बुधवार, 29 जुलाई 2015

" संसार में सुख-दुःख ? "

           आज एक साधक ने पूछा, "संसार में कुछ लोग सुखी हैं, कुछ लोग दुखी हैं, कभी सुख मिलता है, कभी दुःख मिलता है? कुछ लोग कहतें हैं, संसार में सुख है, कुछ लोग कहतें हैं अरे नहीं, संसार में तो दुःख है। बस समझ में नहीं आता किसकी बात माने। कृप्या बताइये संसार में सुख है या दुःख?"
           आप ने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है, बिल्कुल शुद्ध हृदय से पूछा गया है। चलिए मिल कर, इसे एक-एक कर समझतें हैं। चार बातें हो सकतीं हैं, या यूँ कहें की संसार में चार प्रकार के लोग होतें हैं। पहले प्रकार के लोग, जिनकी संख्या बहुतों है, मानतें हैं कि, 'संसार में सुख और दुःख दोनों है' और ये सुख-दुःख आदमी को अपने-अपने कर्मो के अनुसार मिलता रहता है। इनकी बातें कुछ हद तक सही भी लगतीं हैं, हम सब अपने रोजमर्रा के जीवन में ये देखते हैं। कल जो दुखी था, आज ख़ुशियाँ मना रहा है, कल जो खुशियों के मारे फूला न समा रहा था, आज सर पकड़ कर रो रहा है। एक ही दिन में ही आदमी कभी खुश होता है, तो कभी दुखी। हर जगह सुख और दुःख दोनों देखने को मिल जाता है। तो हम कह सकतें हैं की संसार में सुख और दुःख दोनों है। किसको सुख मिलता है और किसको दुःख ये चर्चा की बात हो सकती है पर, संसार में सुख और दुःख है, ये तो दिखता है। 
           अब दूसरे प्रकार के लोगों की बात करें, जिनका मानना है, संसार में दुःख ही दुःख है। थोड़े से समय के लिए जो सुख दिखता है, वह तो बस छलावा भर है, मन का भ्रम है। ऐसे लोग कम हैं, पर हुए हैं और हैं भी। इन लोगों का ऐसा मानने का कारण है, दुःख की विशालता। अब बुद्ध की ही बात लें, उन्हें संसार से विरक्ति, बस लोगों को अपने दुःख से दुखी होते देख कर हुई। और सब कुछ छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। तो बुद्ध सरीखे संत, संसार में लोगों को बहुत प्रकार के दुःख भोगते देख कर संसार को दुःख मय बतातें हैं। 
           अब एक और प्रकार के संतों की बात करें, जिनका मानना है कि, संसार में न तो सुख है और न ही दुःख। सुख और दुःख तो आदमी के मन की उपज है। ऐसे लोग, न तो माला पहनाने से खुश होतें हैं और न ही चप्पलों की बौछाड़ से दुःखी। ये संसार को स्वप्न मय  देखतें हैं, और सुख-दुःख को भगवान कि माया से बना भ्रम। जैसे रस्सी में सर्प का भ्रम, रस्सी सर्प जैसा प्रतीत हुआ तो दुःख और पता लगते कि ये तो रस्सी मात्र है सुख। कबीरदास, मीराबाई, रसखान आदि संत सरीखे संन्यासी सब ऐसा ही मानतें हैं, दुनियाँ इनके बारे क्या सोचती है, क्या बोलती है और क्या करती है, इन सब बातों से इनको कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। ये अपने ही दुनियाँ में रमे रहतें हैं। 
           अब बात करतें हैं चौथे प्रकार के लोग, जिनका मानना है संसार में सुख ही सुख है। आपको आश्चर्य लगेगा सुनके, पर ऐसे संत हैं, जिनके लिए दुःख नाम की कोई चीज नहीं होती। जो सारे संसार को प्रभु मय देखते हैं ("सीय राममय सब जग जानी, करूँ प्रनाम जोरि जुग पानी।"-रा. च. मा. १/७/४ )। और चूकिं रज-कण से ले कर के नछत्र-तारे तक सारा जगत प्रभु का ही बनाया है तो दुःख की तो बात ही नहीं। प्रभु का विरह भी इनके लिए सुखमय ही होता है।इसलिए आप ने सुना होगा, न गोपियों ने शिकायत की और न श्रीराधा जी ने ही प्रभु को जाने से रोका। 
           तो चलिए अब वापस उस प्रश्न पर आतें हैं, जहाँ से चर्चा शुरू किये थे, कि  संसार में सुख है या दुःख? संसार को परमपिता परमेश्वर ने रचा है। कहतें हैं, ये जगत प्रभु की सर्वोत्तम रचनाओं में से एक है। और प्रभु तो आनंदमय हैं, सुख की राशि हैं। इसलिए तो परमात्मा का एक नाम सच्चिदानंद है। तो ऐसे सुखमय प्रभु ने जब यह संसार बनाया तो संसार में दुःख कैसे हो सकता है? जैसे चीनी से बनाया गया रसगुल्ला मीठा होता है, आप सब ने खाया होगा, लेकिन उसी रसगुल्ले को अगर नमक से बनाया जाये तो क्या वह मीठा होगा? नहीं, बिलकुल नहीं, नमक से बना रसगुल्ला नमकीन ही होगा। तो ऐसे ही आनंदघन स्वरुप भगवान ने संसार को रचा है तो इसे उन्हीं के जैसा सुखमय होना चाहिए!
