सही क्या? गलत क्या? ; सत्य क्या? असत्य क्या? ; न्याय क्या? अन्याय क्या? ; उचित क्या? अनुचित क्या? ; पाप क्या? पुण्य क्या? ; धर्म क्या? अधर्म क्या? ; आज एक साधक ने बहुत ही सरल और सच्चे मन से ये प्रश्न किया। बिल्कुल शुद्ध ह्रदय से पूछा गया, कोई छलावा नहीं, कोई दिखावा नहीं। ऐसे प्रश्न अक्सर हमारे सामने होते हैं। आम तौर पर, हमारे जीवन के हर मोड़ पर, हर जगह, जब भी कभी, दो में से किसी एक को चुनना हो, तो हमारे सामने ऐसे प्रश्न होते हैं। और ऐसी स्थिति में हम हमेसा, बहुत सोच-विचार कर ही, कोई फैसला करना चाहते हैं। लेकिन कभी-कभी ये फैसला करना कठिन होता है। मन और बुद्धि मिल कर, ये निश्चित ही नहीं कर पाते कि, क्या सही है, और क्या गलत? ऐसे समय में हम दुविधा में होते हैं, कभी मन कहता है, ये सही है ये कर लो, और कभी लगता है, ये सही नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें पता होता है कि, दोनों में से कोई एक ही चुनना है, और कोई विकल्प नहीं। फिर भी हमारे लिए किसी एक का चुनाव करना आसान नहीं होता। आप सभी ने इसका अनुभव किया होगा, अक्सर हम ऐसे सवालों से घिरे होते हैं। ऐसे समय में हमें मार्गदर्शन की जरुरत होती है, किसी सच्चे सलाह की आवश्यकता होती है, आप चाहते हैं कोई रास्ता मिल जाये। तो हम कैसे निश्चय करें कि, क्या सही है और क्या गलत? आइए, अब हम मिल कर इस प्रश्न को उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं।
तो हमने देखा कि हमारे लिए सही-गलत का चुनाव करना कभी-कभी मुश्किल होता है। इसका कारण है, सही और गलत का फैसला करना, अपने आप में दो-धाड़ी तलवार पर चलने जैसा है। और इनके बीच की दीवार इतनी पतली होती है, कि कब हम एक ओर से दूसरे ओर आ जाते हैं, इसका पता भी नहीं चलता। सत्य का साथ देते-देते, कब असत्य के रस्ते के पर हो जाते हैं, इसका निर्धारण करना मुश्किल होता है। और ऐसा इसलिए है कि, कभी-कभी सत्य और असत्य के स्वरुप के, अंतर का निर्धारण, व्यक्ति विशेष, समाज और परिस्थिति पर होने लगता है। किसी एक व्यक्ति के लिए सही, तो किसी और के लिए गलत, किसी एक समाज के लिए सत्य, तो औरों के लिए असत्य। तथा ये अंतर समय के साथ बदलता भी रहता है। आज जो सत्य, आदर्श और न्याय संगत लग रहा है, कल वैसा न लगे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दुनियाँ में इतने झगड़े, विवाद और घर-घर के कलह का यही कारण है। हम एक ही सत्य को दो विरोधी छोड़ से देखते हैं, और ऊपर से समस्या ये की दोनों विरोधी स्वयं को सत्य की ओर होने का दावा कर रहे होते हैं। लेकिन, एक बच्चा भी कह सकता है, सत्य तो एक ही होता है, फिर दोनों सही कैसे हो सकतें हैं? सत्य की तो एक ही परिभाषा है, फिर दो सत्य और वो भी विरोधी कैसे पैदा हो जाता है? न्याय तो किसी एक तरफ ही होगा, तो दोनों कैसे न्याय करने का दवा करते हैं? आइये हम इस पर विचार करें। आखिर दो अंतःविरोधी सत्य कहाँ से आता है? थोड़े इसके जड़ तक जाते हैं, शायद फिर हम इस प्रश्न का उत्तर भी खोज पायें कि सही क्या है और गलत क्या?
