्ति का वरदान दिया है। वह कहता है इसी भक्त-वत्सलता को सुन कर वह आया है। इस कारण, हे प्रभु अब आप ही बताइये कि कैसे मैं इस माया के बंधन से मुक्त हो सकूँगा।वह भगवान से पूछता है कि प्रभु अब आप ही कोई रास्ता दिखाइए। अब आप ही मेरी नैया को पार लगा सकतें हैं।
           और अंत में वह, दोनों हाथ जोड़ विनती कर, भगवान से कहता है, हे प्रभु अब तो करुणा कर दया कर, दर्शन दीजिये, साक्षात दर्शन दीजिये। वह कहता है, प्रभु वही रूप दिखाइए, जो आपने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिखाया था, उस रूप का दर्शन कराइये जिस रूप में, आप माँ कौसल्या के सामने प्रगट हुए थे, वही मनोहर छवि दिखाइए जिसके लिए सबरी जीवन भर इंतजार करती रहीं, वही रूप लावण्य जिसकी एक झलक पाने के लिए गोपियाँ अपना सारा काम-धाम छोड़ रस्ता तकते रहती थीं। हे प्रभु अब तो आप दर्शन दीजिये, अब तो कृपा कीजिये। हरी ॐ ॥           
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आइए हम सब भगवान को पुकारें "विनती ~ पद": http://www.vintipad.in/
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बुधवार, 19 अगस्त 2015

"सही क्या? गलत क्या?"

           सही क्या? गलत क्या? ; सत्य क्या? असत्य क्या? ; न्याय क्या? अन्याय क्या? ; उचित क्या? अनुचित क्या? ; पाप क्या? पुण्य क्या? ; धर्म क्या? अधर्म क्या? ; आज एक साधक ने बहुत ही सरल और सच्चे मन से ये प्रश्न किया। बिल्कुल शुद्ध ह्रदय से पूछा गया, कोई छलावा नहीं, कोई दिखावा नहीं। ऐसे प्रश्न अक्सर हमारे सामने होते हैं। आम तौर पर, हमारे जीवन के हर मोड़ पर, हर जगह, जब भी कभी, दो में से किसी एक को चुनना हो, तो हमारे सामने ऐसे प्रश्न होते हैं। और ऐसी स्थिति में हम हमेसा, बहुत सोच-विचार कर ही, कोई फैसला करना चाहते हैं। लेकिन कभी-कभी ये फैसला करना कठिन होता है। मन और बुद्धि मिल कर, ये निश्चित ही नहीं कर पाते कि, क्या सही है, और क्या गलत? ऐसे समय में हम दुविधा में होते हैं, कभी मन कहता है, ये सही है ये कर लो, और कभी लगता है, ये सही नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें पता होता है कि, दोनों में से कोई एक ही चुनना है, और कोई विकल्प नहीं। फिर भी हमारे लिए किसी एक का चुनाव करना आसान नहीं होता। आप सभी ने इसका अनुभव किया होगा, अक्सर हम ऐसे सवालों से घिरे होते हैं। ऐसे समय में हमें मार्गदर्शन की जरुरत होती है, किसी सच्चे सलाह की आवश्यकता होती है, आप चाहते हैं कोई रास्ता मिल जाये। तो हम कैसे निश्चय करें कि, क्या सही है और क्या गलत? आइए, अब हम मिल कर इस प्रश्न को उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं।
           तो हमने देखा कि हमारे लिए सही-गलत का चुनाव करना कभी-कभी मुश्किल होता है। इसका कारण है, सही और गलत का फैसला करना, अपने आप में दो-धाड़ी तलवार पर चलने जैसा है। और इनके बीच की दीवार इतनी पतली होती है, कि कब हम एक ओर से दूसरे ओर आ जाते हैं, इसका पता भी नहीं चलता। सत्य का साथ देते-देते, कब असत्य के रस्ते के पर हो जाते हैं, इसका निर्धारण करना मुश्किल होता है। और ऐसा इसलिए है कि, कभी-कभी सत्य और असत्य के स्वरुप के, अंतर का निर्धारण, व्यक्ति विशेष, समाज और परिस्थिति पर होने लगता है। किसी एक व्यक्ति के लिए सही, तो किसी और के लिए गलत, किसी एक समाज के लिए सत्य, तो औरों के लिए असत्य। तथा ये अंतर समय के साथ बदलता भी रहता है। आज जो सत्य, आदर्श और न्याय संगत लग रहा है, कल वैसा न लगे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दुनियाँ में इतने झगड़े, विवाद और घर-घर के कलह का यही कारण है। हम एक ही सत्य को दो विरोधी छोड़ से देखते हैं, और ऊपर से समस्या ये की दोनों विरोधी स्वयं को सत्य की ओर  होने का दावा कर रहे होते हैं। लेकिन, एक बच्चा भी कह सकता है, सत्य तो एक ही होता है, फिर दोनों सही कैसे हो सकतें हैं? सत्य की तो एक ही परिभाषा है, फिर दो सत्य और वो भी विरोधी कैसे पैदा हो जाता है? न्याय तो किसी एक तरफ ही होगा, तो दोनों कैसे न्याय करने का दवा करते हैं? आइये हम इस पर विचार करें। आखिर दो अंतःविरोधी सत्य कहाँ से आता है? थोड़े इसके जड़ तक जाते हैं, शायद फिर हम इस प्रश्न का उत्तर भी खोज पायें कि सही क्या है और गलत क्या?
