गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

"साधना-पथ"

"साधना-पथ" वेदों ने जीवों के कल्याण का एक मात्र उपाय बताया है और वो है भगवत-भक्ति का मार्ग, साधना का मार्ग, हमारी साधना कैसी हो, हम किन रास्तों का सहारा लें, और इस साधना पद में क्या कठिनाइयाँ होगी, कैसे हम इस पथ पर निरंतर आगे बढ़ सकते हैं, (प्रभु कृपा से )कैसे जाने की हम सही रह पर हैं या नहीं आदि आदि  
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"भगवांन की सर्वव्यापकता"

नाम रूप लीला गुण और धाम, और इस में एक और भी जोड़ लें भगवान के भक्त। "भगवांन की सर्वव्यापकता"। वेद ब्रह्म को अनंत अनादि सर्वव्यापक आदि-आदि से इंगित करता है,  वेद में वर्णित है ॐ  पूर्ण मिदम्। ... नाम रूप लीला गुण  धाम सब में भगवान का ही रूप है 
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"भगवत-भक्ति में उपासना का महत्त्व"

"भगवत-भक्ति में उपासना का महत्त्व" हरि ॐ,  आज की चर्चा में आप सभी विज्ञ जनों का स्वागत है। आप सभी ने भाग-दौड़ भरे इस जीवन में अपने लिए तोड़ा समय निकला, इसके लिए आप सभी को साधुवाद देता हूँ।आज का विषय है "भगवत-भक्ति में उपासना का महत्त्व"।
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रविवार, 11 अक्तूबर 2015

"निष्काम भक्ति क्यों?" : भाग - २

                                                                                                               "भाग १" से आगे
           निष्काम भक्ति क्यों? कामना रहित भक्ति क्यों? पिछली चर्चा में हमने देखा, हम सबको भगवत भक्ति करनी चाहिए, पर हमारी भक्ति, भक्ति होनी चाहिए व्यापार नहीं। भगवान की भक्ति इसलिए नहीं करें कि वो आप की सारी मनोकामनाएं को पूर्ण करें। वो आपको धन-दौलत, गाड़ी-घर आदि दें। बल्कि भगवान की भक्ति, उनको सर्व शक्तिशाली, सारे ब्रह्माण्ड का एकमात्र कर्ता-धर्ता, और हम सबका पालनकर्ता पिता मान कर करें। उनसे प्रेम सहज और सरल होना चाहिए, किसी दिखावा या बाह्य आडम्बर के लिए नहीं। तो पिछली चर्चा में हमने देखा, जो हम दिन-रात भगवान से कुछ न कुछ मांगते रहते हैं, उसको छोड़ना है। एक तो मांगने से भक्ति, भक्ति न रह कर व्यापार हो जाती है, दूसरी मांगना एक बहुत बड़े खाई के समान है, जिसमें अगर आप एक बार गिरे तो निकलना मुश्किल हो जाता है। यदि आप ने कुछ कामना की, आपने कोई इच्छा की और वह पूर्ण हो गयी, तो फिर आपके मन में एक और कामना जन्म लेगी, फिर आप उसको पूर्ण करने के लिए प्रयासरत हो जायेगें। आप की एक कामना, दूसरी को, फिर दूसरी तीसरी को, तीसरी चौथी को, और ये सिलसिला फिर चलता जायेगा। मनुष्य की कामनाओं का कोई अंत नहीं, ऐसा कुछ नहीं, जिसको संसार में पा कर आप कहेंगें, बस अब और नहीं, अब हो गया। तो आपकी कामनाएं कभी भी ख़त्म नहीं होगीं। यही कारण है, आज सदियों से मनुष्य संसार में भटक रहा है, क्या गरीब क्या अमीर, क्या छोटा क्या बड़ा, हर कोई भाग रहा है, हर कोई एक अजीब सी दौड़ में शामिल हैं, सुबह से शाम तक, दिन से रात तक। तो अगर आप मांगने के रस्ते पर चल पड़े, तो शान्ति  मिलने से रही, आपके भागम-भाग का जो सिलसिला चल रहा है, वह जारी रहेगा। तो ये रही ईच्छा पूर्ण होने की बात, और अगर कभी आपने कुछ माँगा और वह पूर्ण न हुआ तो, उससे मन में विक्षोभ पैदा होगा, और जैसे ही मन में विक्षोभ पैदा हुआ आपकी भक्ति जाती रहेगी, आपकी सारी श्रद्धा जाती रहेगी। यह बहुत ही आम है। आप सब ने देखा-सुना होगा, लोगों को किसी आश्रम से, किसी साधु से विरक्त होते हुए, यहाँ तक की वो पुलिस में शिकायत तक करने पहुँच जातें हैं। ये वही लोग होतें हैं, जो कल तक उन साधु की, उस आश्रम विशेष की गुणगान करते नहीं थकते थे, आज चाहते हैं, पुलिस करवाई कर उनको जेल में बंद करे। बात साफ है जब तक उनकी कामनाएं पूर्ण होती रहीं, तब तक तो सब ठीक था, लेकिन जैसे ही किसी एक कामना में कुछ अरंगा हुआ, सारी भक्ति जाती रही, सारी निष्ठा जाती रही। अब कोई साधु या कोई आश्रम आपकी हर मनोकामना को पूर्ण तो नहीं कर सकता है न। कोई तो छोड़िये वो आपकी एक भी मनोकामना को पूर्ण नहीं कर सकता। उसके पास अपनी कोई शक्ति है ही नहीं, जिससे वह आप के लिए कुछ कर सके। आप की कोई मनोकामना पूर्ण होती है, तो वो केवल और केवल भगवान की शक्ति से ही होता है। लेकिन भगवान जीवों को उसके कर्मों के हिसाब से ही फल देते हैं। और उनके दरबार में कोई भेदभाव नहीं होता, कोई सिफारिस नहीं चलती, कोई रिश्वत काम नहीं करता। तो जहाँ कामना होगी, जहाँ आप मांगने के लिए जायेंगें, कुछ दिनों में वहां से वैराग्य होना तय है, वहां से विरक्ति होनी तय है। मनुष्यों की कामनाएं अनंत हैं और उसके पूर्ण होने की संभावना का एक सीमा है, यह आपके अच्छे कर्मों पर निर्भर करता है। मनुष्य जब तक माया के वष में है, तब तक उसकी कामनाएं बनती रहेंगी और वह संसार मर भटकता रहेगा। तो ये निश्चित है जब आप सकाम भक्ति करेंगें तो आप की कामनाओं के पूर्ण होने की एक सीमा होगी, वो एक न एक दिन अवश्य ही ख़त्म होगा। जिस दिन आपकी कामनाएं पूर्ण नहीं होगीं, उस दिन मन में विक्षोभ होगा, मन में द्वेष पैदा होगा, फिर आपकी भक्ति जाती रहेगी। तो सकाम भक्ति करने वालों का नास्तिक होने की संभावना बनी रहती है। जिस दिन आप की कोई इच्छा पूर्ण नहीं हुई की आपका विस्वास गया, आपका प्रेम गया और आप नास्तिक हुए।  
           और एक बात, जब आप किसी से प्रेम करें और वो भी आप से उतना ही प्रेम करे, तो ऐसे प्रेम में कुछ नया नहीं है। संसार में हर जगह ये देखने-सुनने को मिल जाता है। यहाँ तक की जानवरों तक में ऐसा प्रेम देखने को मिल जाता है।यदि आपको प्रेम में प्रेम न मिले तो भी आप प्रेम करते रहें, ये थोड़ा अलग है, लेकिन ऐसा प्रेम भी कभी-कभार सुनने को मिल जाता है। बिलकुल आम नहीं है, लेकिन होता है, थोड़ा कम लोगों को होता है, पर होता है, एक तरफ़ा प्यार भी होता है। लेकिन बात तो तब होगी, जब आपके प्रेम में आपको दुत्कार मिले, और फिर भी आप प्रेम किये जा रहें हों। ऐसा प्रेम सच्चा प्रेम है, बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी इच्छा के, बिना किसी कामना के। और अगर कभी आपको ऐसा प्रेम भगवान से हो जाये, तो समझिए आप का जीवन सफल हो गया। आपकी भक्ति पूर्ण हो गयी। प्रेम मिले तो प्रेम हो ये आम है, प्रेम न भी मिले, प्रेम के बदले दुत्कार भी मिले, तो भी प्रेम हो, और वैसा ही प्रेम हो, बिल्कुल पहले जैसा प्रेम हो, तो बात बन जाएगी। फिर आप प्रेम के बादशाह होगें, वो प्रेम सच्चा होगा वो भक्ति सच्ची होगी।
           तो आइए निष्काम भक्ति के कुछ और पहलुओं पर विचार करें। फिर से उसी प्रश्न पर विचार करें कि कामना रहित भक्ति क्यों, निष्काम भक्ति क्यों? आखिर क्यों वेदों में, उपनिषदों में और आदि सभी धर्मग्रंथों में, सभी जगह कामना रहित भक्ति करने की बात कही गयी। पर क्या कभी कामना रहित कर्म किये जा सकते हैं? वस्तुतः नहीं, कामना रहित कर्म कठिन है, मुश्किल है, क्यूँकि हम जब भी कुछ कर्म करते हैं, उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य होता है, कोई न कोई मकसद होता है। या यूँ कहें कोई मकसद कोई उद्देश्य ही हमें कर्म करने को प्रेरित करते हैं। जब कोई मकसद न हो, कोई मंजिल न हो तो कर्म करना और करना आसान नहीं होगा। संसार में, समाज में लगभग सारा का सारा काम, किसी न किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए होता है। आपने किसी की मदद करना की, तो बदले में अपेक्षा करना कि वह भी आप की मदद करे, मंदिरों में दान दिए तो, पुण्य कामना और समाज में प्रतिष्ठा पाने का उद्देश्य, बड़ों को आदर दिए, तो अच्छा बनने का उद्देश्य। यहाँ तक की रसगुल्ला खाने में, जीभ की संतुष्टि का उद्देश्य। तो हम जो भी काम करते हैं या करने की सोचते हैं, उसके पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य होता है, कुछ न कुछ कामना होती है कुछ न कुछ मंशा होती है। तो संसार में अच्छे मंशा से अच्छे कर्म करना स्वागत योग्य है। वेदों ने भी वर्णाश्रम धर्म की बात इसी अच्छाई को ध्यान में रख कर की है। संसार सुचारू रूप से चलता रहे इसके लिए यह बहुत जरुरी है, कि हम सब अपने-अपने लिए वर्णित कर्मों को सुचारू रूप से करते रहें। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर वेदों ने ऐसा क्यों कहा, हमारी भक्ति कामना रहित होनी चाहिए? आइये अब इस पर विचार करें। 
           वेदों में जब भी भक्ति की बात आती है, वहाँ हमेशा निष्काम भक्ति की ही बात होती है। भक्ति माने निष्काम भक्ति और कुछ नहीं, इसमें कोई किन्तु परन्तु नहीं। अपनी इच्छओं को ध्यान में रख कर की गयी भक्ति को वेद, भक्ति की संज्ञा नहीं देता। लेकिन वहीं वेद वर्णाश्रम कर्मों के लिए भी कहता है। ऐसा क्यों? तो पहली बात भक्ति कोई कर्म नहीं। भागवत भक्ति के अलावा आप जो कुछ भी करते हैं, वो सब के सब कर्म हैं। जैसे आप दौड़ रहें हों तो दौड़ने का कर्म, सो रहें हो तो सोने का कर्म, पत्थर तोड़ रहे हों तो पत्थर तोड़ने का कर्म। आप कुछ भी करें, वो सब का सब आप के कर्मों में जुटता जाता है। आप पूछेगें जो सब कुछ छोड़-छाड़ कर जंगल चला गया, हिमालय चला गया, उसका तो कोई कर्म नहीं होगा। नहीं ऐसा नहीं है, उसका भी कर्म होता है, अपने निहित कर्म, न करने का कर्म। आप कुछ न भी करें, तो भी वह न करना आपके कर्मों में गिना जायेगा। ऐसा इसलिए क्यूंकि, आपको यह मानव शरीर कुछ निश्चित कर्मों को करने के लिए दिया गया है, नहीं करेगें तो, न करने का कर्म तो जुड़ेगा ही। मनुष्य योनि में आप बिना कर्म किये एक क्षण को भी नहीं रह सकते हैं। तो आप कहेगें बात तो वहीँ की वहीँ रह गयी, कर्म किये बिना रह नहीं सकते, और बिना उद्देश्य के कर्म हो नहीं सकता तो फिर निष्काम भक्ति का क्या मतलब?
           नहीं ऐसा नहीं है। भगवान के प्रति की गयी भक्ति, कर्म नहीं होती, बल्कि यह तो आपको कर्मों और उसके संचित फलों से मुक्ति दिलाने वाली होती है। इतना ही नहीं, भगवत भक्ति से आप सदा के लिए, अपने दुखों से छुटकारा पा सकते हैं, और उस असीम आनंद को पा सकते हैं, जिसके लिए आप जन्मों-जन्मों से भटक रहें हैं। किसी कामना से किया गया कर्म, एक प्रकार का व्यापार होता है, जिसमें आप एक हाथ से देतें हैं और दूसरे हाथ से लेतें हैं। और इस संसारीरक व्यापार में जो कुछ भी अच्छा या बुरा कमाया जाता है, जीव को उसी के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं। लेकिन भगवान की अनन्य भक्ति, कामना रहित भक्ति आप को सारे कर्मों से मुक्त कर देती है। वह कामना रहित भक्ति ही है, जो कि भगवान के माया से पड़े है और आप को भी माया से पड़े ले जाने में सक्षम है। मनुष्य की कामनाएं अनंत हैं और कर्म फल निश्चित, इस कारण आप की सारी कामनाएं पूर्ण नहीं हो सकती, और उन कामनाओं को पूर्ण करने के चक्कर में आप और कर्म बंधन में फसते जाते हैं। ये सिलसिला कभी न ख़त्म होने वाले चक्र में चलता रहता है और जीव जन्म दर जन्म दुःखों और कष्टों को भोगता, संसार में भटकता रहता है। कामना रहित भगवान की अनन्य भक्ति ही एक मात्र रास्ता है, जिस पर चल कर आप इन सबों से मुक्त हो सकतें हैं, और भगवतानन्द को प्राप्त कर सकते हैं।
           तो भागवत भक्ति करें और वो भी बिना किसी इच्छा और कामना को लिए। अवश्य ही आप को भगवत प्राप्ति होगी। अब एक सवाल उठता है, कामना रहित भक्ति का प्रारंभ  कैसे हो, अब चूँकि इतने जन्मों से संसार व्यापार में लगें हैं, इतनी आसानी से ये छूटती नहीं। बात बिलकुल सही है, कामना रहित भक्ति करना थोड़ा मुश्किल तो है, आदत जो हो गयी है, पर ये नामुमकिन नहीं। आप शुरू तो करें, अपने भरोसे नहीं, भगवान की शक्तियों के भरोसे, आप भक्ति के मार्ग पर पहला कदम तो बढ़ाएं फिर भगवान स्वयं आपको रास्ता दिखलाते जायेगें। आप शुरू-शुरू में इच्छा या कामना रख सकते हैं, लेकिन वो कामना और इच्छा भी भगवत भक्ति का ही हो। जैसे साधु-संतों का दर्शन हो, भगवत नाम-संकीर्तन का लाभ मिले, किसी भी प्रकार मंदिरों तीर्थों में जाने का सौभाग्य प्राप्त हो आदि। कुछ कामना भी हो तो वो भी भगवंत भक्ति के लिए ही हो। फिर धीरे-धीरे इन कामनाओं का भी त्याग करें। दयालु प्रभु आपकी हमेसा सहायता करेगें। सब का कल्याण हो, सब सुखी हों, सब आनंदमय हों, सब जगह शांति हो। हम सब यही प्रार्थना करें, सब मंगलमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरि ॐ, हरि ॐ,  हरि ॐ॥      
"अरथ न धरम न काम रूचि , गति न चहउँ निरबान । 
जनम जनम रति राम पद, यह बरदानु न आन  ॥ "
- रा . च . मा . २/२०४   
"मुझे न अर्थकी रूचि है,न धर्मकी ,न  कामकी  और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ । जन्म-जन्ममें मेरा श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम हो,बस यही वरदान माँगता हूँ,दूसरा कुछ नहीं "
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रविवार, 4 अक्तूबर 2015

