सोमवार, 24 अगस्त 2015

"भगवान हैं!!!"

           भगवान हैं!!! आज एक बच्चे ने पूछा। वो प्रश्न नहीं कर पाया, बस विस्मय भरी निगाहों से इतना ही बोल पाया, "भगवान हैं!!!"। मुझे लगता है, प्रश्न होना चाहिए। विस्मय वाचक चिन्ह की जगह प्रश्न वाचक चिन्ह होना चाहिए था। लेकिन हमें इतनी आजादी नहीं कि खुलेआम ये प्रश्न कर सकें, वरना नाश्तिक का ठप्पा लगना तय है, हमारा समाज हमें इतनी छूट कहाँ देता। आप कहेगें ये क्या बचकना है। बात तो सही है, ये बचकना ही है, ये बच्चा है, तभी इतना बोल पाया, वरना आप तो, इन सब चक्कर में पड़ते ही नहीं, मन किया तो मंदिर में नारियल चढ़ा आये और मन नहीं किया तो कोई बात नहीं। कौन चक्कर में पड़ें, भगवान हैं की नहीं। काम तो चल ही रहा है। आप सब लोग यहाँ आये हैं, आप में से कुछ लोग भगवान को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं, और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो मानते भी हैं और नहीं भी, समय के साथ बदलते रहतें हैं, जब मानने से काम बना, मान लिया, जब नहीं जरुरत हुई तो भगवान कहाँ। पर बहुत कम ऐसे लोग होगें, जिन्हें इन तीनों में से, किसी भी एक पर पूर्ण रूपेण विस्वास हो। अधिकतर लोग, ऐसे ही काम चला रहें हैं, बिना जाने, बिना पहचाने। आपमें बिल्कुल बच्चे जैसा शुद्ध ह्रदय हो, इसके जैसा निर्मल मन हो, तो आप ऐसे प्रश्न कर सकेगें, और तभी आपकी आधात्मिक यात्रा प्रारंभ होगी। वरना यूँ ही संसार में भटकते रहेगें। तो बच्चे ने जो जिज्ञासा की, आज इस पर विचार करें। हर किसी के मन में ये प्रश्न आना चाहिए, भगवान हैं? अगर हैं तो उनके बारे में जानने की, उनको प्राप्त करने की कोशिश करें और अगर भगवान नहीं हैं, तो फिर कुछ कहने-सुनने की जरुरत नहीं। तो आज हम सब, इस बात पर विचार करें कि भगवान हैं या नहीं। बस कहा और मान लिए, ऐसी बात नहीं, अनुभव के द्वारा जानें, स्वयं अनुभव करें और तब मानें कि भगवान हैं या नहीं।  

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