           सत्य और असत्य दो अंतःविरोधी, एक साथ कहाँ से पैदा होता है, इसको जानने के लिए, हमें पहले ये पता लगाना होगा कि सत्य और असत्य की परिभाषा क्या है, सही और गलत का फैसला हम कैसे करतें हैं? हम कैसे पता लगते हैं कि कौन न्याय कर रहा है और कौन नहीं। सही-गलत का फैसला हम अपने मन और बुद्धि के द्वारा अपने अनुभवों, बड़ो की बातों, समाज और धर्मग्रंथों की सीख आदि के आधार पर करते हैं। अब इसमें दो बातें हो सकती है, एक, या तो धर्मग्रंथ, समाज आदि ही हम लोगों को विरोधी बातें बताते हैं या इन सब की सीख तो एक ही होती है, पर हम लोग स्वयं ही अलग-अलग अर्थ कर लेतें हैं। धर्मग्रंथ तो सदियों से हैं और इनकी बातें भी वही हैं, तो अब पहली बात कि धर्मग्रंथ और समाज अलग-अलग सीखाते हैं, संभव नहीं। तो दूसरी बात ही हो सकती है कि हम स्वयं ही अलग-अलग अर्थ निकाल लेतें हैं। हाँ बिल्कुल ऐसा ही होता है। इसका कारण है, हमारे देखने का नजरिया। हम वही देखते हैं, जो वस्तुतः देखना चाहते हैं, और ये बिलकुल प्राकृतिक है। आप के देखने के स्थान, समय और परिस्थिति पर चीजें निर्भर करती है। आप जिस किसी जगह पर होतें हैं और वहाँ से कोई चीज जैसी दिखती है, किसी और जगह से भी वैसी ही दिखे, इसकी कोई निश्चित्ता नहीं। जैसे किसी के लिए मक्का पूर्व में है तो, किसी के लिए पश्चिम में। मक्का किस दिशा में है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप स्वयं मक्के के किस ओर हैं। यदि आप मक्के के पूर्व में हैं, तो मक्का आप के लिए पश्चिम में होगा और यदि आप मक्के के पश्चिम में हैं, तो मक्का आप के पूर्व में होगा। मक्का तो वहीँ है, सदियों से है, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहाँ से देख रहें हैं। और ये बिलकुल प्राकृतिक है, और इसमें कोई दो मत नहीं। तो जो हम सत्य के दो अंतः विरोधी स्वरुप को देखते हैं इसका कारण  बस यही है कि हम सत्य हो दो विपरीत छोड़ से देख रहे होते हैं। जब ऐसा है तो इसमें गलत क्या है? फिर हम सब से गलती कहाँ हो रही है? फिर ये जो अंतः विरोध के कारण झगड़े हो रहें हैं, क्या ये सब यही है? नहीं, ऐसा नहीं। समाज में होते झगड़े और आपस के कलह गलत हैं।तो गलती कहाँ हो रही है? आइये इस पर विचार करें।
            सत्य हमेसा सत्य ही होता है, किन्तु गलती तब होती है, जब हम सत्य को सापेक्षता की तराजू पर तौलते हैं। सत्य को आपने-आपने नजरिये से देखते हैं, सत्य का सहारा आपने फायदे के लिए करते हैं। सत्य और न्याय को कभी सापेक्षता की तराजू से तौला नहीं जा सकता, वरना सत्य, सत्य नहीं रह जाता, न्याय, न्याय नहीं रह जाता। सत्य हमेसा शुद्ध और निरपेक्ष होता है, सत्य को अगर मूल रूप से जानना है तो सापेक्षता छोड़नी होगी।अपनी सीमाओं को लांघ कर आगे बढ़ना होगा, अपने स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। कोई धर्मग्रंथ, कोई समाज, कोई व्यक्ति आपको, सत्य का दर्शन नहीं करा सकता, जब तक कि आप स्वयं की सीमाओं से बहार नहीं आते, मैं और मेरेपन को छोड़ नहीं देते। आप सब को महाभारत की कथा याद होगी, जब पाण्डव अपनी सारी संपत्ति जुए में हार जाते हैं, यहाँ तक की द्रौपदी को भी हार जाते हैं। तब दुर्योधन, द्रौपदी को भड़ी सभा में लाने के लिए, अपने भाई को आदेश देता है। और उसका भाई दुःशासन द्रौपदी को उसकी बालों से खींचते हुए, वहाँ ला कर वस्त्र हरण करने की कोशिश करता है। उस समय हस्तिनापुर की वो सभा, प्रकाण्ड विद्वानों, धर्माचार्यों, बड़े-बड़े शूरवीरों, न्यायविदों, सत्यव्रतियों आदि से भड़ी थी। कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐसे विद्वानो के बीच अन्याय हो सकता है, पर किसी ने द्रौपदी की लाज बचाने की कोशिश नहीं की। हर किसी ने सर को झुका के, बस तमाशा देखा, सब को पता था, गलत हो रहा है पर सब चुप थे। कोई धर्म की दुहाई दे रहा था, तो कोई अपने फर्ज के तले दबे होने का, कोई नमक का कर्ज अदा कर रहा था, तो किसी को