आप सभी को भगवान श्रीकृष्ण के जन्मदिन और शिक्षक दिवस पर बहुत सारी बधाईयाँ और शुभकामनायें। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का यह पावन पर्व, आप सब के जीवन में खुशियाँ और प्रेम की बहार ले कर आए और साथ ही शिक्षक दिवस पर आप सब, अनादि काल से चले आ रहे गुरु शिष्य परम्परा का सम्मान करते हुए ज्ञान और सद्मार्ग के पथ पर निरंतर चलते रहें, यही मंगल कामना है। "भक्ति का कभी नाश नहीं होता"। आज एक पत्र आया है, उसमें पूछा गया, "भक्ति का कभी नाश नहीं होता", इसका क्या मतलब है? पत्र लिखने वाले ने अपना नाम नहीं लिखा और न ही अपने बारे में कुछ बताया, छोटा सा पत्र है, कुछ आध्यात्म की बातें हैं और अंत में उन्होंने पूछा है, "भक्ति का कभी नाश नहीं होता", इसका क्या मतलब है? पत्र पढ़ कर बहुत ख़ुशी हुई, इसका कारण है, जब उन्होंने कहीं पढ़ा या सुना होगा, भक्ति के सनातन और अनश्वर होने के बारे में, तो मन में थोड़ी जिज्ञासा हुई होगी। और उसी जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश में, उन्होंने ये पत्र लिखा। हर किसी के जीवन में संयोगवश, भगवत कृपा से ऐसा शुभ समय आता है, जब कुछ ज्ञान की बातें सामने आतीं हैं, उन्हें सुनने और समझने का मौका मिलता है। लेकिन बहुत कम ऐसे व्यक्ति होतें हैं, जो ज्ञान की उन बातों को अपने अंतःकरण में ला कर, उस पर मनन और चिंतन करतें हैं, तथा प्रयास करतें हैं कि ज्ञान की उन बातों के जड़ तक जाया जाय। तो जब कहीं उन्होंने भक्ति के अनित्य होने के बारे में सुना होगा तो, उसके मूल को जानने की कोशिश की होगी और जिस कारण उन्होंने ये पत्र लिखा, ज्ञान के मूल को जानने की उनकी यह कोशिश सराहनीय है, वंदनीय है। आइए आज हम लोग इसी विषय पर चर्चा करें कि, आखिर भक्ति को अनित्य क्यों कहा गया है।
आगे बढ़ने से पहले, आज आपको महाभारत का एक प्रसंग सुनाता हूँ। आप सभी को कहानी पता है, आप ने पहले भी सुन रखी होगी। महाभारत की लड़ाई शुरू होने वाली थी, दोनों ओर की सेनाएं, कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने थी। हर कोई तैयार था, हर कोई अपने मकसद को पूरा करने के लिए वहाँ खड़ा था। समय था, रण-कौशल दिखने का, अपने शत्रुओं का नाश करने का। इधर दुर्योधन अपनी सेना का मनोबल बढ़ा रहा था और उधर पांडव अपनी सेना और लड़ाई की रणनीति तय करने में लगे थे। तभी धनुर्धर अर्जुन ने भगवान कृष्ण, जो की उस समय सारथि बन कर उस के साथ थे, से कहा, "हे माधव जरा रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले चलिए, मैं देख तो लूँ कि किन-किन लोगों के साथ मुझे युद्ध करना है।" फिर जब कृष्ण ने, रथ को दोनों सेनाओं के बीच में रखा तो, विपक्षियों में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को देख कर अर्जुन व्याकुल हो गए, उन्हें लगा 'ये मैं क्या करने जा रहा हूँ, थोड़े से राज-सुख के लिए अपने ही लोगों का वध करूँ, नहीं ये ठीक नहीं होगा।' अर्जुन को मोह से ग्रषित देख, कृष्ण ने अर्जुन को बहुत सारी कर्म, धर्म, ज्ञान, योग, भक्ति आदि की बातें बताई। उत्तर-प्रतिउत्तर का यह दौर लम्बा चला, भगवत गीता के १८ अध्याय में इसी की चर्चा है। इसी क्रम में अर्जुन, भगवान से पूछते हैं,
"अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमनासः ।