"निष्काम भक्ति क्यों?" : भाग - १

           जय-जय श्रीसीताराम! आज की भगवत चर्चा में आप सभी भक्तों का स्वागत करता हूँ। आज का प्रश्न है,"निष्काम भक्ति क्यों?" बहुत ही विवेकपूर्ण और निश्छल स्वाभाव से पूछा गया प्रश्न है। आइए हम सब आज की चर्चा को शुरू करें और विचार करें कि हमारी भगवत भक्ति निष्काम क्यों होनी चाहिए? निष्काम का सीधा सा मतलब है, कामना रहित, बिना किसी इच्छा के, बिना किसी माँग के। 
           तो माँगना क्यों? आप सबों ने देखा होगा, लोग मंदिरों में जाते हैं और भगवान से तरह-तरह के सामान मांगते हैं, कोई कहता है, भगवान बहुत सारा धन दिला दो, कोई कहता है परीक्षा में पास करा दो, किसी को बड़ा घर, तो किसी को बड़ी गाड़ी और भी न जाने क्या-क्या लोग मांगते हैं। मांगना तो छोड़िये, यहाँ तक की भगवान को प्रलोभन तक देना आम बात है। ये काम करा दो, तो दो नारियल चढ़ाऊँगा, वो काम करा दो, अगले महीने से मंगलव्रत करूँगा, पहाड़ चढूँगा, नदी तैर जाँऊगा, आग में कूद जाऊँगा आदि-आदि। आप को क्या लगता है, सर्वशक्तिमान भगवान को आप बस दो नारियल में ही काम करने के लिए मना लेगें। भाई मेरे, कम से कम, काम का सही मेहनताना तो देने की बात करो। यहाँ काम होने का स्वार्थ तो है ही साथ ही साथ, ये भी लगता है दो नारियल चढाने से लोग और समाज भी तो कहेगा, बड़ा धार्मिक है, हर मंगलवार मंदिर में दो नारियल चढ़ाता है, थोड़ी प्रतिष्ठा और बढ़ जाएगी। और यदि इज्जत-हफजाई का स्वार्थ न भी हो तो, कौन से भगवान नारियल खाने वाले हैं, चढाने के बाद पुजारीजी तो हमें ही देगें। अपना सामान अपने घर में, फिर क्या चिंता चढ़ाओ दो-चार नारियल, काम हुआ तो हुआ, नहीं हुआ, तो भी अपना क्या गया। तो लोग मांगते हैं दिन-रात, सुबहो शाम, मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों और गिरिजाघरों में हर जगह, एक जैसे। हर जगह एक जैसी भीड़, लम्बे-लम्बे कतारों में लोग घंटों खड़े रहते हैं।
           अगर आप भगवान को मानते हैं, सच्चे हृदय से मानते हैं, आप मानते हैं कि वे सारे ब्रह्माण्ड के एकमात्र कर्ता -धर्ता हैं, अगर आप मानते हैं वे एक ही, सब की इच्छाओं को जानने वाले, सब के कर्मों का हिसाब रखने वाले, और सारी सृष्टि को सुचारू रूप से चलने वाले हैं। तो फिर उस एक से फिर मांगने की कहाँ जरुरत रह जाती है।क्या आप को लगता है, उन्हें आपकी जरुरत का कुछ पता नहीं होता है? और आप के मंदिरों में जा कर मांगने से ही उन्हें पता चलता है। नहीं ऐसा नहीं है, उन्हें हर चीज पता होती है, आपके हर पल के, सोच की, वो खबर रखतें हैं। आप उनसे जा कर मांगें, तो ही उन्हें पता चलता है, ऐसा नहीं है। अगर ऐसा होता तो गूंगे लोगों की तो कोई भी बात भगवान नहीं सुन पाते, उनकी कोई भी मनोकामना पूर्ण नहीं हो पाती, क्योंकि वो बोल कर मांग नहीं सकते। पर ऐसा नहीं होता, जिनकी आवाज नहीं होती, उन्हें भी भगवान की कृपा प्राप्त होती है, और वैसी ही होती है, उतनी ही होती है, जितनी किसी बोलने वाले की। जो पहाड़  नहीं चढ़ पाते, जो मंदिरों तक नहीं जा पाते, जो सुन नहीं पाते, जो देख नहीं पाते, उन सब की भी इच्छाएं पूर्ण होती है, उन सब पर भी भगवान कृपा करते हैं, भगववान के यहाँ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। भगवान को हर किसी की खबर होती है, हम इन्सानों की बात तो छोड़िये, छोटे-छोटे जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, यहाँ तक की, पेड़-पौधों तक का भी ख्याल रखते हैं। तो ऐसे सर्व शक्तिमान भगवान से आपके मन की बात छुपी रहे, ऐसा कैसे हो सकता है। आपके हर एक पल के सोच की उन्हें खबर होती है। आपकी हर जरुरत से वो वाकिफ होते हैं। उन्हें पता होता है कि आपको कब, कितना और कैसे दिया जाये और वो हमेसा वैसा ही करते हैं, उतना ही देतें हैं, और ठीक समय आने पर ही देतें हैं। आपको इसका कुछ भी पता नहीं चलता, उनकी मदद कब और कैसे आपको मिल जाती है, आप सोच भी नहीं पाते। और ऐसा केवल आपके साथ ही नहीं वरन हर किसी के साथ होता है, भगवान की करुणा-दया हर किसी को मिलती है, हर समय मिलती है। सब कुछ उन्हीं का तो खेल है, फिर क्यों इस मंदिर से उस मंदिर, इस जगह से उस जगह हम मांगते फिरते हैं। इसके वजाय क्यों न, हम उन परमपिता परमेश्वर को, जो की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में विराजमान हैं, धन्यवाद दें इस सुन्दर से जीवन के लिए, शुक्रिया करें क्यूंकि उन्होंने करुणा और दया कर हमें इतना कुछ दिया है। तो आइए  हम मांगना छोड़ें। हमारे मंदिरों में भी ऐसे सूचनापट होने चाहिए ,