पुत्र-प्रेम ने बाँध रखा था। सब ने अपना स्वार्थ छुपाने के लिए, धर्मग्रंथों, सत्य, न्याय और न जाने किन किन चीजों का सहारा लिया। उन लोगों को लग रहा था, धर्म से गिर जायेगें, आने वाला समाज कहेगा नमक का साथ नहीं दिया, इतिहास के पन्नों में न जाने क्या लिखा जायेगा आदि-आदि! हर कोई एक दूसरे को देख रहे थे और आशा में थे कि कोई तो रोके, पर किसी ने आगे बढ़ कर दुःशासन को रोकने की कोशिश नहीं की। पर क्या ये सही था? किसी अबला स्त्री की इज्जत लुट रही हो और आप मुँह छुपाये बैठे हों, क्या ये सही है? भगवान कृष्ण ने इसका उत्तर दिया, स्वयं द्रौपदी  की साड़ी बन, उसकी लाज बचाई। सत्य और न्याय से बचने के लिए आप बहाने तो ढूँढ ही लेते हैं, पर वह केवल आप की कमजोरी छुपाने का जरिया भर होता है।
           सच्चाई के रस्ते में अगर अपना स्वार्थ और किसी की भलाई आमने-सामने हो तो, अपना स्वार्थ त्याग कर ही आप सत्य को पा सकते हैं। अगर आप ने जरा सा भी स्वार्थ को बल दिया तो आप का मन हजारों बहाने ढूँढ़ लेगा। महाभारत की उस सभा में जो धर्म की दुहाई दे रहे थे, वो सब के सब स्वार्थ के वश में थे। बहाने तो ढेर सारे थे, बहाने तो मिलने ही थे। अगर न मिलते तो मन, नए बहाने बना लेता, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, मन इस काम में बहुत ही आगे होता है। आप को पता भी नहीं चलता और बहाने बन के तैयार हो जातें हैं। और स्वार्थ को छुपाने का सबसे अच्छा तरीका है, धर्म का बहाना। हम अक्सर ऐसा ही करते हैं, अपनी कायरता छुपाने के लिए धर्म का सहारा लेतें हैं, क्यूँकि पता है, इस पर कोई ऊँगली न उठा सकेगा, धर्म के आड़े आप हमेशा बच जायेगें। तो वहाँ भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया चीड़ बन कर, कोई स्वार्थ नहीं, किसी का डर नहीं, बस मन में रहा होगा कि किसी भी तरह से द्रौपदी की इज्जत बच जाये। और यही भावना सर्वोपरि है।
           तो जब कभी भी आप को ऐसा लगे कि चुनना मुश्किल हो रहा तो सोचिये भगवान कृष्ण होते तो क्या करते। आप सोचिये कि आपके पास भगवान की ही शक्तियां हैं। फिर आप स्वार्थ और भय छोड़ कर जो भी निर्णय करेगें वो सत्य के साथ होगा, न्याय के साथ होगा। कोई धर्मग्रंथ, किसी गुरु का ज्ञान, आप के आने वाले परिस्थितियों का हल, पहले नहीं बता सकता। आप को स्वयं ही इन सब का निचोड़, और अपना अनुभव जोड़ कर निर्णय करना होगा। एक वाक्य में कोई निर्देश देना सम्भव नहीं, बस सरल ह्रदय से, बिना किसी स्वार्थ और राग-द्वेष के, दूसरों का भला, निर्बल और निःसहाय की रक्षा का भाव ले कर, निर्णय लें और उसको कार्यान्वित भी करें। फिर सब मंगल-मंगल होगा, कोई दुविधा न होगी। फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा। भगवान आप सब के साथ हैं, सब का कल्याण होगा, सब आनंदमय होगा। परमपिता परमेश्वर हम सब को, सुमति दें, सद्बुद्धि दे, और शक्ति प्रदान करें, ताकि हम सब सत्य और न्याय के रास्ते पर चल सकें। हरी ॐ ।।
"यो मां पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयि पश्यति ।    
तस्याहं न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति॥"
- भगवत गीता ६/३० 
श्री भगवान बोले -"जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही देखता है, और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। "
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गुरुवार, 13 अगस्त 2015

" रे मन चलो प्रेम की राह... भाग -३ "

"भाग -१" ; "भाग -२" से आगे
           पिछली दो चर्चाओं में, हमने देखा कि मन ही है, जो हमसे सारे काम करवाता है और यह सांसारिक चीजों में प्रेम पाने के लिए भटकता रहता है। फिर हमने देखा संसार से वह अलौकिक प्रेम हमें नहीं मिल सकता जिसकी हमें सदियों से तलाश है। आगे हमने देखा वह दिव्य प्रेम केवल और केवल हमें परमात्मा से ही मिल सकता है। आज हम चर्चा करेगें कि भगवान का वह दिव्य और अलौकिक प्रेम कैसे मिल सकता है? 
           परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, स्वयं प्रकाशमान और सक्षम हैं। वो नित्य, आनंदमय और करुणा के भंडार हैं। तो यदि उनसे प्रेम किया जाये तो, वह प्रेम अनंत मात्रा का होगा और सदा के लिए होगा। ऐसे ही प्रेम की तो हमें जरुरत है। और सारे जीव, ये सारा संसार उन्हीं की शक्तियाँ हैं, इस कारण से भी उनका प्रेम आनंदमय, सुखमय और शांतिमय होता है। तो उनका प्रेम कैसे प्राप्त किया जाये? इसको ठीक-ठीक जानने के दो तरीके हैं, पहला या तो सद्ग्रन्थों का सहारा लिया जाये, जैसे की वेद, पुराण, श्रुति आदि, या दूसरा जिस किसी ने उनका प्रेम पाया हो, उसके नक़्शे-कदम पर चला जाये। अब पहले यानि सद्ग्रन्थों की बात करें, तो पता चलता है कि भगवान को पाने के बहुत सारे तरीके बताये गए हैं। कहीं पर ज्ञान मार्ग, तो कहीं पर कर्म मार्ग, कोई योग की बातें बता रहा है, तो कोई धर्म की। कहीं पर आपको भगवान का सगुण-साकार रूप दिखेगा तो कहीं पर निर्गुण-निराकार। बातें सब उसी एक परमात्मा की हैं, लेकिन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके और उपाय बताये गए हैं। उस पर मुश्किल ये कि,केवल इन सद्ग्रन्थों को बस पढ़ कर आप कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकल पायेगें। क्योंकि बहुत से जगह शब्द कुछ कह रहे होतें हैं और उनका अर्थ कुछ और ही होता है। इस कारण सद्ग्रन्थों की बातों को भली-भांति समझने के लिए, किसी जानकर के पास जाना होगा, जैसे आप पढ़ने के लिए विद्यालय जाते हैं, शिक्षक के पास जातें है। ऐसे मोटे-मोटे तौर पर भगवान को पाने का एक मार्ग जो कि सारे ही सद्ग्रन्थों में है वह है, "भक्ति-मार्ग"। सारे ग्रंथों की मूल भावना यही है कि आप भक्ति कर, अपने इष्ट को प्राप्त कर लें। केवल भगवान की भक्ति ही वो है, जो आपको भगवान से मिला सकता है। पर भक्ति कैसे करें, इसका उत्तर है, संतों ने जो रास्ता अपनाया उसी रास्ते पर चल कर। 
           तो उसी आसान तरीके की बात करें, ऐसे लोगों का अनुकरण करें जिन्होंने स्वयं परमात्मा का साक्षात्कार किया हो। क्या ऐसे लोग हुए हैं? हाँ लाखों हुए हैं, हर युग में हुए हैं। आज भी आप को मिल जायेगें, पर थोड़ी जिज्ञासा जगानी होगी, थोड़ा सा प्रत्यन करना होगा। ऐसे संत लोग न केवल स्वयं भगवान का दर्शन प्राप्त किये हैं, वरन न जाने कितनो को भगवान से मिलवाया है, जैसे मीरा, तुलसी, सूर आदि। बस आप को उनका ही अनुशरण करना है, वैसा ही प्रेम ले कर, वैसे ही विश्वास के साथ। आपको वैसी ही प्रीति जगानी होगी, जैसी कभी मीरा ने जगाई थी, उतना ही विश्वास करना होगा जितना की सूर को था, उतनी ही भक्ति जितनी तुलसी ने की। तो परमात्मा का प्रेम मिलना तय है। आप को भजन करना होगा, रो कर उन्हें पुकारना होगा। आपकी करुण पुकार एक दिन अवश्य ही उनको आपके पास ले कर आयेगीं। आप को कहीं जाने की भी जरुरत नहीं, वो खुद चल कर आप के पास आयेंगें। आप की सच्ची और अनन्य भक्ति को वो भी नकार नहीं सकते। परमात्मा से प्रेम तो सरल है, और अनेकों संतों का उदाहरण है। आप चुनें सच्ची श्रद्धा के साथ, फिर करें उसी, एक परमेश्वर  की भक्ति। मन से करें, दिखावे के लिए नहीं। फिर आपके मन की चञ्चलता दूर होगी, फिर आपको भटकना न पड़ेगा। आप यहीं पर प्रभु का साक्षात्कार कर पायेगें। फिर आप के जीवन से दुःख छूमंतर हो जायेगा, आप नित्य नए-नए आनंद का अनुभव करेगें। आप कहेगें अभी तक ऐसा कुछ अनुभव क्यों नहीं हुआ? ऐसा नहीं कि अनुभव नहीं हुआ, हुआ है, पर चूँकि आप संसार के सन्मुख थे, इस कारण आप को पता नहीं चला। आप परमात्मा के सन्मुख होते तो पता चलता और फिर वो अनुभव हमेशा के लिए आप के पास होता। आपको संसार में ये जो क्षणिक सुख दीखता है, वो एक परछाई है अनंत आनंद की, परमात्मा के आनंद की। सांसारिक सुख तो मृगतृष्णा है, सच्चा सुख तो बस उस आनंद सिंधु के पास ही है। अतः मन को लगाएं उस एक के प्रेम में। थोड़े से अभ्यास से सब संभव है , जैसा कि कृष्ण ने अर्जुन को बताया, "अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ " - भगवत गीता  ६/३५ "हे अर्जुन ये(मन) अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।" मन को भगवान का प्रेमी बनाना है, बस थोड़े से अभ्यास से। अभी तक आप को प्रेम नहीं हुआ क्योंकि आप ने परमात्मा को सच्चे अर्थों में जाना ही नहीं। उन्हें जानिए क्योंकि केवल वहीँ सुख है, ऐसे भी संसार में भटक कर के तो देख ही लिए हैं। सच्चे मन से जिज्ञासा करें, दयालु प्रभु स्वयं ही रास्ता प्रदान करेगें। फिर आनंद ही आनंद बरसेगा, मंगल ही मंगल होगा। तो हमने देखा, 