अप्राप्य योग संसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ "
-भगवत गीता ६/३७
"जो योग में श्रद्धा रखने वाला है , किन्तु संयमी नहीं है , इस कारण जिसका मन अंतकाल में योग से विचलित हो गया है ,ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत साक्षात्कार को न प्राप्त हो कर किस गति को प्राप्त होता है । "
अर्जुन का मूल प्रश्न है कि जिसकी साधना पूर्ण नहीं हुई, ऐसे भक्त की क्या गति होती है। अगर संसार के सन्दर्भ में यही प्रश्न किया होता तो, हम सभी भी इसका उत्तर आसानी बता देते। यहाँ संसार में जब तक कि काम पूरा न हो जाये तब तक आप असफल ही माने जातें हैं। जैसे आप नदी में तैर रहें हों, आप पूछें, जब आधे नदी में हों, नदी के बींचो-बींच हों और आप पूछें कि अब अगर तैरना बंद कर दूँ, तो क्या होगा? जबाब आसान है, कोई बच्चा भी बता देगा कि आप डूब जायेंगें, नदी की तेज धरा आप को बहा ले जाएगी। कोई उपाय नहीं कि नदी के बीच में तैरना छोड़ें और पार हो जाएँ। और ऐसा भी नहीं की आधा आज तैर लिया और बांकी का आधा कल पार कर लेगें। नहीं, बिलकुल नहीं, ऐसा संभव नहीं, यदि नदी को पार करना है तो एक बार में ही पार करना पड़ेगा। संसार का हर काम इसीप्रकार का है, काम यहीं करना है, इसी जन्म में समाप्त करना है, और कोई हल नहीं, संसार के सारे कर्म इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।
लेकिन जब अर्जुन ने भगवान से ऐसा, भक्ति के सन्दर्भ में पूछा तो, भगवान का उत्तर ठीक उल्टा था। भगवान् कृष्ण अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में कहतें हैं,
"पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न ही कल्याण कृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ "
-भगवत गीता ६/४०
"हे पार्थ ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न ही परलोक में। क्योंकि आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता अर्थात उसका नाश नहीं होता "
इसका मतलब, साधक के द्वारा की गयी भक्ति का कभी नाश नहीं होता, और वही भक्ति साधक को भी नाश से बचाती है। एक क्षण के लिए भी भगवान के प्रति की गयी भक्ति, जीव के पास हमेशा-हमेशा के लिए रह जाती है। ऐसी भक्ति सनातन रहती ही नहीं वरन समय के साथ-साथ बढ़ती भी रहती है और जुड़ती भी रहती है। आप संसार में कोई भी कर्म करें, चाहे पुण्य करें या पाप करें, वो अपना फल दे कर ख़त्म हो जाता है। यदि आपने पुण्य किया, तो अच्छा फल मिलगा और यदि कोई पाप किया, तो उसके अनुरूप बुरा फल मिलेगा। कर्म के अनुसार फल मिलना तय है, और अनुकूल फल देने के बाद, वो कर्म भी समाप्त हो जाता है। जैसे आप ने अच्छे कर्म किये, बहुत समाज सेवा की, और मेहनत कर चुनाव जीत गए। संयोग बैठा और देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन ये भी केवल पाँच वर्षों तक के लिए होगा, पाँच वर्षों के बाद, आप यदि एक दिन के लिए भी चाहेंगें कि प्रधानमंत्री बने रहें, क्योंकि पाँच वर्ष पहले आप ने चुनाव जीता था, तो ये सम्भव नहीं। आप को समय के साथ ही हटना पड़ेगा। हमारे जीवन के हर कर्म हमें ऐसा ही फल देतें हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो सदा-सदा के लिए आप का हो जाये।