           पर आप  कहेंगें, ये जो दिन-रात लोगों को कष्ट सहते देखतें हैं उसका क्या? जगह-जगह दुःख देखने को मिल जाता है, यह कैसे? ये दुःख कहाँ से आ गया? तर्क कहता है संसार में बस सुख ही सुख होना चाहिए, पर देखतें हैं इसका उल्टा। ऐसा क्यों, इसका क्या कारण  है?   
           आप की बात सही है, इसको समझने के लिए संसार को समझना होगा। कुल मिला के मोटे तौर पर तीन चीजें हैं, एक ब्रह्म, एक उस ब्रह्म की माया और एक हम सब जीव। तो जो कुछ भी हम देखतें हैं, कहिये तो सारा संसार, भगवान  की माया शक्ति से बना है, जो की जड़ है। अब आप पूछ सकतें हैं कि, भगवान ने संसार को बनाया ही क्यों? तो भगवान ने हम सब जीवों को सुख देने के लिए, हम सब के कल्याण के लिए, कृपा करके संसार की रचना की।  ताकि जीव संसार में आ कर, भगवान के नाम, गुण, रूप, लीला, धाम आदि का गान करते हुए उनकी सहज भक्ति कर सके और आसानी से उनको पा सके। 
           किन्तु जीव संसार में आ कर परम दयालु-कृपालु परमात्मा को भूल गया, उनसे विमुख हो गया। जहाँ उसे भगवान  की भक्ति करनी चाहिए वहाँ  वह उनसे ही अलग हो गया। परमात्मा से विमुख होने के कारण ही, जीव संसार में दर-बदर भटक रहा है, दुःख प्राप्त कर रहा है। और यह क्रम जन्म-जन्मों  से यूँ ही चला आ रहा है। संसार में दुःख प्राप्त होने का बस एक ही कारण है, भगवन से विमुख हो जाना। हम सब संसार को अपना मान बैठे हैं, और उसी को पाने की होर में लगें हैं। बस ९९ को १०० करने के चक्कर में दिन-रात लगे रहतें हैं। थोड़े समय के लिए कुछ मिल जाता है तो सुखी हो जातें हैं और किसी कारण  से अगर न मिलें तो दुःखी, और ये स्वाभाविक है। अब मान लीजिये, किसी ने आप को कुछ सामान दिया रखने के लिए, और आप थोड़े दिनों में उसे अपना मान बैठे, उसका उपयोग करने लगे, उस से मन लगा लिया और उस में आशक्त हो गए। तो जब कभी वह व्यक्ति अपना सामान लेने आएगा, तो देने में आप को दुःख होगा। आप का था नहीं, पर आपने अपना मान लिया तो दुःख होगा। ऐसे ही हम सब ने संसार को अपना मान लिया है, वस्तुतः अपना है ही नहीं, कल किसी का था, बस आज थोड़े से समय ले लिए अमानत रूप से अपने पास है, कल फिर किसी और के पास चला जायेगा, जाना तय है। तो फिर क्यों इसमें आशक्त होना? तो भगवान से विमुखता और संसार में आशक्ति ही मूलतः दुःख का कारण है। 
           जिस क्षण जीव भगवान के सन्मुख हो पूर्णरूपेण शरणागत हो जाता है, भगवान उसी क्षण बिना देर किये, अपनी कृपा कर देतें हैं। उसका सारा अज्ञान हर कर, उसे हमेशा के लिए दुखों से मुक्त कर देतें हैं। उसे कभी न ख़त्म होने वाले परमानन्द की प्राप्ति करा देतें हैं। और उसे सदा-सर्वदा के लिए अपनी माया से मुक्त कर देतें हैं। फिर वह जीव सदा- सदा के लिए  दुःखों से छुटकारा पा लेता है।  
            संसार स्वयं में जड़ होने के कारण, कोई सुख या कोई दुःख प्रदान नहीं कर सकता, वरन भगवान से विमुखता दुःख और उनकी सन्मुखता सुख देती है। जीवों के भगवान से विमुख होने के कारण संसार दुःख स्वरुप, कर्म फल के बंधन के कारण सुखमय-दुःखमय, जड़ माया से बने होने के कारण न सुख, न दुःख रूप और भगवान को भक्ति कर प्राप्त होने की जगह के कारण सुखमय कहा गया है। इसलिए जीवों को भगवान के शरणागत हो उनकी कृपा और दया पाने कि चेष्ठा करनी चाहिए। अतः आप सभी हरि के शरणागत हों और आनंद को प्राप्त हों..... हरि  ॐ ॥ 
"करम बचन मन छाड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार । 
तब लगि  सुख  सपनेहुँ  नहीं,  किएँ  कोटि  उपचार  ॥"
-रा. च. मा. २/१०७ 
"जबतक कर्म,वचन और मनसे छल  छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता,तबतक करोड़ों उपाय करनेसे भी,स्वप्नमें भी वह सुख नहीं पाता "
  
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