अगर आने वाले दिनों में आप को मंदिरों में ऐसे सूचनापट दिखें तो इसमें आश्चर्य नहीं मानियेगा। वास्तव में हर एक मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों या यूँ कहें, भगवान के हर एक घर में ऐसे सूचनापट होने चाहिए। वहाँ न मांगने की व्यवस्था होनी चाहिए। तो हम मांगना छोड़ उनकी सच्ची भक्ति करें , उनमें ही मन को लगावें और जितना संभव हो सके, बिना कर्मों में लिप्त हुए, केवल उनकी इच्छा को मानते हुए कर्म करें। चूँकि इस मानव शरीर में आप एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकते, तो उनकी इच्छा को परम स्वभाग्य मानकर उन्हीं के अनुसार कर्म करें, बिना किसी फल की आशा किये। इसप्रकार आपको कभी भी मांगने की जरुरत नहीं होगी, क्यूँकि  उनकी करुणा आप की इच्छाओं से बढ़ कर है। वे अपने बच्चों को हमेशा अपनी ही छाँव में ही रखते हैं।
           तो अगर आप भगवान को मानते हैं, तो आप को मांगने की कोई जरुरत नहीं। और अगर आप उनको नहीं मानते हैं, अगर आप नहीं मानते कि इस सारे ब्रह्माण्ड को चलने वाले वो ही एकमात्र हैं, अगर आप उन परम शक्तिमान को नहीं मानते। तो भी, आप को उनसे मंदिरों में जा कर मांगने की कोई जरुरत नहीं, क्योंकि फिर आपके लिए मंदिरों में रखी मूर्तियाँ भगवान न होकर केवल मूर्तियाँ बस भर होगीं। फिर आप के लिए बच्चों के खिलौने और मंदिर की मूर्तियों में कोई अंतर नहीं होगा। जैसे बच्चे खिलौनों से कभी कुछ नहीं मांगते, वैसे ही आप भी उन मंदिर की मूर्तियों से कभी कुछ नहीं मांगेंगे। बच्चे खिलौनों के साथ चाहे जितना खेल लें, लेकिन उन्हें जब खुछ चाहिए होता है, वो अपने माता-पिता के पास ही जाते हैं, खिलौनों से कभी कुछ नहीं मांगते। तो अगर आप भगवान को नहीं मानते, तो भी आप को मंदिरों में जा कर कुछ मांगने की जरुरत नहीं।  दोनों ही स्थितियों में आपको मांगने की जरुरत नहीं। तो जब आप भगवान को नहीं मानते तो उनकी मूर्तियों को क्या मानना? वो मूर्तियां तो आपके लिए बस पत्थर ही पत्थर की होगीं, फिर वो भला आपकि इच्छाओं, कामनाओं को कैसे पूरा कर सकतीं हैं। तो यहाँ भी आपको मांगने की जरुरत नहीं।
           आखिरी बात, कुछ लोग कहते हैं, अपना समझतें हैं, तभी तो मांंगते हैं। वो भगवान सर्वशक्तिमान और हम बिलकुल दीनहीन, तभी तो मांगते हैं। इनकी बात कुछ हद तक सही लगती है, लेकिन फिर ये तो स्वार्थ हो गया न! और भक्ति में स्वार्थ कहाँ? भक्ति में, स्वयं के लिए नहीं अपने स्वामी के सुख के लिए प्रयत्न करना चाहिए होता है। थोड़ा तुम दो थोड़ा मैं देता हूँ, ये लेन-देन, आप का मांगना, सब तो फिर व्यापार हो गया न, फिर भक्ति कहाँ रह गयी? आप की इच्छाएँ भक्ति के मार्ग की बाधक हैं, इनसे आप जितने दूर रहेगें, भक्ति के मार्ग पर आपके कदम उतने ही सटीक होगें, मजबूत होगें, दृढ़ होगें। तो मांगना छोड़ें, अपनी कामनाओं को छोड़ें, चाहे वो जिस किसी भी प्रकार का क्यों न हो, चाहे वह कुछ भी क्यों न हो।
           फिर आप के लिए बस एक चीज रह जाएेगी, और वो है भगवान को जानने की, उनकों जानकर, प्राप्त कर, अनुभव करने की। तो आप प्रयत्न करें की कैसे उनको जाना जाय, और जैसे-जैसे आप उनको जानने लगेगें, वैसे-वैसे आप उनकी भक्ति करने लगेगें। दोनों साथ-साथ होगा, ऐसा कोई नहीं जो उनको जानकर, उनकी भक्ति न की हो, ऐसा हो नहीं सकता, या यूँ  कहें उनको वही जान सकता है, जो उनका भक्त हो। उनको वही जान सकता है, जिस पर स्वयं उनकी कृपा हो। तो जानना और भक्ति साथ-साथ होती है। और जैसे-जैसे आप उनको जानेगें, उनकी भक्ति करेगें, उनका अनुभव करेगें, वैसे-वैसे आपके सारे दुःखों और कष्टों का नाश होते जाएगा, आपको सुख और आनंद की प्राप्ति होते जाएगी। फिर आपका जीवन स्वयं में ही खिल उठेगा, और जिसकी सुगंध से आप तो सराबोर होगें ही, आप के आसपास के सारे लोग, समाज भी लाभांवित होगें। तो अब अगली बार जब भी आप मंदिर जाएँ, जब कभी भी मंदिर जाने का मौका मिले, तो वहाँ  कुछ देर प्रेम से शांति से बैठें, कुछ मांगने-वांगने के लिए नहीं, बस प्रेम से बैठें किसी शांत जगह पर, आराम से बैठें। भगवान के सामने शांत बैठ कर कुछ अपनी सुनावें, कुछ उनकी और सुने, कोई मन में इच्छा लिए नहीं, कोई कामना लिए नहीं, बस वैसे ही सुनावें जैसे कोई बच्चा विद्यालय से आ कर दिन भर की बातें माँ को बताता है। पता है उनको, सब पता होता है लेकिन आप बतावें क्यूंकि वो आपके सच्चे चाहने वाले हैं। आप को अच्छा लगेगा, आप मन ही मन सुनावें और उनकी भी सुनें, मजा आएगा, आनंद आएगा। जब आप मांगने जाते हैं, मंदिरों में तो बस आप हड़बड़ी में होतें हैं, कैसे जल्दी से जल्दी भगवान के पास जाएँ, जल्दी से जल्दी अपना मांग रखें और फिर जल्दी से जल्दी निकल जाएँ, बिलकुल हड़बड़ी में होते हैं। तो अगली बार जब कभी मंदिर जाएँ, तो थोड़ा बैठें भगवान के सामने और बातें करें, अपनी तो बहुत दिन सुनाये, कुछ उनकी भी सुने। जो कुछ भी आप के मन में हो बिलकुल भी न छुपाएँ, ऐसे भी उनसे कहाँ कुछ छुपता है। तो शांत हो कर कुछ देर बैठें। फिर चमत्कार होगा, आप स्वयं अनुभव करेगें। प्रेम और करुणा की बरसात होगी। फिर आपके लिए उनके भंडार खुलेगें, फिर सबकुछ मंगल होगा। तो आइये हम सब मिलकर उनके सन्मुख हो जाएँ, प्रार्थना करें, उनको पुकारें, फिर वो भगवन अवश्य ही हम अब पर दया करेगें, करुणा करेगें और अपनी ज्ञान शक्ति से हमारे सारे अज्ञान को हर लेगें, जिनसे हम उनको जान पायेगें और उनकी भक्ति कर सकेगें। आज के लिए इतना ही। हरि ॐ ॥
"बचन कर्म मन मोरि गति, भजनु करहिं निःकाम । 
तिन्ह के ह्रदय कमल महुँ,  करउँ   सदा  बिश्राम ॥ "
- रा. च. मा. ३/१६ 
"जिनको कर्म,वचन और मनसे मेरी ही गति है;और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं,उनके हृदय-कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ "
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"निष्काम भक्ति क्यों?" - भाग -२
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बुधवार, 30 सितंबर 2015

"समदर्शी भगवान"