तो भगवान कृष्ण कहतें हैं, मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, उसकी भक्ति का कभी नाश नहीं होता। इसी कारण सारे संत-महात्मा, केवल और बस केवल, भगवान के प्रति भक्ति की ही, कामना करते रहतें हैं, इन्हें और कुछ भी नहीं चाहिए। और भगवान की, यह भक्ति बिल्कुल सरल है, इसमें कोई नियम नहीं, कोई शर्त नहीं। बस आपको प्रभु से सन्मुख हो जाना है, उनके शरणागत हो जाना है, बाकीं सब, वो खुद ही कर देतें हैं। आज संसार में आपको भक्ति करने के लिए भी, हजारों नियम-कानून बताने वाले मिल जायेंगें। आप ने बहुतों को कहतें और करते सुना होगा, शंकर भगवान, बेलपत्र चढाने से खुश होतें हैं, विष्णु भगवान के लिए, पीला फूल और फल चाहिए, देवी माँ को खुश करना है, तो एक बार वैष्णोदेवी के दर्शन कर आओ, हनुमान जी को सिन्दूर, गणेश जी को लड्डू आदि न जाने क्या-क्या। पर क्या ऐसा है, क्या भगवान को आपकी, इन सब चीजों जी जरुरत है? नहीं बिल्कुल नहीं! पर आप कहेंगें, "धर्म-ग्रंथों में तो यही लिखा है", हाँ मानता हूँ, धर्म-ग्रंथों में यही है, लेकिन उस समय ये सब मिलना बिल्कुल आसान हुआ करता था। उस समय बेलपत्र, पीले फूल हर जगह मिल जाया करता था,हर समय मिल जाया करता था और वो भी बिना किसी खास परिश्रम के। तो भक्ति के लिए कुछ प्रतीकात्मक चाहिए था, तो धर्म-ग्रंथों में वो सब चीजें बताई गईं, जो कि आसानी ने मिल जाये, सब को मिल जाये, हर समय मिल जाये। मंदिरों में पत्थरों की मूर्तियाँ, नदी का जल, फूल, फल, पत्तियां आदि, ये सब चीजें अनिवार्य नहीं हैं, इनके बिना भी भक्ति की जा सकती है, अगर मिल जाये, अगर हो जाये तो सही, नहीं तो ऐसे भी भक्ति करें, सच्ची श्रद्धा से करें, तो भी आप को पूरा फल मिलेगा। आप की भक्ति मन से होनी चाहिए, संसार की चीजें उसमे शामिल हो जाएँ, तो अच्छी बात, न हो पाये तो भी आप भक्ति करें, पूर्ण शरणागत हो कर करें, भगवान का मिलना तय है। सभी धर्म-ग्रंथों का मूल ज्ञान यही है।
एक और बात, कुछ लोगों को आप ने कहते सुना होगा, अरे इस व्रत में तो बहुत सारे नियम हैं, मुझ से नहीं हो पायेगा। इतना समय कहाँ दे पाऊँगा, पता नहीं सब ठीक-ठीक से हो पायेगा की नहीं आदि-आदि। पर ऐसा नहीं है, भगवान ने भक्ति को सनातन कहा है। आप के द्वारा की गयी थोड़ी सी भक्ति, थोड़े समय के लिए की गयी भक्ति भी, आप को, भगवत-प्रेम के मार्ग में और आगे तक ले कर जाएगी। आप अपने लक्ष्य के, और करीब हो जायेगें। कोई जरुरी नहीं कि पहले ही प्रयास में सफलता मिल जाये, लेकिन इसका मतलब ये नहीं की प्रयास ही छोड़ दिया जाये। और दूसरी बात आप दूसरों से तुलना भी न करें, दूसरों से तुलना भी एक आम बाधा है। अरे! सामने वाला तो दो-दो दिन तक, फलाहार पर ही रह जाता है, अरे! वो तो मीलों पैदल ही दौड़ जाता है, अरे सामने के पड़ोस में रहने वालों ने तो, चारों धाम की यात्रा चार बार कर ली है, क्या करें मुझसे तो कुछ होता ही नहीं। बहुतों बार आपकी ये तुलना भी, आप को भक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने से रोक देती है। बिल्कुल छोटी सी बात है, यहाँ तुलना का कोई सवाल ही नहीं होना चाहिए, आपको किसी और की जरुरत का कुछ भी पता नहीं, उसे कितना दूर और जाना है, आपके पास इसका कोई हिसाब नहीं। और वो कितना