शनिवार, 18 जुलाई 2015

" भगवान कैसे मिलें ? "

           " भगवान कैसे मिलें ? " संसार में हर कोई भगवान से मिलना चाहता है, हर कोई उनका दर्शन पाना चाहता है, हर कोई उनकी कृपा दृष्टि चाहता है। इसका कारण है, बस एक बार अगर भगवान मिल जाएँ तो सारे दुःखों से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जायेगा, जीवन में परम सुख व शांति आएगा और जीवन आनंद से सराबोर हो जायेगा। केवल सर्वशक्तिमान प्रभु ही हम सब को सांसारिक दुःखों से मुक्त कर सकतें हैं और कभी न ख़त्म होने वाला आनंद दे सकतें हैं । तो प्रश्न उठता है कि भगवान कैसे मिलें, सच्चिदानंद स्वरूप प्रभु का दर्शन कैसे हो, उन परम दयालु की कृपा कैसे प्राप्त हो ?
           लोग भगवान को पाने के बहुत से उपाय बतातें हैं, कोई कहता है कर्म करो, कोई कहता है धर्म करो, कोई ज्ञान की बात करता है तो कोई योग की। साधारण मनुष्य इन सबों में बहुत उलझ गया है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों की बात माने तो भगवान को केवल भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। और कोई दूसरा साधन, परमात्मा के पथ में आगे तो ले जा सकता है पर अंतिम लक्ष्य, जो की प्रभु का साक्षात्कार है, को नहीं दिला सकता। तो अब प्रश्न यह नहीं कि  भगवान कैसे मिले, प्रश्न यह है कि भगवान की भक्ति कैसे मिले? और एक बार अगर परमपिता परमेश्वर की भक्ति मिल जाये फिर भगवान स्वयं ही मिल जायेगें, इसमें कोई दो मत नहीं। भगवान स्वयं इस बात की पुष्टि करतें हैं।
"जातें  बेगि  द्रवउँ  मैं  भाई ।  सो मम भगति भगत सुखदाई ॥"
- रा. च. मा. ३/१५/२ 
"हे भाई!जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ,वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देनेवाली है" 
इतना ही नहीं भगवान ने तो यहाँ तक कहा है कि,
"कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥"
- रा. च. मा. ३/३४/४
"श्रीरघुनाथजी ने कहा-हे भामिनि!मेरी बात सुन!मैं तो केवल एक भक्तिहीका सम्बन्ध मानता हूँ "
          तो मूल प्रश्न यह है कि भगवन की भक्ति कैसे प्राप्त हो ? भक्ति का सीधा सा अर्थ है "सेवा करना", "खुश करना"। संसार में भी अगर आपको किसी से कुछ चाहिए तो हम क्या करतें है? हम उसकी सेवा करतें हैं, उसको खुश करतें हैं। हर वो काम करतें हैं जिससे उसे आराम मिले, उसकी इच्छाओं के अनुसार चलतें हैं... आदि-आदि। ठीक इसी प्रकार अगर आपको भगवान से मिलना है तो उनको प्रसन्न करने की कोशिश करना होगा, उनकीं इच्छाओं को अपनी इच्छा बना कर कार्य करना होगा, उनकी सेवा करनी होगी ।
           पर आप कहेगें, संसार में तो लोग मिल जाते हैं, तभी तो हम उसकी सेवा कर पातें हैं। लेकिन भगवान का मिलना तो दूर, दिखतें तक नहीं, उनकी सेवा क्या खाक करेंगें। बात सही है, मिलें तब तो कुछ सेवा हो, ऐसे हवा में क्या हो सकता है। तो बात फिर वहीँ पर पहुंच गईं जहाँ से शुरू हुई थी, कि भगवन का मिलना पहले जरूरी है, तभी कुछ बात बनेगी। लेकिन ऐसा नहीं है, भगवान भक्ति से खुश होतें हैं, ये बात सही है पर संसार में जैसे लोग सेवा चाहते हैं, भगवन वैसी सेवा की बात नहीं करतें। भगवान पूर्णरूपेण शरणागति चाहतें हैं। आप सबने नवधा भक्ति के बारे में सुना होगा। श्रीमद्भागवत में कहा गया है,