           जय श्रीकृष्ण! आज की चर्चा में आप सभी लोगों का स्वागत है। आज का प्रश्न है,"वेदों ने भगवान को समदर्शी बताया है। भगवान सारे जीवों को सदा एक भाव से ही देखते हैं, उनके यहाँ कोई राग-द्वेष नहीं, कोई भेद-भाव नहीं, कोई ऊँँच-नींच नहीं। उनके सामने हर कोई एक जैसा है। उनके दरबार में बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब, गोरा-काला, आदि कुछ भी नहीं चलता। भगवान ने स्वयं इस बात को मानस में कहा है, "समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ। "रा. च. मा. -४/२/८। । तो फिर ऐसा क्यों है, कोई पहले उनको पा लेता है, कोई कुछ-एक जन्मों में जा कर उनके दर्शन कर पाता है और कोई-कोई जन्म-जन्मान्तर बीत जाने पर भी उनसे दूर ही रहता है। जब भगवान समदर्शी हैं, तो ऐसा क्यों होता है। हर किसी को उनकीं कृपा अलग-अलग समय में प्राप्त होती है। इसका क्या कारण है?" 
           बहुत ही गूढ़ और अच्छा प्रश्न है। वेदों, उननिषदों तथा, और जितने भी धर्म-ग्रन्थ हैं, सब ने भगवान को समदर्शी बताया है। सारे संत-महात्मा भी भगवान को ऐसा ही बताते-कहते हैं। लेकिन संसार में हमें ठीक इसका उलटा दीखता है, किसी पर भगवत कृपा की बरसात होते रहती है और कोई एक-एक बूंद के लिए तरसते रहता है। कोई भगवान के बिल्कुल सानिध्य में है, तो कोई उनसे बहुत-बहुत दूर। ऐसा होने का क्या कारण  है, ऐसा क्यों होता है? आज हम सब इस पर चर्चा करेगें, और इसका कारण जानने की कोशिश करेगें। आइए आज की चर्चा शुरू करते हैं। भगवान स्वयं आनंदमय हैं, आनंद के स्वरुप हैं। इसकारण उनके समक्ष दुःख और द्वेष की कोई बात नहीं हो सकती। जो स्वयं सुख का सागर हो, उसके पास भला दुःख कैसे हो सकता है, जो स्वयं में अद्वितीय प्रकाश-पुंज्य हो उसके पास भला अंधेरा कैसे रह सकता है। साथ ही साथ भगवान सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ हैं, ऐसा कुछ भी नहीं जो वो कर नहीं सकें, जो वो दे नहीं सकें। मानस में एक प्रसंग आया है,
"काकभसुंडी मागु बर, अति प्रसन्न मोहि जानि । "
 - रा. च. मा.  -७/८३'
"हे काकभुशुण्डि!तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग "
"आजु देउँ सब संसय नाहीं । मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥ "
 - रा. च. मा.  -७/८३/२ 
"ये सब मैं आज तुझे दूँगा,इसमें संदेह नहीं । जो तेरे मन भावे,सो माँग ले "
इस कारण वो किसी से कोई राग-द्वेष नहीं करते, सभी जीवों को सदा एक भाव से ही देखते हैं। जरुरत ही नहीं, वे तो स्वयं में पूर्ण हैं। तो फिर संसार में जो जीवों को भगवान की कृपा अलग-अलग समय में मिलती है, उसका कोई और कारण होगा। वो कारण भगवांन नहीं ये तो तय हुआ। फिर अब हमें ये देखना है की भगवान की कृपा अलग-अलग मिलने का वो कौन सा कारण है। अब चूकिं कृपा देने वाले भगवान और लेने वाले हम जीव हैं, और अगर अलग-अलग कृपा के लिए भगवान कारण  नहीं हैं, तो फिर हम जीव ही हैं जो कि भगवान की कृपा को नहीं ग्रहण कर पा रहें हैं। भगवान की करुणा तो एक भाव से हर जगह बरस रही है, पर हम सब जीव अपनी आदतों और स्वाभाव वश, उन दयालु-कृपालु प्रभु से अब तक विमुख हैं। उदाहरण के लिए समझें, जैसे कक्षा में कोई शिक्षक एक पाठ पढ़ाता है, सारे बच्चों को वह एक ही भाव से पढ़ाता है, और कोई तरीका भी तो नहीं कि एक ही कक्षा में एक ही पाठ अलग-अलग ढंग से पढ़ाया जाये। वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर पायेगा। तो वह शिक्षक एक भाव से पाठ पढ़ाता है, पर कक्षा का हर बच्चा उस पाठ को अलग-अलग ढंग से समझता है। और इसका कारण है कि बच्चे ने कितनी तन्मयता से उस पाठ को सुना और समझा। जो बच्चा जितना ध्यान उस पाठ पर देता है, उसे उतना समझ में आता है। शिक्षक तो वही है, पाठ भी उसने एक सा ही पढ़ाया पर हर बच्चे ने उसे अलग-अलग ग्रहण किया। ठीक इसी प्रकार भगवान की भी करुणा सब जीवों पर एक सी ही होती है, किस को कितना मिलता है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसनें कितनी तन्मयता से, कितने विस्वास से उसको ग्रहण किया। तो ये हम पर निर्भर करता है कि हम भगवान की कितनी कृपा ले पते हैं।  
           एक कथा याद आ रही है, एक बार नारद मुनि भगवान के प्यारे नामों का गुणगान करते हुए किसी जंगल से गुजर रहे थे। वह जंगल बहुत ही सघन और निर्मल था, और भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़-पौधे से भरा पड़ा था। बहुतों प्रकार के जीव-जन्तु, उसमें स्वछंद विचरण किया करते थे। सुन्दर-सुन्दर पहाड़, नदी और झड़ने उसकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। उस वन में हर जगह शांति ही शांति थी, बहुत सारे मुनि-महात्मा अपनी-अपनी साधना, तपस्या में वहाँ लीन थे। नारदजी इसी वन से गुजर रहे थे, प्रेम से हरी नाम का गुणगान करते हुए। कुछ दूर चलने पर, नारदजी को रस्ते में एक साधु मिले, कुछ बूढ़े हो चले थे, लग रहा था वर्षों  से तपस्या में लीन थे। दोनों ने एक दूसरे को देख कर अभिवादन किया, एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछा। थोड़ी देर के बाद बूढ़े साधु ने नारदजी से पूछा, "भगवन वर्षों बीत गए तपस्या करते-करते, अब तो शरीर भी बूढ़ा हो चला है। आप तीनो लोकों में बिना रोक-टोक नित्य भ्रमण करते हैं, और तो और आप जब चाहें अपनी इच्छा से प्रभु के धाम जा सकते हैं, उनसे बातें  कर सकते हैं। तो अगली बार जब आप प्रभु से मिलें तो, जरा उनसे पूछियेगा, मेरी तपस्या कब पूर्ण होगी और कब भगवान का साक्षात दर्शन हो पायेगा?" नारदजी ने कहा ठीक है और उन साधु को आस्वासन दे आगे बढ़ चले। कुछ दूर आगे चलने के बाद नारदजी को रस्ते में एक और साधु मिले, जो थोड़े युवा और स्वस्थ थे। लग रहा था अभी कुछ दिनों से ही भगवत भक्ति शुरू की हो। उन्होंने भी नारदजी से वही प्रश्न किया कि भगवान कितने वर्षों की तपस्या के बाद दर्शन देगें? नारद मुनि उनसे भी भगवान से पूछने की बात कह आगे बढ़ चले। कुछ दिनों बाद एक बार फिर नारदजी उसी वन से गुजरे। आगे चलने पर उन्हीं बूढ़े साधु से भेंट हुई। उन साधु ने नारदजी से पूछा कि भगवान से मेरे बारे में आपकी बात हुई थी? तो नारदजी ने कहा, हाँ हुई थी, भगवान ने कहा है, अगले १०० वर्षों की तपस्या के बाद वो आपको दर्शन देगें। १०० वर्षों की बात सुन वो साधु थोड़े उदास हो गये। फिर नारदजी उन साधु को ज्ञान और भक्ति की ढेड़  सारी बातें  बतायीं, भक्ति मार्ग का उपदेश दिया, और बहुत प्रकार से समझा-बुझा कर, उनको संतुष्ट कर आगे बढ़े। कुछ दूर आगे चलने के बाद नारदजी को फिर वही युवा साधु मिले, और उन्होंने भी अपने प्रश्न के बारे में नारदजी से पूछा। उत्तर में नारदजी ने भगवान की कही बातें ज्यों का त्यों उन साधु को कह सुनाया। भगवान ने कहा था, इस घने पीपल के पेड़ में जितने पत्ते हैं उतने १००० वर्षों के बाद, तपस्या पूर्ण होगी और फिर दर्शन दूँगा। नारदजी के इतना कहते ही कि भगवान दर्शन देगें, वे युवा साधु भावविभोर होकर ख़ुशी से नृत्य करने लगे, झूमने लगे और भगवान के नामों का जोर-जोर से गुणगान करने लगे। नारदजी को लगा शायद इन्होंने बात को ठीक से समझा नहीं, उन्होंने अपनी बात फिर से दुहराई कि इस पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने १००० वर्षों के बाद भगवान दर्शन देगें। पर वो साधु तो भगवान दर्शन देगें यही सुन कर मस्त हो गए, कितने समय, कितने वर्षों वाली बात पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। उनके लिए तो भगवान दर्शन देगें यही काफी था। वो अपनी ही धुन में मस्त हो नृत्य करते रहे, वो इस बात को भी भूल गए की नारदजी भी वहीं हैं, उन्हें तो बस याद था कि अब भगवान दर्शन देगें, भगवान ने स्वयं कहा कि दर्शन देगें तो अवश्य ही दर्शन देगें और यही उनके लिए काफी था। अब इन साधु की भक्ति का क्या कहना, इनकी तपस्या का क्या कहना, इनकी लगन का क्या कहना, भगवान तत्क्षण वहाँ प्रगट हो गए। उसी क्षण भगवान ने साधु को दर्शन दिया और भक्ति का वरदान दे कृतार्थ किया। इसके बाद नारदजी ने भगवान को प्रणाम कर पूछा, प्रभु आप ने तो कहा था इस पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने १००० वर्षों के बाद भगवान दर्शन देगें, परन्तु आप तो अभी ही दर्शन दे दिया, बिना देर लगाये, बिना किसी तपस्या के, इसका क्या कारण है? अभी ऐसा क्या हो गया, इन साधु ने ऐसी कौन सी भक्ति कर डाली जिस कारण आप तत्क्षण दर्शन को उपलब्ध हो गए? तब भगवान ने कहा, "नारद! जिस क्षण भक्त सब आस-भरोस को छोड़ कर, पूर्ण विस्वास के साथ मेरी शरण में आ जाता है, मैं भी बिना देर लगाये उसी क्षण को उसको उपलब्ध होजाता हूँ। ये मेरा प्रण है। मुझे प्राप्त करने का न तो कोई समय सीमा है और न ही कोई नियम-कानून। बस पूर्ण विस्वास और समर्पण के साथ जब जीव मेरी शरण में आता है, उसी समय मैं उसे अपना बना लेता हूँ। मेरी अनन्य भक्ति ही एकमात्र रास्ता है, जिस से मैं प्राप्त किया जा सकता हूँ। यह भक्ति हर कोई कर सकता है, हर क्षण कर सकता है और इसके लिए कोई शर्त भी नहीं। विस्वासपूर्ण शरणागति और अनन्य भक्ति से मैं सहज ही उपलब्ध हो जाता हूँ।" इतना कह भगवान अंतर्ध्यान हो गए और नारदजी हरि नामों का गुणगान करते आगे बढ़ चले। 
           तो संसार में जो लोग यह कहते रहते हैं, भगवान ने यह नहीं दिया, वह नहीं दिया, उन्होंने ऐसा नहीं करा, उन्होंने वैसा नहीं करा, वो सब उन लोगों का ही दोष है न की भगवान का। भगवान ने तो सब दे रखा है, बस आप पात्र तो बनिए। उन्होंने सारा संसार देने के लिए ही तो बनाया है, वो तो पूर्ण हैं, वो तो करुणा करने के लिए ही हैं, वो तो दया करने के लिए ही हैं। तो हमको जो कुछ भी नहीं मिला उसमें  भगवान की नहीं हमारी अपनी गलती है। चूँक भगवान से नहीं, हमसे हो रही है। हम ही अब तक उस लायक नहीं बन पायें हैं। तो देरी भक्तों से होती है, हम सब जीवों से होती है, भगवान तो बिना देर लगाये हर क्षण को उपलब्ध होतें हैं। विमुखता तो हमने कर रखी है, भगवान तो कब से हम जीवों के आस में बैठे हैं, वो इस इंतजार में बैठे हैं कि कब जीव उनके सन्मुख हो और वो कृपा की बरसात करें। वो तो करुणा और दया करने के लिए ही हैं, देने के लिए ही हैं, बस हम ही उनसे मुँह छुपाये बैठे हैं, तो कल्याण कैसे होगा। वो तो चाहतें हैं कि जीव जल्द से जल्द उनके सन्मुख होकर अपने दुःखों, कष्टों से सदा के लिए मुक्त हो जाये और कभी न ख़त्म होने वाले, प्रति क्षण बढ़ने वाले आनंद को प्राप्त करे। भक्ति के मार्ग में स्वयं भी आगे बढे और दूसरों को भी भक्ति मार्ग के लिए प्रेरित करे। तो देरी हमारी ओर से ही हो रही है, हम ही उलटी दिशा की ओर हैं, हमने ही अपने को संसार से जोड़ रखा है, संसार में ही आनन्द  को खोज रहे हैं, भटक रहे हैं। बस एक बार अगर हम पूर्ण विस्वास के साथ उनकी ओर हो लें, भगवत-भक्ति के मार्ग पर चल पड़ें, तो फिर हमें भगवान की करुणा भी मिलेगी, दया भी मिलेगा और कृपा भी प्राप्त होगी वो भी बिना किसी देरी के। तो जीव भगवान से विमुख होने के कारण  उनकी कृपा से अब तक वंचित है।
           तो भगवान अनंत काल से ही हम सब जीवों पर करुणा की बरसात किये जा रहें हैं, लेकिन हम सब माया के वशीभूत होकर उनकी दया और करुणा को अब तक प्राप्त नहीं कर पाये। जिस क्षण हम सजग हो भगवान के सन्मुख हो जायेगें, भगवान की कृपा हमें उसी क्षण को प्राप्त हो जाएगी और हम सदा के लिए अपने दुखों से मुक्त हो भगवतानन्द को प्राप्त हो जायेगें। भगवान सूक्ष्म रूप से प्रत्येक जीव के हृदय में विराजमान रहते हैं। वो जीव के अनंत जनमों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उसके अनुसार फल भी देते हैं। जीव अपने ही कर्मों के अनुसार संसार में आता और फल भोगता है। भगवान ने ये संसार हम सब जीवों के उद्धार के लिए बनाया है। जीवों को शरीर प्रदान कर कर्म करने योग्य बनाया है। उन्होंने हमें ये जीवन उनकी भक्ति कर उनको ही प्राप्त करने के लिए दी है। पर हम सब मोह के वशीभूत होकर भगवान को ही भूल बैठे हैं और इसीकारण से संसार में नित्य भटक रहे हैं। हम सब जीवों को चाहिए, संसार से प्रेम के बजाय भगवान से प्रेम करें। और अभ्यास के द्वारा भक्ति के मार्ग पर निरंतर चलते हुए भगवान को प्राप्त करें। यह शरीर, यह जीवन, सब भगवान की धरोहर है, जो कि भगवान ने हमें थोड़े से समय के लिए दी है, अपनी भक्ति करने के लिए, अपनेको प्राप्त करने के लिए। समय बीतता जा रहा है, उनकी और से कोई विलंब नहीं, उनकी दया और करुणा में कोई कमी नहीं हो रही है, बस हमें ही थोड़ा सा प्रयास करना होगा, उनके सन्मुख हो उनकी भक्ति करनी होगी। आइए आज से, अभी से हम सब भगवत भक्ति का प्रण करें, फिर सब अच्छा होगा, कल्याणमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरी ॐ ॥
"सब साधन को एक फल, जेहिं जान्यो सो जान। 
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं, राम धरें धनु बान ॥ "
- दोहावली  -९० 
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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

किनको भगवान माने?