तो आइए हम सब अपने मन को, परम दयालु प्रभु के सन्मुख करें, उनकी भक्ति करें, उनकी सेवा करें। रे मन चलो प्रेम की राह…, रे मन चलो प्रेम की राह… हरि ॐ ॥ 
"कठिन काल मल कोस, धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस, रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥"   
- रा. च. मा. ३/६/२
"यह कठिन कलिकाल पापोंका खजाना है;इनमें न धर्म है,न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है।इसमें तो जो लोग सब भरोसोंको छोड़कर श्रीरामजीको ही भजते हैं,वे ही चतुर हैं "
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बुधवार, 12 अगस्त 2015

" रे मन चलो प्रेम की राह... भाग -२ "

" भाग -१ " से आगे
          पिछली चर्चा में हमने देखा था, हमारा मन किसी की अभिलाषा में निरंतर भटक रहा है। इस कारण यह चञ्चल है। वह चीज इसे अभी तक नहीं मिल पायी है, इस कारण यह संसार में हर चीज में उसे ही ढूँढता है और आशा करता है कि कहीं ये वही तो नहीं। पर आज तक ऐसा नहीं हुआ, उसे अपने काम की चीज नहीं मिली। और मन अब तक शांत नहीं हुआ। आइए हम सब इस पर विचार करें। देखें हमारा मन किस चीज को खोज रहा है और वह कैसे मिल सकता है? 
          संसार में अगर देखें, तो एक बात पता चलता है कि, शांत और स्थिर वह व्यक्ति है जो की प्रेम में है। चाहे जिस किसी भी प्रकार का प्रेम क्यों न हो। मनुष्य सबसे ज्यादा शांत, खुश और आनंद में तब होता है जब वह उसके पास होता है, जिस से वह प्रेम करता हो। जैसे एक संगीतकार सब से ज्यादा खुश तब होता है जब वह कोई संगीत बना रहा हो, एक इंजीनियर अपने बनाये पुल पर जब गाड़ियों को गुजरते देखता है, तो ख़ुशी से झूम उठता है। शिल्पकार को उसकी मूर्ति, कवि को उसकी कविता, चित्रकार को उसके बनाये चित्र आदि से प्रेम होता है। और ये सब जब अपने प्रेम के पास खुश होतें हैं, शांत होतें हैं, आनंद में होते हैं। एक माँ अपने बच्चे को गोद  में ले शांत हो जाती है, वैसे ही बच्चा भी माँ के पास आ कर असीम आनंद की अनुभूति करता है। फिर बच्चे को कीमती से कीमती खिलौना दे दें, पर वह अपनी माँ को छोड़ कर नहीं आएगा। कोई बच्चा, किसी खिलौने को  तभी हाथ लगता है, जब उसे पता होता है कि माँ आस पास ही है, कहीं जाने वाली नहीं। यह विस्वास, आनंद और शांति, प्रेम में होने के कारण ही है। ऐसे ही हिमालय की गुफाओं में साधु सन्यासी, दिन-दुनियाँ से बेखबर निरंतर अपनी साधना में लगे रहते हैं और परम शांति पातें हैं, ये उनका प्रेम ही तो है। तो एक बात साफ है, व्यक्ति सब से ज्यादा खुश तब होता है जब वह प्रेम में होता है। शांत होता है, जब वह अपने प्रेमी के सानिध्य में होता है। खुशियाँ मनाता है, जब प्रेम की राह पर होता है। मनुष्य का जीवन आनंद से सराबोर होता है, खिला-खिला होता है, जब वह प्रेम में होता है। तो एक चीज जो शुरू में दीखता है, वह है "प्रेम"। मन की चञ्चलता गायब हो जाती है, जब हम प्रेम में होतें हैं। तो मन का अभीष्ट है, 'प्रेम'। जिस क्षण भी उसे प्रेम का लवलेश भी दिखता है, उसकी चञ्चलता क्षणभंगुर हो जाती है। चाहे वह प्रेम कैसा भी क्यों न हो। आप सब ने ये अनुभव किया होगा, कभी न कभी। प्रेम में आप स्थिर हो जातें हैं, यहाँ तक की प्रेम की बातों को याद कर के भी शांति मिलती है। तो अब प्रश्न है, 'मन' किसके प्रेम की आशा करता है? ऐसा क्या है, जिसे वह आज तक नहीं पा सका है? उसी एक प्रेम की चाहत में सदा से भटक रहा है। अब इस पर विचार करें । मन का प्रेम क्या है, मन किस प्रेम के लिए लालायित है, मन कैसे प्रेम कि इच्छा रखता है?