सत्य और असत्य दो अंतःविरोधी, एक साथ कहाँ से पैदा होता है, इसको जानने के लिए, हमें पहले ये पता लगाना होगा कि सत्य और असत्य की परिभाषा क्या है, सही और गलत का फैसला हम कैसे करतें हैं? हम कैसे पता लगते हैं कि कौन न्याय कर रहा है और कौन नहीं। सही-गलत का फैसला हम अपने मन और बुद्धि के द्वारा अपने अनुभवों, बड़ो की बातों, समाज और धर्मग्रंथों की सीख आदि के आधार पर करते हैं। अब इसमें दो बातें हो सकती है, एक, या तो धर्मग्रंथ, समाज आदि ही हम लोगों को विरोधी बातें बताते हैं या इन सब की सीख तो एक ही होती है, पर हम लोग स्वयं ही अलग-अलग अर्थ कर लेतें हैं। धर्मग्रंथ तो सदियों से हैं और इनकी बातें भी वही हैं, तो अब पहली बात कि धर्मग्रंथ और समाज अलग-अलग सीखाते हैं, संभव नहीं। तो दूसरी बात ही हो सकती है कि हम स्वयं ही अलग-अलग अर्थ निकाल लेतें हैं। हाँ बिल्कुल ऐसा ही होता है। इसका कारण है, हमारे देखने का नजरिया। हम वही देखते हैं, जो वस्तुतः देखना चाहते हैं, और ये बिलकुल प्राकृतिक है। आप के देखने के स्थान, समय और परिस्थिति पर चीजें निर्भर करती है। आप जिस किसी जगह पर होतें हैं और वहाँ से कोई चीज जैसी दिखती है, किसी और जगह से भी वैसी ही दिखे, इसकी कोई निश्चित्ता नहीं। जैसे किसी के लिए मक्का पूर्व में है तो, किसी के लिए पश्चिम में। मक्का किस दिशा में है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप स्वयं मक्के के किस ओर हैं। यदि आप मक्के के पूर्व में हैं, तो मक्का आप के लिए पश्चिम में होगा और यदि आप मक्के के पश्चिम में हैं, तो मक्का आप के पूर्व में होगा। मक्का तो वहीँ है, सदियों से है, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहाँ से देख रहें हैं। और ये बिलकुल प्राकृतिक है, और इसमें कोई दो मत नहीं। तो जो हम सत्य के दो अंतः विरोधी स्वरुप को देखते हैं इसका कारण बस यही है कि हम सत्य हो दो विपरीत छोड़ से देख रहे होते हैं। जब ऐसा है तो इसमें गलत क्या है? फिर हम सब से गलती कहाँ हो रही है? फिर ये जो अंतः विरोध के कारण झगड़े हो रहें हैं, क्या ये सब यही है? नहीं, ऐसा नहीं। समाज में होते झगड़े और आपस के कलह गलत हैं।तो गलती कहाँ हो रही है? आइये इस पर विचार करें।
सत्य हमेसा सत्य ही होता है, किन्तु गलती तब होती है, जब हम सत्य को सापेक्षता की तराजू पर तौलते हैं। सत्य को आपने-आपने नजरिये से देखते हैं, सत्य का सहारा आपने फायदे के लिए करते हैं। सत्य और न्याय को कभी सापेक्षता की तराजू से तौला नहीं जा सकता, वरना सत्य, सत्य नहीं रह जाता, न्याय, न्याय नहीं रह जाता। सत्य हमेसा शुद्ध और निरपेक्ष होता है, सत्य को अगर मूल रूप से जानना है तो सापेक्षता छोड़नी होगी।अपनी सीमाओं को लांघ कर आगे बढ़ना होगा, अपने स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। कोई धर्मग्रंथ, कोई समाज, कोई व्यक्ति आपको, सत्य का दर्शन नहीं करा सकता, जब तक कि आप स्वयं की सीमाओं से बहार नहीं आते, मैं और मेरेपन को छोड़ नहीं देते। आप सब को महाभारत की कथा याद होगी, जब पाण्डव अपनी सारी संपत्ति जुए में हार जाते हैं, यहाँ तक की द्रौपदी को भी हार जाते हैं। तब दुर्योधन, द्रौपदी को भड़ी सभा में लाने के लिए, अपने भाई को आदेश देता है। और उसका भाई दुःशासन द्रौपदी को उसकी बालों से खींचते हुए, वहाँ ला कर वस्त्र हरण करने की कोशिश करता है। उस समय हस्तिनापुर की वो सभा, प्रकाण्ड विद्वानों, धर्माचार्यों, बड़े-बड़े शूरवीरों, न्यायविदों, सत्यव्रतियों आदि से भड़ी थी। कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐसे विद्वानो