           जय श्रीकृष्ण! कभी-कभी कोई छोटी सी घटना, कोई छोटी सी बात, कोई छोटी सी कहानी, आप के मन को छू जाती है, आप को भा जाती है और आप चाह कर भी उसे नहीं भुला पाते। आप सभी ने अपने-अपने जीवन में कभी न कभी कुछ ऐसा अनुभव किया होगा। ऐसे ही कभी-कभी, किन्हीं-किन्हीं साधक का प्रश्न मन को छू जाता है, लगता है कि जैसे, ये आपका अपना ही प्रश्न हो। आज कुछ ऐसा ही हुआ, आज एक साधक ने जो प्रश्न किया, वो मन को छू गया। उन्होंने अपने प्रश्न में पूछा, किनको भगवान माने? कोई कहता है, श्रीराम भगवान हैं, वो मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तो कोई कहता है, अरे नहीं श्रीकृष्ण ही भगवान हैं, वो सोलह कलाओं में निपुण थे, कोई और कहता है, भगवान भोले शंकर को भूल गए क्या, वास्तव में तो वही भगवान हैं, अनादि-अजन्मा और तो और बहुत जल्दी प्रशन्न भी हो जाते हैं, तो कोई और देवी माँ की बात करता है। अब आप बताइये असली भगवान कौन हैं?  कौन से भगवान सबसे बड़े हैं? क्या वो श्रीकृष्ण हैं? क्या वो श्रीराम हैं? क्या भगवान भोले शंकर, या देवी माँ हैं? या इन सबों से अलग, वो कोई और ही हैं? तो आज का ये प्रश्न मन में कहीं बैठ गया। मन को जैसे भा सा गया। इसका कारण है, क्योंकि ये वह प्रश्न है, जो संभवतः अनादि काल से चला आ रहा है, हर युग में ऐसे प्रश्न उभर कर आते रहें हैं। न जाने कितनो के मन में उपजा, न जाने कितनो ने जाहिर किया, और कितनों ने इस पर वाद-विवाद किया। ये वही प्रश्न है, जिस पर अनगिनत बार लड़ाइयाँ हो चूकिं, पूरे शहर के शहर नष्ट हो गए। ये वही प्रश्न है, जो सदियों से हमें धर्म और संस्कृति के आड़ में तोड़ती आ रही है। हमने बहुत कुछ गवाँया है, इस एक प्रश्न को ले कर के। और आज भी समूचा सामाज इसी एक प्रश्न पर ही बटा हुआ है। तो आइए आज की चर्चा में हम सब इस एक प्रश्न पर विचार करें कि, आखिर वो एक भगवान कौन हैं? आज की चर्चा में हम इसको समझने की कोशिश करेगें।   
continue.....

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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

"सम्यक ज्ञान"

           गीता में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं,  "सर्वधर्मान्परित्यज्य..." - भगवत गीता १८/६६, अगर इसका साधारण सा अर्थ देखें  तो लगता है, श्रीकृष्ण कह रहे हैं, सभी धर्मों को छोड़ दो। जहाँ एक ओर धर्म को छोड़ने की बात कर रहें हैं, वहीँ दूसरी और कहते हैं,"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।" - भगवत गीता ४/७, और यहाँ पर लगता है कह रहे हैं, जब-जब धर्म की हानि होती है… तब तब मुझे आना पड़ता है। तो बात उलटी हो गयी न, एक जगह बोल रहें हैं, धर्मों को छोड़ दो, और वहीँ दूसरी जगह बोल रहे हैं, लोग धर्म छोड़ देते हैं इसलिए मुझे समय-समय पर अवतार ले कर आना पड़ता है। ऐसा कैसे? श्रीकृष्ण दो विरोधाभासी बातें कैसे कह रहे हैं? ऐसा कहने का क्या मतलब है। 
           प्रश्न सरल है, सच्चे मन से पूछा गया है और स्वागत योग्य है। अगर आपने निर्मल मन से प्रश्न किया है और उत्तर की आशा करतें हैं, तो भागवत-भक्ति मार्ग के पर आपका स्वागत है, आपने भक्ति के मार्ग पर कदम रख दिया है। जब मन में प्रश्न होगा और जिज्ञासा होगी, तब उत्तर पाने की आशा भी होगी। और आप उत्तर जानने के लिए प्रयत्न भी शुरू करेगें। फिर आप को उत्तर मिलेगा, आपको ज्ञान होगा, ज्ञान होगा तो आप भगवान के सन्नमुख होगें और जब आप भगवान के सन्नमुख  होगें तो सुख-शांति मिलेगी, आनंद  मिलेगा और आप संसार सागर से सदा के लिए पार हो जायेंगे। तो आइए वापस उसी प्रश्न पर विचार करते हैं कि आखिर भगवान दो विरोधी बातें क्यों कह रहें हैं। एक-एक कर के हम इन बातों को समझेगें। 
           तो पहली बात जहाँ भगवान "सर्वधर्मान्परित्यज्य..." की बातें कर रहे हैं, मतलब सभी धर्मो को छोड़ कर, बिलकुल साधारण सा मतलब है, सभी धर्मो को छोड़ कर। सर्वप्रथम यहाँ गौर करने वाली बात है, भगवान धर्मों को ही छोड़ने की बात कर रहें हैं, कर्मों को छोड़ने की नहीं। धर्म और कर्म अलग-अलग हैं, हम लोग इसकी चर्चा आगे करेगें। तो यहाँ भगवान सभी धर्मों को छोड़ने की बात करतें हैं, लेकिन साथ में आगे "मामेकं शरणं व्रज" भी जोड़ते हैं। मतलब सभी धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। धर्मों को छोड़ो पर केवल मेरे लिए। लेकिन भगवान ऐसा भी क्यों कह रहे हैं, धर्मों को बिना छोड़े भी तो उनकी शरण में जाया जा सकता है। हाँ आप की बात सही है, धर्मों को छोड़े बिना भी आप उनकी शरण में जा सकतें हैं, लेकिन धर्मों से जुड़ाव आप को संसार से भी जोड़े रखेगा। और माया के बने इस संसार से किसी भी प्रकार का जुड़ाव, अंत में दुःख का कारण \ ही होता है। और ऐसे भी भगवान अनन्य और केवल अनन्य भक्ति की ही बात करते हैं। तो भगवान कहते हैं, "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। " और संयोग से अगर आपने सब धर्मों को छोड़ कर भगवान के शरण हो लिए तो फिर भगवान की प्रतिज्ञा भी सुन लीजिये, भगवान कहतें हैं "अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।" मतलब मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तो पूरा मंत्र इस प्रकार है, 
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 
"अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। "
- भगवत गीता १८/६६
"सम्पूर्ण  धर्मों को मुझमें त्याग कर, तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेस्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा , तू शोक मत कार ॥ "
तो भगवान धर्मों को छोड़ने की बात तो कर रहे हैं, पर केवल और बस केवल अपनी अनन्य भक्ति के लिए ही। जब कोई भक्त ऐसा करता है तो फिर भगवान उसके सारे कर्मों के द्वारा अर्जित फल को समाप्त कर देते हैं। जब आपके सारे कर्म जनित फल नष्ट हो जाते हैं तो फिर आप माया के बंधन से भी मुक्त हो जाते हैं। और माया के बंधन से मुक्त हो कर भगवत-आनंद की प्राप्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इसकारण भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सब धर्मों को छोड़ कर, मेरे और बस केवल मेरे शरणागत हो जाओ। 
           अब दूसरी बात जिसकी चर्चा हम सब पहले कर रहे थे, भगवान ने धर्मों को छोड़ने की बात की है, कर्मों को छोड़ने की नहीं। इसका कारण  है, इस मानव शरीर में आ कर हम एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकते। आप कुछ करें तो कर्म तो होता है, जब नहीं कुछ करें तब भी न करने का कर्म होता है। जैसे आप सो रहे हों और कहें कि मैं तो सो रहा था, मैंने थोड़े की कोई कर्म  किए। हाँ संसार में यह मान्य है, आप जब सोतें हों तो आप का कर्म नहीं होता। लेकिन अगर थोड़े ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि आप ने सोते हुए भी कर्म  कर रहे थे, सोने का कर्म या यूँ कहें कुछ न करने का कर्म। और जैसे कोई सब कुछ छोड़-छाड़ के जंगल चल जाये तो भी वह उस समय जंगल जाने का कर्म कर रहा होता है। जैसे अगर आप के इलाके में कोई अपराध होता है और पुलिस अपराधी को जानते हुए भी गिरफ्तार नहीं करती, तो आप कहते हैं पुलिस ले कोई करवाई नहीं की। तो ये करवाई नहीं करने का कर्म पुलिस को हुआ। तो कोई भी शरीरधारी जीव, कभी भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता है। आप अच्छे कर्म करें, आप बुरे कर्म करें या आप कुछ भी न करें, सब आप के कर्मों में ही लिखा जायेगा। तो भगवान ने सब धर्मों के त्याग की बात की, कर्मो की नहीं और यहाँ सब धर्मों के त्याग का मतलब है, शास्त्र सम्मत कर्मों के फलों का त्याग, कर्तापन का त्याग। आप कर्मों को तो त्याग नहीं सकते, उसके फलों में अनाशक्त जरूर हो सकते हैं और सारी शक्तियाँ  तो जीव को भगवान से ही प्राप्त होती है, इसकारण कर्तापन का अभिमान भी बेमानी ही है। तो भगवान श्रीकृष्ण कर्म फलों में अनाशक्ति की बात कर रहे हैं। आप कर्म फलों में अनशक्त हुए, कर्तापन को छोड़, उनकी शरण में जाएँ तो आप का तत्क्षण कल्याण होगा। जैसे ही आप का कर्म फलों से लगाव ख़त्म होगा, कर्तापन का अभिमान दूर होगा, वैसे ही आप का मन निर्मल हो जायेगा और जब आप निर्मल मन से भक्ति करेगें तो भगवत प्राप्ति अवश्य ही होगी, भगवान का यह वचन है।
           ये तो हुई धर्मों अर्थात शास्त्र विहित कर्मों की बात, किन्तु जब जीव मूढ़ भाव से ग्रषित होकर, वेद और शास्त्र निषिद्ध कर्मों में लिप्त होता है, तो ऐसे दुराचारियों को ख़त्म करने के लिए भगवान स्वयं अवतार लेते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं। धर्म की रक्षा और अपने भक्तों सो सुख पहुचने के लिए ही भगवान समय-समय पर अवतार लेते हैं। इसी क्रम में भगवान ने ने कहा है, 
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ 
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम । 
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ "
- भगवत गीता ४/७-८ 
"हे भारत,जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होई है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। "
"साधु पुरषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रगट हुआ करता हूँ  "
           तो प्रथमतया जो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भगवान दो विरोधाभासी बातें कर रहें हैं, ऐसा नहीं है। पहले मंत्र में जहाँ सब धर्मों को छोड़ कर शरणागति की बात कर रहें हैं, वहीँ दूसरी और इस सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने के लिए, समय-समय पर अवतार ले कर कल्याण करने की बात कह रहे हैं। दोनों ही बातें दो अलग-अलग सन्दर्भ में कही गयी हैं और दोनों का अलग-अलग भाव है। सब धर्मों को छोड़ कर जब आप, परम दयालु-कृपालु भगवान के शरण में जातें हैं तो भगवान आप के सारे पापों को हर लेतें हैं, उसको ख़त्म कर देतें हैं। जीव जब कर्तापन का अभिमान छोड़ कर भगवान के शरण में जाता है तो वह सारे बंधनों से मुक्त हो, अपने चरम लक्ष्य को पा लेता है, फिर और कुछ करने की जरुरत नहीं रह जाती, और उसके लिए कुछ भी शेष नहीं बच जाता। वह हमेशा-हमेशा के लिए दुखों से निवृत हो संसार सागर से बिना परिश्रम के ही पार हो जाता है। वह सदा भगवत-आनंद में डुबकियाँ लगाते निरंतर भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता ही रहता है। ऐसे जीव सहज ही भगवान और उनकी दिव्य भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
           आइए हम सब भी, कर्म फलों का त्याग करते हुए, बिना कर्तापन का भाव लिए, निर्मल मन से भगवान के शरणागत हो जाएं। फिर सब अच्छा होगा, मंगलमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरि ॐ ॥  
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । 
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोअसि मे॥ "
- भगवत गीता १८/६५ 
"हे अर्जुन!तू मुझ में मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा,यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। "
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सोमवार, 21 सितंबर 2015