           अभी तक हमने देखा मन, प्रेम की खोज में दिन रात भटक रहा है।क्योंकि अगर प्रेम मिल जाये तो फिर शांति मिलनी तय है, या यूँ  कहें कि पेम में ही शांति है। पर वह प्रेम कैसा होना चाहिए? संसार में हमें बहुतों बार प्रेम हुआ है, कभी धन से, कभी मकान से, कभी माँ से, तो कभी पति या पत्नी से और भी न जाने किन किन से। लेकिन इन सब प्रेम से थोड़ी देर के लिए सुख तो मिला, लेकिन वो परम आनंद, वो चरम सुख नहीं मिलता जिसकी मन को तलाश है, मन की चञ्चलता ख़त्म नहीं हुई, मन भटकता ही रहा। ऐसे प्रेम, थोड़े मात्रा का होता है जो एक दिन शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे कम होते होते ख़त्म हो जाता है। जैसे आप का भोजन से प्रेम। जब आप भूखे होतें हैं, तो भोजन के लिए लालायित होते हैं, किस तरह से मिले, आप उसको पाने के लिए हर संभव प्रयत्न करतें हैं। आप का मन, बुद्धि और इन्द्रिय भोजन को पाने में लग जाता हैं। ऐसे में अगर आप को समय से वह न मिले तो बेचैन हो जातें हैं। लेकिन जैसे ही पता चले की अब मिलने वाला है, बस ये बात सुन कर ही मन में ख़ुशी होती है। अभी तक भोजन मिला नहीं, पर मिलने की बात सुन कर ही आप खुश होने लगतें हैं। फिर भोजन आता है, आप खाना शुरू करतें हैं। पहला निवाला, क्या बात है! असीम शांति प्रदान करता है, फिर दूसरा, तीसरा...। फिर एक समय आता है, जब आप कहतें हैं, बस अब हो गया। कोई आग्रह करे तो थोड़ा और, पर उसके बाद नहीं। फिर भोजन से पहले वाला प्रेम नहीं रह जाता, खाने की बात तो छोड़िये सामने देखने का भी मन  नहीं करता, चाहे फिर आप के सामने छप्पन प्रकार के भोग ही क्यों न हो। और अगर फिर कोई जबरदस्ती करे तो उसी खाने से आप को नफ़रत हो जाता है, फिर आप उस बारे में सोचना तक पसंद नहीं करते। संसार के सारे प्रेम, चाहे वो धन से हो, घर-मकान से हो, रिश्ते-नातेदारों से हो, या और भी किसी सांसारिक चीजों से हो, भोजन के प्रेम की तरह ही होता है। ऐसे प्रेम थोड़े मात्रा का होता है, जो एक दिन शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे कम होते-होते ख़त्म हो जाता है। वही प्रेम जिससे कभी आप को परम शांति मिला करती थी, आज उस के बारे में सुनने-सोचने तक का मन नहीं करता। पर ऐसा क्यों है? क्योंकि सांसारिक प्रेम की एक सीमा होती है, और वो सदा के लिए नहीं होता। कभी मिलता है, तो कभी नहीं मिलता। इस कारण इससे मिलने वाला सुख भी, सीमित ही होता है। हमरे मन को ऐसा प्रेम चाहिए जो की अनंत मात्रा का हो और हमेशा के लिए हो। हमारा मन ऐसे प्रेम की तलाश में है जो कभी न ख़त्म होने वाला हो, वरन समय के साथ बढ़ता ही जाये। संसार में हम जो कुछ भी देखते सुनते हैं, यहाँ तक की हमारी मन, बुद्धि और सोच तक समय के साथ बदल जाता है। ये सब चीजें नश्वर हैं, तो इनसे किया गया प्रेम भी नश्वर ही होगा, और फिर ऐसे प्रेम से असीम शांति मिले, इसकी कल्पना करना मूर्खता होगा। इस कारण हमें कभी भी वो शांति नहीं मिली, जिसकी हम सब को सदा से तलाश है। तो हमारा मन चञ्चल है क्योंकि हमें अभी अनंत प्रेम नहीं मिला या यूँ कहें अनंत से प्रेम नहीं हुआ।
           तो हमारे मन को ऐसा प्रेम चाहिए, जो अनंत मात्र का हो और सदा के लिए हो। ऐसा नहीं कि  मिला और थोड़े समय में फिर ख़त्म हो गया। पर मन को ऐसा प्रेम चाहिए ही क्यों? फिर देखेगें ऐसा प्रेम किस और कैसे से मिल सकता है। आइए, अपने शरीर से बात शुरू करें, तो हमारी इन्द्रियाँ जैसे हाथ, पैर, आँख, नाक, कान आदि(५-ज्ञान इन्द्रियाँ और ५-कर्म इन्द्रियाँ), इससे ऊपर इन सब के विषय,  इसके ऊपर मन, इसके ऊपर बुद्धि, और इसी तरह आगे। तो संसारी चीजों में जो सबसे ऊपर है, और हमसे करीब है, वह है मन। मन के एक ओर  संसार और दूसरी और आत्मा। भगवान कृष्ण अर्जुन से गीता में कहते हैं,