के बीच अन्याय हो सकता है, पर किसी ने द्रौपदी की लाज बचाने की कोशिश नहीं की। हर किसी ने सर को झुका के, बस तमाशा देखा, सब को पता था, गलत हो रहा है पर सब चुप थे। कोई धर्म की दुहाई दे रहा था, तो कोई अपने फर्ज के तले दबे होने का, कोई नमक का कर्ज अदा कर रहा था, तो किसी को पुत्र-प्रेम ने बाँध रखा था। सब ने अपना स्वार्थ छुपाने के लिए, धर्मग्रंथों, सत्य, न्याय और न जाने किन किन चीजों का सहारा लिया। उन लोगों को लग रहा था, धर्म से गिर जायेगें, आने वाला समाज कहेगा नमक का साथ नहीं दिया, इतिहास के पन्नों में न जाने क्या लिखा जायेगा आदि-आदि! हर कोई एक दूसरे को देख रहे थे और आशा में थे कि कोई तो रोके, पर किसी ने आगे बढ़ कर दुःशासन को रोकने की कोशिश नहीं की। पर क्या ये सही था? किसी अबला स्त्री की इज्जत लुट रही हो और आप मुँह छुपाये बैठे हों, क्या ये सही है? भगवान कृष्ण ने इसका उत्तर दिया, स्वयं द्रौपदी की साड़ी बन, उसकी लाज बचाई। सत्य और न्याय से बचने के लिए आप बहाने तो ढूँढ ही लेते हैं, पर वह केवल आप की कमजोरी छुपाने का जरिया भर होता है।
सच्चाई के रस्ते में अगर अपना स्वार्थ और किसी की भलाई आमने-सामने हो तो, अपना स्वार्थ त्याग कर ही आप सत्य को पा सकते हैं। अगर आप ने जरा सा भी स्वार्थ को बल दिया तो आप का मन हजारों बहाने ढूँढ़ लेगा। महाभारत की उस सभा में जो धर्म की दुहाई दे रहे थे, वो सब के सब स्वार्थ के वश में थे। बहाने तो ढेर सारे थे, बहाने तो मिलने ही थे। अगर न मिलते तो मन, नए बहाने बना लेता, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, मन इस काम में बहुत ही आगे होता है। आप को पता भी नहीं चलता और बहाने बन के तैयार हो जातें हैं। और स्वार्थ को छुपाने का सबसे अच्छा तरीका है, धर्म का बहाना। हम अक्सर ऐसा ही करते हैं, अपनी कायरता छुपाने के लिए धर्म का सहारा लेतें हैं, क्यूँकि पता है, इस पर कोई ऊँगली न उठा सकेगा, धर्म के आड़े आप हमेशा बच जायेगें। तो वहाँ भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया चीड़ बन कर, कोई स्वार्थ नहीं, किसी का डर नहीं, बस मन में रहा होगा कि किसी भी तरह से द्रौपदी की इज्जत बच जाये। और यही भावना सर्वोपरि है।
तो जब कभी भी आप को ऐसा लगे कि चुनना मुश्किल हो रहा तो सोचिये भगवान कृष्ण होते तो क्या करते। आप सोचिये कि आपके पास भगवान की ही शक्तियां हैं। फिर आप स्वार्थ और भय छोड़ कर जो भी निर्णय करेगें वो सत्य के साथ होगा, न्याय के साथ होगा। कोई धर्मग्रंथ, किसी गुरु का ज्ञान, आप के आने वाले परिस्थितियों का हल, पहले नहीं बता सकता। आप को स्वयं ही इन सब का निचोड़, और अपना अनुभव जोड़ कर निर्णय करना होगा। एक वाक्य में कोई निर्देश देना सम्भव नहीं, बस सरल ह्रदय से, बिना किसी स्वार्थ और राग-द्वेष के, दूसरों का भला, निर्बल और निःसहाय की रक्षा का भाव ले कर, निर्णय लें और उसको कार्यान्वित भी करें। फिर सब मंगल-मंगल होगा, कोई दुविधा न होगी। फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा। भगवान आप सब के साथ हैं, सब का कल्याण होगा, सब आनंदमय होगा। परमपिता परमेश्वर हम सब को, सुमति दें, सद्बुद्धि दे, और शक्ति प्रदान करें, ताकि हम सब सत्य और न्याय के रास्ते पर चल सकें। हरी ॐ ।।
"यो मां पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति॥"
- भगवत गीता ६/३०
श्री भगवान बोले -"जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही देखता है, और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। "
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