"भगवत-भक्ति का प्रारंभ"

           आज एक साधक ने बहुत ही छोटे से ई-मेल कर के पूछा है, " भगवत-भक्ति का प्रारंभ कब करें, कैसे करें और कहाँ से करें?" प्रश्न का स्वागत है, प्रश्नकर्ता को धन्यवाद। ऐसा लगभग हमेसा देखने-सुनने को मिलता है, लोग प्रायः ऐसा सोचते पाये जाते हैं, भक्ति आज से शुरू करें या कल करें, ऐसे करें या वैसे करें, यहाँ करें या कहीं और जा कर करें। ये दुविधा अक्सर लोगों के मन में आती है, आप ने भी लोगों को विचार करते हुए देखा होगा।और ऐसे होने का कारण भी है, भक्ति के लिए, इतने सारे उपाय, इतने सारे रास्ते, इतने प्रकार के तौर-तरीके, आज संसार में बताये जा रहे हैं कि दुविधा होना लाज़मी है। बहुत से तरीके तो विरोधाभासी भी होते हैं, तो लोगों का सर चकराना स्वाभाविक ही है। पर वास्तव में, आपके इस प्रश्न में ही इसका उत्तर भी छिपा है। जिस किसी समय आप के मन में ये विचार आया कि भगवत-भक्ति करनी है, आपकी भक्ति उसी क्षण से शुरू हो गयी, कब, कैसे और कहाँ की बात ही नहीं, जिस किसी पल आप के मन में, भगवान को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई, समझिए आप ने भक्ति के मार्ग पर पहला कदम रख दिया। साधारणतया भगवान की भक्ति क्यों करें? ये प्रश्न पहला प्रश्न होता है। आपने कब, कैसे और कहाँ पूछा, इसका मतलब आप क्यों वाले प्रश्न से ऊपर उठ चुके हैं। आप ने, भगवान की भक्ति क्यों?, को भली भाँति समझ लिया है। आपने पहली बाधा पाड़ कर ली, क्यों का उत्तर जान कर ही आपने परम दयालु को पाने की इच्छा जाहिर की। तो प्रश्न पूछने वाले ने पहले ही भक्ति का प्रारंभ कर लिया है, शुरुआत हो चुकी है, भक्ति की पहली कक्षा में नामांकन हो चुका है, इनकी भक्ति की गाड़ी चल पड़ी है। अब इसमें रफ़्तार देनी है, भक्ति के मार्ग में निरंतर आगे और आगे बढ़ना है। अब प्रयास ये करना है कि कैसे भक्ति की एक कक्षा से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी कक्षाओं में आगे बढ़ा जाय। भक्ति के मार्ग पर आपने पहला कदम तो रख दिया है, अब मंजिल से पहले रुकना नहीं है, इसकी व्यवस्था करनी है। अब वो उपाय करने है जिससे प्रभु से साक्षात्कार हो सके। आज हम सब इसी बात पर विचार करेगें कि भगवत-भक्ति की इस यात्रा को कैसे सुचारू रूप से जारी रखा जाय। कैसे परमपिता परमेस्वर का दर्शन किया जाये। 
           तो आप सब ने देखा, भगवत-भक्ति की शुरुआत तभी से हो जाती है, जब से आप उस परम दयालु को जानने, सुनने और देखने की ठान लेते हैं, उनके दर्शन को ललायित हो जाते हैं। अब इस भक्ति को कैसे दृढ किया जाये, इस पर विचार करते हैं। किसी प्रकार की भक्ति तभी दृढ होती है, जब आप उसको भली भाँति जान कर, सोच कर, समझ कर, उस पर विस्वास कर करते हैं। ऐसे भगवान की भक्ति किसी भी प्रकार से की जाये, फलदाई होती है, परन्तु ये फलदाई तभी होती है, जब ये निरंतर जारी रहे। हम सब भक्ति की शुरुआत तो कर देते हैं, पर दिक्कत तब आती है, जब उसे हम जारी नहीं रख पाते। और जारी नहीं रख पाने का एक मात्र कारण है, विस्वास की कमी। विस्वास की यह कमी भगवान को तत्व से नहीं जान पाने के कारण होती है। जब कभी भी आप भगवान को तत्व से जान जायेगें, स्वतः ही आप का विस्वास दृढ होगा, और प्रेम-भक्ति बढ़ेगी और बढ़ती ही रहेगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में कहा है,
"जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ 
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥ " 
-रा. च. मा. ७/८८/७-८ 
"प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता,विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही ढृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज!जल की चिकनाई ठहरती नहीं "
तो भगवान को भगवान जानकर अगर भक्ति की जाय तो वह भक्ति दृढ होगी। तो अगर भक्ति के मार्ग में निरंतर आगे बढ़ना है तो भगवान को जाना जाए। हमारे सारे धर्म-ग्रंथ भी उन्ही एक को जान लेने की बात करते हैं। तो एक बात तय हुई की भगवान को जानना है, अब उनको कैसे जाने यह पता करना है। आइए देखें, भगवान को कैसे जाना जाए । 
           अभी तक हमने देखा, भक्ति कैसे करें, ही अपने आप में भक्ति का पहला कदम है। और इस भक्ति को निरंतर जारी रखने के लिए, हमें भगवान में पूर्णतः विस्वास होना चाहिए, और पूर्णतः विस्वास तभी हो पायेगा, जब हम भगवान हो तत्व से जानेगें। अब इस बात पर विचार करें कि भगवान को कैसे जाना जाये। किसी भी चीज को जानने के लिए, पहले हमें अपने और आपने आस-पास के बारे में जानना होता है। हमारा ज्ञान कहाँ तक है, इस बात का पता होना चाहिए, तभी हम कितना और जानना है, ये पता कर सकते हैं। और इन सब की जानकारी होने के बाद हम आगे की जानकारी को क्रम से पाते जातें हैं। आइए देखें हम कौन है और कहाँ हैं? जानने के लिए तो केवल भगवान ही हैं पर उनके दो रूप जीव और मायिक संसार को जाने बिना पूर्णता नहीं होगी। continue… 

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शनिवार, 5 सितंबर 2015

"भक्ति का कभी नाश नहीं होता"