"इन्द्रियाणां मन श्र्चास्मि" -  भगवत गीता १०/२२ : "इन्द्रियों  में मैं  मन  हूँ " 
तो मन ही वो कड़ी है, जिसके एक ओर तो परम शुद्ध आत्मा और दूसरी ओर मायिक संसार है। और इन दोनों में बड़ा भारी अंतर है, दोनों दो छोड़ हैं, एक 'आत्मा', विशुद्ध और अनित्य, तो दूसरा 'संसार', क्षणिक और दुःख स्वरुप। और आत्मा चूँकि परमात्मा का अंश है, इसकारण वो उसी असीम आनंद की खोज में ही लगा है। इस कारण वह वैसा ही सुख चाहता है या यूँ कहें वही सुख चाहता है। पर दिक्क्त तब शुरू होती है, जब वो परम आनंद संसार में खोजने की कोशिश करता है। संसार में इधर-उधर भटक कर उसी शांति की खोज करता है। तो यह तय हुआ की मन को वही परमात्मा वाला सुख चाहिए। जो की अनंत मात्रा का है और हमेशा के लिए है। पर अब देखना है कि क्या यह सुख हमें संसार में मिल सकता है? मतलब क्या हमें यह सुख धन-दौलत, रिश्ते-नातेदार, घर-मकान आदि से मिल सकता है? आप कहेगें, ये संसार भी तो भगवान ने ही बनाया तो यहाँ भी वैसा ही सुख मिलना चाहिए। पर ऐसा नहीं है। ये संसार भगवान ने अपनी जड़ शक्ति माया से बनाया है, और इस कारण यह क्षणभंगुर है। एक दिन बना और धीरे-धीरे एक दिन खत्म भी हो जायेगा। ये जो कुछ भी आप देखतें हैं, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, तारे-नक्षत्र आदि सभी एक दिन बने थे, और एक दिन ख़त्म हो जायेंगें। यह तय है, यह निश्चित है। तो इन सब चीजों से हमें वो सुख हमें नहीं मिल सकता जिसकी हमें तलाश है। नश्वर संसार से अनंत सुख नहीं मिल सकता, इनसे प्रेम करें तो कुछ भी हासिल नहीं होगा। तो संसार से या यहाँ की वस्तुओं से प्रेम से हमारा काम नहीं बनेगा। 
           तो अब हमें वो खोजना है जो कि नित्य हो। अब नित्य दो चीज होती है एक आत्मा और दूसरा परमात्मा। अब आत्मा के पास तो अपनी शक्ति होती नहीं, यह तो परमात्मा की शक्तियों से ही प्रकाशित होता है। तो आत्मा के प्रेम से भी हमारा काम नही बनेगा। फिर तो बस परमात्मा ही बचे। तो अब देखना है, परमात्मा की किन शक्तियों ये हमारा काम बन सकता है और इसको कैसे प्राप्त किया जाये? आगे एक-एक कर हम इस पर चर्चा करेगें। आज के लिए बस इतना ही, शेष आगे। हरि ॐ ॥   
"धरनि धरहि मन धीर, कह बिरंचि हरिपद सुमिरु ।
जानत  जान की पीर, प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥"
- रा. च. मा. १/१८४ 
"ब्रह्माजीने कहा-हे धरती!मन में धीरज धारण करके श्रीहरिके चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ाको जानते हैं,ये तुम्हारी कठिन विपत्तिका नाश करेंगे "
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" रे मन चलो प्रेम की राह... भाग -१ "


रे मन चलो प्रेम की राह,
जिस राह कभी मीरा-सूर चले, 
प्रभु गुण गावत, दिन और रात,
रे मन चलो प्रेम की राह...
२ 
झूठे जग से प्रीति लगा के,
खुद को क्यों भरमाया। 
सत्य-प्रेम यहाँ नहीं मिलता,
प्रभु को क्यों बिसराया?
रे मन चलो प्रेम की राह...
३ 
धन-दौलत, सब रिश्ते नातें,
छोड़ है, एक दिन जाना । 
देह, गेह और नेह सभी में,
फिर क्यों रहा भुलाना ?
रे मन चलो प्रेम की राह...
४ 
जन्म-जन्म से भटक रहे हो,
कब जाओगे माया के पार? 
यूँ ही जीवन, बीता जाता, 
भज ले प्रभु के नाम दो-चार। 
रे मन चलो प्रेम की राह...
५ 
सुख-दुःख, तो है एक छलावा,
प्रभु का प्रेम ही तेरा सहारा। 
मिट जाएगी, सब तेरी आह, 
रे मन चलो प्रेम की राह...

