रविवार, 18 जून 2017

"भगवान का मर्म"

           आज के भागवत चर्चा में आप सभी श्रद्धालुओं का स्वागत करता हूँ, अभिनन्दन करता हूँ| एक भक्त ने अपने प्रश्न में पूँछा है, "भगवान का मर्म क्या है?" सच बताऊँ तो भगवान का मर्म कोई बता नहीं सकता और हमारे हमारे जैसे के लिये तो इस पर कुछ बोलना सूर्य को दीया दिखाने के समान है| वेदों ने भी इस विषय में अपने हाथ खड़े कर दिए| "भगवान के मर्म" को जानना और फिर उसकी सही-सही व्याख्या करना और उस व्याख्या को उसी रूप में हू-बहु ग्रहण करना कठिन है, असंभव है| लेकिन भगवत-भक्ति के मार्ग में कुछ भी कठिन नहीं, भगवान के भक्तों के लिए कुछ भी असंभव नहीं| माना कि "भगवान के मर्म को" जानना-समझना कठिन है, किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी ने "भगवान के मर्म" को नहीं जाना है| "भगवान के मर्म" को बहुतों ने जाना-समझा है और आगे भी आप जैसे श्रद्धावान भक्त जानते-समझते रहेंगें, अनुभव करते रहेंगे| पर इसके लिए कुछ शर्तें हैं| आज की "भगवत-चर्चा" में हम सब ये देखेगें कि ""भगवान् का मर्म" क्या है, इसको किन्होंने जाना है और हम कैसे इसे जान सकते हैं, कैसे इसको प्राप्त कर सकते हैं?
           भागवत-चर्चा की शुरुआत एक रोचक प्रसंग से करते हैं| जब हमारे "हनुमान जी" जग-जननी माँ सीता जी के खोज में लंका गए, तो लंका पहुँचते ही इनकी भेंट "लंकिनी" से हुई, जो कि लंका के दरवाजे पर पहरा दे रही थी| ऐसे तो "हनुमानजी" बहुत छोटे से रूप में जा रहे थे, सोचें होगें क्यों बेकार को इससे झगड़ा मोल लें| अगर बिना कुछ कहे-सुने काम बन जाता है तो जल्दी से अपना काम ही करता हूँ| लेकिन "लंकिनी" भी अपने स्वाभाव से कहाँ पीछे हटने वाली थी| उसने "हनुमानजी" को रोका और कहा, "ऐ बंदर रुक, कहाँ जा रहा है? क्या तुझे मेरे बारे में पता नहीं! चोरों को तो मैं सीधे ही खा जाती हूँ|" "गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज" ने "रामचरितमानस" में इसका सुन्दर वर्णन किया है और कहते हैं, 
"जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा, मोर अहार जहाँ लागि चोरा||"
-रा. च. मा. ५/३/३ 
अब बेचारी "लंकिनी" को "हनुमानजी" का मर्म कहाँ पता था| उन्हें तो वो साधारण सा चोर समझ रही थी, जो कि लंका में चोरी-छिपे घुसने को कोशिश कर रहा था| जब "हनुमानजी" ने अपने एक जोरदार मुठी का प्रहार किया तब जा कर उसकी अकल ठिकाने आयी| कहाँ तो वह अपना मर्म समझाने की कोशिश कर रही थी और कहाँ हनुमानजी ने अपना मर्म समझा दिया| और एक बार जब हनुमानजी का मर्म उसे समझ आ गया फिर क्या था, सदियों से पड़ा अज्ञान का पर्दा हट गया| तत्त्क्षण ही वो राक्षसी शुद्ध हो गई| प्रेम और आनंद से उसका ह्रदय भर गया| आँखों में प्रेमाश्रय आंसू आ गए और गदगद कण्ठ से वो कहने लगी|
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।
-रा. च. मा. ५/३/८ 
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। 
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।। 
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।। 
-रा. च. मा. ५/४/१-३ 
मर्म का मतलब होता है, अंदर की बात, छुपी हुई बात, राज की बात, जो बात हर किसी को नहीं मालूम होता है| अगर आप किसी के मर्म को जानते है तो इसका मतलब है आप उसके बारे में सब जानते हैं और वो आप का खाशम-खास है| संसार में ऐसा कम लोग मिलते हैं, जिनको आप अपना खास कह सकें| संसार में ऐसा होना अच्छी बात है, किन्तु अगर यही बात अगर आप भगवान के बारे में कहें तो आप परम भाग्यशाली हैं| 
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