           आप सभी को भगवान श्रीकृष्ण के जन्मदिन और शिक्षक दिवस पर बहुत सारी बधाईयाँ और शुभकामनायें। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का यह पावन पर्व, आप सब के जीवन में खुशियाँ और प्रेम की बहार ले कर आए और साथ ही  शिक्षक दिवस पर आप सब, अनादि काल से चले आ रहे गुरु शिष्य परम्परा का सम्मान करते हुए ज्ञान और  सद्मार्ग के पथ पर निरंतर चलते रहें, यही मंगल कामना है। "भक्ति का कभी नाश नहीं होता"। आज एक पत्र आया है, उसमें पूछा गया, "भक्ति का कभी नाश नहीं होता", इसका क्या मतलब है? पत्र लिखने वाले ने अपना  नाम नहीं लिखा और न ही अपने बारे में कुछ बताया, छोटा सा पत्र है, कुछ आध्यात्म की बातें हैं और अंत में  उन्होंने पूछा है, "भक्ति का कभी नाश नहीं होता", इसका क्या मतलब है? पत्र पढ़ कर बहुत ख़ुशी हुई, इसका कारण है, जब उन्होंने कहीं पढ़ा या सुना होगा, भक्ति के सनातन और अनश्वर होने के बारे में, तो मन में थोड़ी जिज्ञासा हुई होगी। और उसी जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश में, उन्होंने ये पत्र लिखा। हर किसी के जीवन में संयोगवश,  भगवत कृपा से ऐसा शुभ समय आता है, जब कुछ ज्ञान की बातें सामने आतीं हैं, उन्हें सुनने और समझने का मौका मिलता है।  लेकिन बहुत कम ऐसे व्यक्ति होतें हैं, जो ज्ञान की उन बातों को अपने अंतःकरण में ला कर, उस पर मनन और चिंतन करतें हैं, तथा प्रयास करतें हैं कि ज्ञान की उन बातों के जड़ तक जाया जाय। तो जब कहीं उन्होंने भक्ति के अनित्य होने  के बारे में सुना होगा तो, उसके मूल को जानने की कोशिश की होगी और जिस कारण उन्होंने ये पत्र लिखा, ज्ञान के मूल को जानने की उनकी यह कोशिश सराहनीय है, वंदनीय है। आइए आज हम लोग इसी विषय पर चर्चा करें कि, आखिर भक्ति को अनित्य  क्यों कहा गया है।
           आगे बढ़ने से पहले, आज आपको महाभारत का एक प्रसंग सुनाता हूँ। आप सभी को कहानी पता है, आप ने पहले भी सुन रखी होगी। महाभारत की लड़ाई शुरू होने वाली थी, दोनों ओर की सेनाएं, कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने थी। हर कोई तैयार था, हर कोई अपने मकसद को पूरा करने के लिए वहाँ खड़ा था। समय था, रण-कौशल दिखने का, अपने शत्रुओं का नाश करने का। इधर दुर्योधन अपनी सेना का मनोबल बढ़ा रहा था और उधर पांडव अपनी सेना और लड़ाई की रणनीति तय करने में लगे थे। तभी धनुर्धर अर्जुन ने भगवान कृष्ण, जो की उस समय सारथि बन कर उस के साथ थे, से कहा, "हे माधव जरा रथ को दोनों सेनाओं  के बीच में ले चलिए, मैं  देख तो लूँ कि किन-किन लोगों के साथ मुझे युद्ध करना है।" फिर जब कृष्ण ने, रथ को दोनों सेनाओं के बीच में रखा तो, विपक्षियों में अपने ही सगे-सम्बन्धियों को देख कर अर्जुन व्याकुल हो गए, उन्हें लगा 'ये मैं  क्या करने जा रहा हूँ, थोड़े से राज-सुख के लिए अपने ही लोगों का वध करूँ, नहीं ये ठीक नहीं होगा।' अर्जुन को मोह से ग्रषित देख, कृष्ण ने अर्जुन को बहुत सारी कर्म, धर्म, ज्ञान, योग, भक्ति आदि की बातें बताई। उत्तर-प्रतिउत्तर का यह दौर लम्बा चला, भगवत गीता के १८ अध्याय में इसी की चर्चा है। इसी क्रम में अर्जुन, भगवान से पूछते हैं,
"अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमनासः । 
अप्राप्य योग संसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ "
-भगवत गीता  ६/३७ 
"जो योग में श्रद्धा रखने वाला है , किन्तु संयमी नहीं है , इस कारण जिसका मन अंतकाल  में योग से विचलित हो गया है ,ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत साक्षात्कार को न प्राप्त हो कर किस गति को प्राप्त होता है । " 
अर्जुन का मूल प्रश्न है कि जिसकी साधना पूर्ण नहीं हुई, ऐसे भक्त की क्या गति होती है। अगर संसार के सन्दर्भ में यही प्रश्न किया होता तो, हम सभी भी इसका उत्तर आसानी बता देते। यहाँ संसार में जब तक कि काम पूरा न हो जाये तब तक आप असफल ही माने जातें हैं। जैसे आप नदी में तैर रहें हों, आप पूछें, जब आधे नदी में हों, नदी के बींचो-बींच हों और आप पूछें कि अब अगर तैरना बंद कर दूँ, तो क्या होगा? जबाब आसान है, कोई बच्चा भी बता देगा कि आप डूब जायेंगें, नदी की तेज धरा आप को बहा ले जाएगी। कोई उपाय नहीं कि नदी के बीच में तैरना छोड़ें और पार  हो जाएँ। और ऐसा भी नहीं की आधा आज तैर लिया और बांकी का आधा कल पार कर लेगें। नहीं, बिलकुल नहीं, ऐसा संभव नहीं, यदि नदी को पार करना है तो एक बार में ही पार करना पड़ेगा। संसार का हर काम इसीप्रकार का है, काम यहीं करना है, इसी जन्म में समाप्त करना है, और कोई हल नहीं, संसार के सारे कर्म इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।
           लेकिन जब अर्जुन ने भगवान से ऐसा, भक्ति के सन्दर्भ में पूछा तो, भगवान का उत्तर ठीक उल्टा था। भगवान् कृष्ण अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में कहतें हैं,
"पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । 
न ही कल्याण कृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ "
-भगवत गीता  ६/४० 
"हे पार्थ ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न ही परलोक में। क्योंकि आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता अर्थात उसका नाश नहीं होता " 
इसका मतलब, साधक के द्वारा की गयी भक्ति का कभी नाश नहीं होता, और वही भक्ति साधक को भी नाश से बचाती है। एक क्षण के लिए भी भगवान के प्रति की गयी भक्ति, जीव के पास हमेशा-हमेशा के लिए रह जाती है। ऐसी भक्ति सनातन रहती ही नहीं वरन समय के साथ-साथ बढ़ती भी रहती है और जुड़ती भी रहती है। आप संसार में कोई भी कर्म करें, चाहे पुण्य करें या पाप करें, वो अपना फल दे कर ख़त्म हो जाता है। यदि आपने पुण्य किया, तो अच्छा फल मिलगा और यदि कोई पाप किया, तो उसके अनुरूप बुरा फल मिलेगा। कर्म के अनुसार फल मिलना तय है, और अनुकूल फल देने के बाद, वो कर्म भी समाप्त हो जाता है। जैसे आप ने अच्छे कर्म किये, बहुत समाज सेवा की, और मेहनत कर चुनाव जीत गए। संयोग बैठा और देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन ये भी केवल पाँच वर्षों तक के लिए होगा, पाँच वर्षों के बाद, आप यदि एक दिन के लिए भी चाहेंगें कि प्रधानमंत्री बने रहें, क्योंकि पाँच वर्ष पहले आप ने चुनाव जीता था, तो ये सम्भव नहीं। आप को समय के साथ ही हटना पड़ेगा। हमारे जीवन के हर कर्म हमें ऐसा ही फल देतें हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो सदा-सदा के लिए आप का हो जाये।
           तो भगवान कृष्ण कहतें हैं, मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, उसकी भक्ति का कभी नाश नहीं होता। इसी कारण सारे संत-महात्मा, केवल और बस केवल, भगवान के प्रति भक्ति की ही, कामना करते रहतें हैं, इन्हें और कुछ भी नहीं चाहिए। और भगवान की, यह भक्ति बिल्कुल सरल है, इसमें कोई नियम नहीं, कोई शर्त नहीं। बस आपको प्रभु से सन्मुख हो जाना है, उनके शरणागत हो जाना है, बाकीं सब, वो खुद ही कर देतें हैं। आज संसार में आपको भक्ति करने के लिए भी, हजारों नियम-कानून बताने वाले मिल जायेंगें। आप ने बहुतों को कहतें और करते सुना होगा, शंकर भगवान, बेलपत्र चढाने से खुश होतें हैं, विष्णु भगवान के लिए, पीला फूल और फल चाहिए, देवी माँ को खुश करना है, तो एक बार वैष्णोदेवी के दर्शन कर आओ, हनुमान जी को सिन्दूर, गणेश जी को लड्डू आदि न जाने क्या-क्या। पर क्या ऐसा है, क्या भगवान को आपकी, इन सब चीजों जी जरुरत है? नहीं बिल्कुल नहीं! पर आप कहेंगें, "धर्म-ग्रंथों में तो यही लिखा है", हाँ मानता हूँ, धर्म-ग्रंथों में यही है, लेकिन उस समय ये सब मिलना बिल्कुल आसान हुआ करता था। उस समय बेलपत्र, पीले फूल हर जगह मिल जाया करता था,हर समय मिल जाया करता था और वो भी बिना किसी खास परिश्रम के। तो भक्ति के लिए कुछ प्रतीकात्मक चाहिए था, तो धर्म-ग्रंथों में वो सब चीजें बताई गईं, जो कि आसानी ने मिल जाये, सब को मिल जाये, हर समय मिल जाये। मंदिरों में पत्थरों की मूर्तियाँ, नदी का जल, फूल, फल, पत्तियां आदि, ये सब चीजें अनिवार्य नहीं हैं, इनके बिना भी भक्ति की जा सकती है, अगर मिल जाये, अगर हो जाये तो सही, नहीं तो ऐसे भी भक्ति करें, सच्ची श्रद्धा से करें, तो भी आप को पूरा फल मिलेगा। आप की भक्ति मन से होनी चाहिए, संसार की चीजें उसमे शामिल हो जाएँ, तो अच्छी बात, न हो पाये तो भी आप भक्ति करें, पूर्ण शरणागत हो कर करें, भगवान का मिलना तय है। सभी धर्म-ग्रंथों का मूल ज्ञान यही है।
           एक और बात, कुछ लोगों को आप ने कहते सुना होगा, अरे इस व्रत में तो बहुत सारे नियम हैं, मुझ से नहीं हो पायेगा। इतना समय कहाँ दे पाऊँगा, पता नहीं सब ठीक-ठीक से हो पायेगा की नहीं आदि-आदि। पर ऐसा नहीं है, भगवान ने भक्ति को सनातन कहा है। आप के द्वारा की गयी थोड़ी सी भक्ति, थोड़े समय के लिए की गयी भक्ति भी, आप को, भगवत-प्रेम के मार्ग में और आगे तक ले कर जाएगी। आप अपने लक्ष्य के, और करीब हो जायेगें। कोई जरुरी नहीं कि पहले ही प्रयास में सफलता मिल जाये, लेकिन इसका मतलब ये नहीं की प्रयास ही छोड़ दिया जाये। और दूसरी बात आप दूसरों से तुलना भी न करें, दूसरों से तुलना भी एक आम बाधा है। अरे! सामने वाला तो दो-दो दिन तक, फलाहार पर ही रह जाता है, अरे! वो तो मीलों पैदल ही दौड़ जाता है, अरे सामने के पड़ोस में रहने वालों ने तो, चारों धाम की यात्रा चार बार कर ली है, क्या करें मुझसे तो कुछ होता ही नहीं। बहुतों बार आपकी ये तुलना भी, आप को भक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने से रोक देती है। बिल्कुल छोटी सी बात है, यहाँ तुलना का कोई सवाल ही नहीं होना चाहिए, आपको किसी और की जरुरत का कुछ भी पता नहीं, उसे कितना दूर और जाना है, आपके पास इसका कोई हिसाब नहीं। और वो कितना कर रहा है, इससे आप को क्या मतलब, आप को, न वो अपनी भक्ति का कुछ अंश दे सकता है, और न आप ही कुछ, उसको दे सकतें हैं। तो फिर आप ये सब सोचना छोड़ें। आपको जिस प्रश्न का हल खोजना है, वह कुछ और है, और आपके सामने वाला किसी और ही प्रश्न का उत्तर लिखे जा रहा है। आप क्यों उसकी नक़ल करने की कोशिश कर रहें हैं, और नक़ल कर भी लिए, पूरा का पूरा, उसी का उत्तर लिख के आ भी गए, तो भी कुछ नहीं होगा, तो भी आप का उत्तर गलत होगा, आप तब भी असफल ही रहेगें। तो तुलना करना छोड़ें बिल्कुल ही छोड़ें, जितना बन पाये आप से आप करें। भगवान्  तक आप की प्रार्थना अवश्य ही पहुंचेगी।
           एक छोटी सी कथा याद आ रही है, शायद आप में से कुछ ने सुन रखी हो। रामायण की कथा है, जब पता चला, रावण ने माँ सीता को हर कर, लंका में रखा है, तो भगवान राम ने, अपनी वानरी सेना के साथ, लंका जाने का विचार किया। लेकिन विशाल समुद्र रास्ता रोके खड़ा था, फिर तय हुआ कि, समुद्र पर एक पुल बनाया जाये। सबने मिल कर काम शुरू कर दिया। कोई बड़े-बड़े पत्थर ला कर समुद्र में रख रहा था, तो कोई वृक्ष की बड़ी-बड़ी डालियाँ, कोई रास्ता बनाने का काम कर रहा था, तो कोई पत्थरों को सलीके से रखने का, कोई-कोई तो पुरे का पुरे पहाड़ ही ला-ला कर समुद्र में डाल दे रहे था। जिसे देखिये वही अपने-अपने काम में लगा था, दिन-रात काम चल रहा था। एक दिन की बात है, लोगों ने कुछ अजीब देखा, देखा एक नन्हीं गिलहरी रेतों पर जाती है, अपने शरीर को वहाँ, रेतों पर रगड़ती है, फिर जहाँ पुल बन रहा था, वहाँ पर जा कर, अपने बालों पर चिपके रेत के कणों को झाड़ देती है। फिर वापस रेतों पर जाती है, दिन भर यही सिलसिला चलता रहता था। सब लोगों को आश्चर्य हुआ, जहाँ पुरे के पुरे पहाड़ समुद्र में समा जा रहे थे, वहाँ  इस छोटी सी गिलहरी के द्वारा लाए गए कुछ एक रेत के कण से क्या होगा। आपस में कानाफूसी होने लगी, और बात बढ़ते-बढ़ते भगवान राम तक पहुँची। भगवान राम ने गिलहरी के शरीर पर, प्यार से हाथ फेरा और सबको समझाया, "आप सब के जैसा ही, इसका भी काम है। इसकी चेतना, इसकी इच्छाशक्ति में जरा सी भी कमी नहीं है। अतः इसका फल भी आप सब के समान ही होगा, तनिक भी कम नहीं होगा।" जब एक नन्हीं गिलहरी, समुद्र पर पुल बनाने जैसे विशाल काम में, यथाशक्ति मदद कर, भगवान की भक्ति प्राप्त कर सकती है। तो हम सब को, प्रभु ने बहुत सक्षम बनाया है, फिर अगर हम, भक्ति से अभी तक दूर हैं, तो कोई भी कारण जो आप बतातें हैं, वो बस हमारा बहाना मात्र है। हम भगवान कि भक्ति करें, जितनी हो सके करें, निरंतर करें। अंत में अवश्य ही भगवान मिलेगें, उनकीं दिव्य भक्ति मिलेगी। फिर आप के सारे कर्म बंधन ख़त्म होगें, सारे दुखों से छुटकारा मिलेगा। परम शान्ति मिलेगी, सनातन आनंद मिलेगा। सब मंगल होगा, सब कल्याणमय होगा। हरि ॐ ॥
" अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । 
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ 
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शव्श्रच्छान्तिम । 
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ "
 -भगवत गीता  १०/३०-३१ 
"यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है , क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अंन्य कुछ भी नहीं है । 
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त (कभी )नष्ट नहीं होता । "
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गुरुवार, 27 अगस्त 2015

"भाग्य क्या?"