कर रहा है, इससे आप को क्या मतलब, आप को, न वो अपनी भक्ति का कुछ अंश दे सकता है, और न आप ही कुछ, उसको दे सकतें हैं। तो फिर आप ये सब सोचना छोड़ें। आपको जिस प्रश्न का हल खोजना है, वह कुछ और है, और आपके सामने वाला किसी और ही प्रश्न का उत्तर लिखे जा रहा है। आप क्यों उसकी नक़ल करने की कोशिश कर रहें हैं, और नक़ल कर भी लिए, पूरा का पूरा, उसी का उत्तर लिख के आ भी गए, तो भी कुछ नहीं होगा, तो भी आप का उत्तर गलत होगा, आप तब भी असफल ही रहेगें। तो तुलना करना छोड़ें बिल्कुल ही छोड़ें, जितना बन पाये आप से आप करें। भगवान् तक आप की प्रार्थना अवश्य ही पहुंचेगी।
एक छोटी सी कथा याद आ रही है, शायद आप में से कुछ ने सुन रखी हो। रामायण की कथा है, जब पता चला, रावण ने माँ सीता को हर कर, लंका में रखा है, तो भगवान राम ने, अपनी वानरी सेना के साथ, लंका जाने का विचार किया। लेकिन विशाल समुद्र रास्ता रोके खड़ा था, फिर तय हुआ कि, समुद्र पर एक पुल बनाया जाये। सबने मिल कर काम शुरू कर दिया। कोई बड़े-बड़े पत्थर ला कर समुद्र में रख रहा था, तो कोई वृक्ष की बड़ी-बड़ी डालियाँ, कोई रास्ता बनाने का काम कर रहा था, तो कोई पत्थरों को सलीके से रखने का, कोई-कोई तो पुरे का पुरे पहाड़ ही ला-ला कर समुद्र में डाल दे रहे था। जिसे देखिये वही अपने-अपने काम में लगा था, दिन-रात काम चल रहा था। एक दिन की बात है, लोगों ने कुछ अजीब देखा, देखा एक नन्हीं गिलहरी रेतों पर जाती है, अपने शरीर को वहाँ, रेतों पर रगड़ती है, फिर जहाँ पुल बन रहा था, वहाँ पर जा कर, अपने बालों पर चिपके रेत के कणों को झाड़ देती है। फिर वापस रेतों पर जाती है, दिन भर यही सिलसिला चलता रहता था। सब लोगों को आश्चर्य हुआ, जहाँ पुरे के पुरे पहाड़ समुद्र में समा जा रहे थे, वहाँ इस छोटी सी गिलहरी के द्वारा लाए गए कुछ एक रेत के कण से क्या होगा। आपस में कानाफूसी होने लगी, और बात बढ़ते-बढ़ते भगवान राम तक पहुँची। भगवान राम ने गिलहरी के शरीर पर, प्यार से हाथ फेरा और सबको समझाया, "आप सब के जैसा ही, इसका भी काम है। इसकी चेतना, इसकी इच्छाशक्ति में जरा सी भी कमी नहीं है। अतः इसका फल भी आप सब के समान ही होगा, तनिक भी कम नहीं होगा।" जब एक नन्हीं गिलहरी, समुद्र पर पुल बनाने जैसे विशाल काम में, यथाशक्ति मदद कर, भगवान की भक्ति प्राप्त कर सकती है। तो हम सब को, प्रभु ने बहुत सक्षम बनाया है, फिर अगर हम, भक्ति से अभी तक दूर हैं, तो कोई भी कारण जो आप बतातें हैं, वो बस हमारा बहाना मात्र है। हम भगवान कि भक्ति करें, जितनी हो सके करें, निरंतर करें। अंत में अवश्य ही भगवान मिलेगें, उनकीं दिव्य भक्ति मिलेगी। फिर आप के सारे कर्म बंधन ख़त्म होगें, सारे दुखों से छुटकारा मिलेगा। परम शान्ति मिलेगी, सनातन आनंद मिलेगा। सब मंगल होगा, सब कल्याणमय होगा। हरि ॐ ॥
" अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शव्श्रच्छान्तिम ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ "
-भगवत गीता १०/३०-३१
"यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है , क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अंन्य कुछ भी नहीं है ।
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त (कभी )नष्ट नहीं होता । "