रे मन चलो प्रेम की राह...
रे मन चलो प्रेम की राह... 

           "यहाँ एक भक्त अपने मन से बातें कर रहा है, वह अपने मन को समझा रहा है और कह रहा है कि, अरे मन कब तक तू संसार में यूँ भटकता रहेगा? सदियाँ बीत गयीं, और अभी भी तू अपने सच्चे लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाया है। अब तो उस रास्ते चल, जिस पर जीव आसानी से चल कर परम पिता को पा लेता है। वही रास्ता जो वेदों-पुराणोँ ने बताया है, जिस पर कभी मीरा, सूर, तुलसी आदि चले, और जिस पर चल कर न जाने कितनो ने अपना जीवन सफल बनाया। अरे मन तू उसी रास्ते पर चल। ये जो संसार है, बस एक छलावा भर तो है, धन-दौलत, रिश्ते-नाते कोई तेरे काम नहीं आयेगा। फिर क्यों तुम अपने सच्चे प्रियतम को भूल चुके हो। बहुत जन्म बीत गए, संसार में यूँ भटकते, पर कभी भी हरि का नाम नहीं लिया, उन के शरणागत नहीं हुए। जिस कारण आज तक बस दुःख ही दुःख पाया है, अब तो जग जा, अब तो भजन कर ले, अब तो प्रेम की राह चल....."

           रे मन चलो प्रेम की राह…,रे मन चलो प्रेम की राह…, मन को प्रेम की राह पर ले चलें । 'मन' को क्योंकि , मन ही है, जो सारी इन्द्रियों से काम करवाता है, संसार में हमें भटकाता  है। अगर मन प्रेम की राह पर चल पड़े तो बाँकी इन्द्रियाँ स्वयं ही इसके अनुसार अपना-अपना काम करने लगेगीं। लेकिन मन चञ्चल है, अति चञ्चल है, एक जगह स्थिर रह ही नहीं पाता, प्रेम की राह पर आसानी से चल नहीं पाता । भगवत गीता में अर्जुन ने, भगवान कृष्ण से कहा है,
"चञ्चलम् हि  मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् । 
तस्याहं निग्रहं मन्ये वयोरिव सुदुष्करम् ॥"
भगवत गीता ६/३४ 
"हे कृष्ण! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वाभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ । "
अर्जुन सरीखे लोग ऐसा कह रहे हैं, जिन्होंने काम-क्रोध को जीत लिया था। और  साथ में, कृष्ण भी इस बात को मानतें हैं, की मन बहुत चञ्चल है("असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् " -भगवत गीता ६/३५, "हे महाबाहो! निःसंदेह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है")। फिर हम साधारण जीव के लिए तो मन को नियंत्रित कर प्रेम की राह पर चलाना बहुत ही मुश्किल है? पर आखिर ये मन इतना चञ्चल क्यों है? ये क्यों इधर-उधर भटकते रहता है? आइये पहले इस बात पर विचार करें, आगे प्रेम की राह की बात करेगें। कोई चञ्चल कब होता है? कोई अधैर्य कब होता है? कोई इधर-उधर कब भटकता है? ऐसा तब होता है जब उसे उसकी अभीष्ट वस्तु, जिसको कि वह चाहता है, जिसको कि वह खोज रहा है, उसे नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में वह उसे हर जगह ढूँढता रहता है। तो मन चञ्चल इसलिए है, कि मन जिस किसी भी चीज को खोज रहा है वह उसे अभी तक नहीं मिला। जिस किसी दिन इसे इसके काम की चीज मिल जाएगी, उसी दिन से वह शान्त हो जायेगा, स्थिर हो जायेगा, इसकी चञ्चलता सदा के लिए ख़त्म हो जाएगी। तब वो, इधर-उधर भटकना बंद कर देगा। तो एक बात तय हुई कि, मन कुछ खोज रहा है, किसी को पाने कि आशा लिए हुए है, पर आज तक वह उसे नहीं मिला। सदियाँ बीत गई इस खोज में, और खोज भी जारी है।
           तो मूल बात अब तक ये हुई, पहला मन ही है जो हमसे सब काम करवाता है। दूसरा, मन को कुछ अभीष्ट है, जो कि अभी तक इसे नहीं मिला। तो अब ये पता करना है कि मन को क्या अभीष्ट है, आखिर मन क्या ढूंढ़ रहा है? क्या उस को प्राप्त किया जा सकता है? किसी ने उसको प्राप्त किया है? और अंत में अगर हाँ, तो उस अभीष्ट को कैसे प्राप्त किया जाये? आगे एक-एक कर के हम लोग इस पर चर्चा करेगें। आज के लिए इतना ही, शेष आगे। हरि ॐ ॥ 
" श्री  रघुवीर  प्रताप  ते,   सिंधु   तरे   पाषान । 
ते मतिमंद जे राम तजि, भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ "
- रा. च. मा.  ६/३  
"श्रीरघुवीरके प्रताप से  पत्थर भी समुद्र पर तैर गये । ऐसे श्रीरामजीका छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामीको जाकर भजते हैं वे मन्दबुद्धि हैं "
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