"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पदसेवनम् । 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥" 
श्रीमद्भागवत ७/५/२३ 
"भगवान  विष्णु  के  नाम , रूप , गुण , और  प्रभाव  आदि का श्रवण , कीर्तन  और स्मरण  तथा  भगवान  की  चरण सेवा , पूजन  और वंदन  एवं  भगवान में दास भाव , सखा भाव  और  अपने को समर्पण कर देना - यह  नौ प्रकार की भक्ति है । "
           संसार के लोगों की सेवा में थोड़ी बहुत कठिनाई भी है, आपको मेहनत करनी पड़ती है, पैसे खर्च करने होतें हैं, किन्तु भगवान की भक्ति बिल्कुल सरल है, सहज है। कुछ करने की जरुरत नहीं, कोई मेहनत नहीं, कोई पैसे भी नहीं लगते। आप जहाँ हैं, जिस जगह भी हैं, जिस किसी अवस्था में हैं, वहीँ पर भगवान की भक्ति कर सकतें हैं। भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहतें हैं,
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रच्छति । 
तदहं   भक्त्युपहृत्तमश्रामि  प्रयतात्मनः ॥"
 -भगवत गीता  ९/२६ 
"जो  कोई  भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र , पुष्प ,फल , जल आदि अर्पण करता है , उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र -पुष्पादि मैं  सगुण  रूप से प्रगट हो कर प्रीतिसहित खाता  हूँ  । "   
           अब इससे आसान क्या होगा, भगवान को तो कुछ भी नहीं चाहिए। और आपके पास ऐसा क्या है, जो आप भगवान  को दे सकतें हैं। आपको जो कुछ भी लगता है कि वो आपका है, वो भी तो भगवन का ही दिया हुआ है। सर्वशक्तिमान प्रभु केवल आपकी भावना के भूखे हैं। आप मन से उनकी भक्ति करें, तो और कुछ करने की जरुरत नहीं होगी। भगवान को खुश करना है तो बस उनके शरणागत हो जाइये। उनकी अनन्य भक्ति ही उनको पाने का एक मात्र तरीका है और कुछ नहीं। और प्रभु की भक्ति आसान है जैसा कि  ऊपर कहा गया है । तो फिर देर किस बात की, अभी तक, जो आपने मन को प्रभु से विमुख कर, संसार में लगा रखा है, उस मन को संसार से हटा के, प्रभु के संन्मुख कर दीजिए,फिर काम बन गया.…
  "सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥" 
- रा. च. मा. ५/४३/२  
"जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है,त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं "
           शुरू-शुरू में, आप को सन्मुख होने में थोड़ा समय लग सकता है, बार बार मन संसार की तरफ भागेगा, हो सकता है लगे कि कहाँ आ के फस गया, क्योंकि सदियों से मन संसार में लगा हुआ है, आसानी से नहीं छूटेगा, थोड़ी कठिनाई तो होगी। लेकिन आप विस्वास रखते हुए, अभ्यास के द्वारा इस मन को भगवान में लगाते रहिए, फिर आपको कुछ करने की जरुरत नहीं। बाकीं सारा काम प्रभु स्वयं करेगें और आपको अवश्य ही उनका दर्शन प्राप्त होगा। .... हरि ॐ ॥
"बचन कर्म मन मोरि गति, भजनु करहिं निःकाम । 
तिन्ह के ह्रदय कमल महुँ,  करउँ   सदा  बिश्राम ॥ "
- रा. च. मा. ३/१६
"जिनको कर्म,वचन और मनसे मेरी ही गति है;और जो निष्काम भावसे मेरा भजन करते हैं,उनके ह्रदय-कमलमें मैं सदा विश्राम किया करता हूँ "

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