          भाग्य क्या? आज एक साधक ने पूछा, भाग्य क्या? अच्छा किया की पूछ लिया। वर्ना लोग तो अपने मन में ही बात बैठा लेतें हैं, अपने अनुसार सब हुआ तो ठीक, अपने काम का हुआ तो ठीक, अपने मन का हुआ तो ठीक, नहीं तो सब कुछ भाग्य पर छोड़ देते हैं। अपनी सफलता का तो जश्न मानते हैं, अपने कर्मो को ध्यान में रख कर, लेकिन जब कभी असफलता मिलती है तो उसका विश्लेषण करने के वजाय, भाग्य का रोना रटते रहते हैं। बहुतों को आप ने कहते सुना होगा, समय ही साथ नहीं दे रहा, भाग्य से ही सब कुछ मिलता है, हम क्या करें। ऐसे लोग अपनी गलतियों को बस छुपाना चाहते हैं, औरों से छुपाये तो कुछ हद तक ठीक भी है, पर अपने आप से छुपाने से कुछ हासिल नहीं होता, वरन भाग्य का रोना, और भी असफलताओं के द्वार खोल देता है। पर ये भाग्य क्या है? आज हम लोग इस पर चर्चा करेगें। कुछ लोगों को सफलता मिल जाती है और कुछ को नहीं, ऐसा क्यों होता है? ऐसा क्यों होता है की एक ही उम्र के कुछ बच्चे आगे निकल जाते हैं और खुछ पीछे रह जाते हैं। ऐसा क्यों होता है की एक जैसा काम करते हुए भी लोगों की जिंदगी अलग-अलग तरीके की होती है।तो आ हम लोग भाग्य के बारे में चर्चा करेगें। देखेगें ये भाग्य क्या है और क्यों ये कुछ खास लोगों पर ही मेहरवान होता है। देखेगें की भाग्य को कैसे संवरा जा सकता है। कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता पाई जा सकती है। कैसे समय को अपने अनुकूल किया जा सकता है। तो आइए  देखें  ये भाग्य क्या है? 
तैयारी और अवसर 
cont.

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सोमवार, 24 अगस्त 2015

"भगवान की कृपा कैसे प्राप्त करें?"

           भगवान की कृपा कैसे प्राप्त करें? आपकी जिज्ञासा का दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न। पहला प्रश्न, जब आपने पूछा था, भगवान हैं या नहीं। और जब आपने जान कर, अनुभव कर, ये माना कि भगवान हैं, तो अब ये प्रश्न स्वाभाविक है कि, "भगवान की कृपा कैसे प्राप्त करें?" भगवान को कैसे जाने, उनको कैसे देखें, उनका सानिध्य कैसे प्राप्त हो, उनका अलौकिक प्रेम कैसे मिले, उनका आनंद कैसे मिले? आज की चर्चा में हम लोग, इन सब प्रश्नों पर एक-एक कर विचार करेगें।
           बहुतों बार आपने लोगों से सुना होगा, 'भगवान को आपने देखा है? आप दिखा दो तो हम माने!'। 'यहाँ पर अभी बुला लाओ, तो मान जाएँ'। अक्सर लोग ये पूछ बैठते हैं। यहाँ दो-तीन बातें हैं, पहला, 'भगवांन को मैंने देखा है, या भगवान मुझे दिखाई देते हैं', इस बात से आप को क्या लाभ मिलेगा?, जो ये पूछ रहें हैं। जैसे मैंने कोई परीक्षा पास कर ली, तो इस से, आप को परीक्षा के बारे में कुछ भी पता नहीं चलेगा। इसी प्रकार मैं ने भगवान को देखा है या नहीं, इस बात से आपको कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। दूसरी बात, 'आप भगवांन को यहाँ बुला लीजिये, फिर मैं  मान जाऊँ'। ये बात भी वैसी ही हुई कि, आप मुझे उपाधि दे दो, फिर मैं उसकी तैयारी करूँगा, पहले मुझे प्रधानमंत्री बना दो, फिर मैं चुनाव लड़ूँगा। और एक बात, 'पहले मुझे भगवान दिखा दो', जैसे इन्होंने हर चीज को देख कर ही जाना है। अब कोई इन से पूछो, हवा को तो आप ने देखा नहीं, फिर तो हवा को आप नहीं मानते होगें। आप अमेरिका नहीं गए हैं, तो आप के लिए अमेरिका भी नहीं है? तो कोई कहे हवा को दिखा दो, तो हम माने। तो क्या लगता है, ऐसे लोग कब मानेगें कि हवा है? देखने की चीज तो नहीं है, फिर कैसे माने कि हवा है। साधारण सी बात है, अगर हवा को मानना है, तो इसका अनुभव करना होगा। अगर हवा को जानना है, तो इसकी शीतलता को महसूस करना होगा। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिन्हें हम अनुभव के द्वारा ही जान सकतें हैं। पर अब इसका मतलब ये मत निकालिएगा कि भगवान को देखा नहीं जा सकता। भगवान को देखा जा सकता है, बहुतों ने देखा है, बहुतों बार देखा है। भगवान को बुलाया जा सकता है, भगवान का सानिध्य मिल सकता है। तो भगवान देखे गए हैं, जाने गए हैं, पर इन सबकी अलग शर्तें हैं। और बिना उन शर्तों को पूरा किये आप को कुछ भी पता नहीं लग पायेगा। हम सब इस पर आगे चर्चा करेगें।
           तो पहली बात, भगवान को जानने और मानने के लिए केवल देखने की शर्त नहीं हो सकती। अब दूसरी बात लें, अगर किसी चीज को हम देख भी लें तो, हमारा काम बन जायेगा, इसकी कोई संभावना नहीं। अगर किसी प्रकार से कोई आप को भगवान का दर्शन करा भी दे, तो भी आप को यथेष्ठ फल नहीं मिल पायेगा। जैसे रसगुल्ला, आप सब ने देखा होगा, देखने की बात क्या बहुत बार खाया भी होगा। तो कल जब आप किसी के घर जाएँ और वह पूरे थाली में रसगुल्ला भर कर ले आये और केवल दिखा के पूछे, कैसा लगा? मीठा है या नहीं, संतुष्ट हुए की नहीं? तो आप क्या कहेगें! उस समय आप कहेगें, मित्र रसगुल्ला कोई देखने की चीज है क्या? जब तक खिलाओगे नहीं, स्वाद का कुछ भी पता नहीं चलेगा। रसगुल्ले की मिठास जानना है तो उसे खाना पड़ेगा, कोई बस देख कर रसगुल्ले के मिठास को नही बता सकता। हो सकता है, उसे मीठी चाश्नी में डुबोया ही न गया हो, हो सकता है उसमे मिर्ची का चूर्ण भर दिया गया हो, हो सकता है वो सजावट का कोई खिलौना भर हो। तो केवल देखने से ही बात नहीं बनेगी। अगर प्रारब्धवश भगवान को देख भी लिए, तो अनुभव नहीं कर पायेगें, पहचान नहीं पायेगें। और जब तक पहचानेगें नहीं, तब तक प्रेम नहीं होगा। एक कथा आती है रामायण में, हनुमानजी को सुग्रीव ने बुलाया और कहा जा कर देखिये, ये कौन दो वीर हैं, जो हमारे पर्वत की ओर  ही आ रहे हैं। कहीं ये बाली का भेजा, कोई गुप्तचर तो नहीं। सुग्रीव ने साक्षात परमेस्वर को अपनी ओर आते देखा, पर पहचान नहीं पाये। और हनुमानजी भी जा कर भगवान से पूँछते हैं, आप दोनों वीर कौन हैं और कहाँ से आ रहें हैं? भगवान स्वयं दर्शन दे रहें हैं पर पहचान नहीं पाये, जिसके कारण प्रेम नहीं हुआ। आगे की कथा आप सब ने सुन राखी होगी। तो तातपर्य यह कि केवल भगवान को देख लेने भर से काम नहीं बनेगा। हो सकता है, आप को रोज भगवान दर्शन देतें हों, रोज आप उनसे बातें भी करतें हों, पर पहचान नहीं होने के कारण आप उनके दिव्य और अलौकिक प्रेम से अभी तक वंचित रहें हैं।  
           तो भगवान को केवल देखने की शर्त कर आप चाहें कि, आप का सारा काम बन जाये तो यह संभव नहीं। भगवान को देख कर, उनको जान कर, अपनी बुद्धि में बिठा कर, उनसे प्रेम करना होगा, उनकी भक्ति करनी होगी। ऐसे नहीं कि पहले दिखा दो फिर मैं मानूँ। आपको अनन्य भक्ति करनी होगी, निष्क्षल प्रेम करना होगा, उनको रिझाना होगा, उनको मनाना होगा। तब प्रभु दया कर, करुणा कर, दर्शन देगें और आप तब उनको पहचान भी पायेगें। तब वह दर्शन बस इन्द्रियों का दर्शन नहीं होगा, वह सच्चा दर्शन होगा, और आप उनका अनुभव भी कर पायेगें। उस अनंत प्रेम की गंगा में डुबकी लगा सकेगें। उस असीम आनंद की अनुभूति कर पायेगें, जिसके बाद और कुछ पाने की जरुरत नहीं रह जाएगी।
cont.
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"भगवान हैं!!!"

           भगवान हैं!!! आज एक बच्चे ने पूछा। वो प्रश्न नहीं कर पाया, बस विस्मय भरी निगाहों से इतना ही बोल पाया, "भगवान हैं!!!"। मुझे लगता है, प्रश्न होना चाहिए। विस्मय वाचक चिन्ह की जगह प्रश्न वाचक चिन्ह होना चाहिए था। लेकिन हमें इतनी आजादी नहीं कि खुलेआम ये प्रश्न कर सकें, वरना नाश्तिक का ठप्पा लगना तय है, हमारा समाज हमें इतनी छूट कहाँ देता। आप कहेगें ये क्या बचकना है। बात तो सही है, ये बचकना ही है, ये बच्चा है, तभी इतना बोल पाया, वरना आप तो, इन सब चक्कर में पड़ते ही नहीं, मन किया तो मंदिर में नारियल चढ़ा आये और मन नहीं किया तो कोई बात नहीं। कौन चक्कर में पड़ें, भगवान हैं की नहीं। काम तो चल ही रहा है। आप सब लोग यहाँ आये हैं, आप में से कुछ लोग भगवान को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं, और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो मानते भी हैं और नहीं भी, समय के साथ बदलते रहतें हैं, जब मानने से काम बना, मान लिया, जब नहीं जरुरत हुई तो भगवान कहाँ। पर बहुत कम ऐसे लोग होगें, जिन्हें इन तीनों में से, किसी भी एक पर पूर्ण रूपेण विस्वास हो। अधिकतर लोग, ऐसे ही काम चला रहें हैं, बिना जाने, बिना पहचाने। आपमें बिल्कुल बच्चे जैसा शुद्ध ह्रदय हो, इसके जैसा निर्मल मन हो, तो आप ऐसे प्रश्न कर सकेगें, और तभी आपकी आधात्मिक यात्रा प्रारंभ होगी। वरना यूँ ही संसार में भटकते रहेगें। तो बच्चे ने जो जिज्ञासा की, आज इस पर विचार करें। हर किसी के मन में ये प्रश्न आना चाहिए, भगवान हैं? अगर हैं तो उनके बारे में जानने की, उनको प्राप्त करने की कोशिश करें और अगर भगवान नहीं हैं, तो फिर कुछ कहने-सुनने की जरुरत नहीं। तो आज हम सब, इस बात पर विचार करें कि भगवान हैं या नहीं। बस कहा और मान लिए, ऐसी बात नहीं, अनुभव के द्वारा जानें, स्वयं अनुभव करें और तब मानें कि भगवान हैं या नहीं।  

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

“केहि विधि उतरब पार”

केहि विधि उतरब पार,
दयानिधि केहि विधि उतरब पार ||
२ 
हम सन पतित,जगत नहीं होअल, 
अधम, निर्ल्लज, बेकार, 
दयानिधि, अधम, निर्ल्लज, बेकार || 
३ 
तुम सन पतित पावन नहीं सुनलौं, 
कर दो बेड़ा पार, 
दयानिधि, कर दो बेड़ा पार || 
४ 
अब प्रभु विनती करौं कर जोड़ी, 
दर्शन दो साकार, 
दयानिधि, दर्शन दो साकार || 
५ 
केहि विधि उतरब पार, 
दयानिधि केहि विधि उतरब पार || 
केहि विधि उतरब पार, 
दयानिधि केहि विधि उतरब पार || 
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           केहि विधि उतरब पार! ये प्रश्न एक भक्त के मन में आ रहा है, और वह भगवान के समक्ष विनती कर रहा है, हे प्रभु कैसे हम इस संसार रूपी सागर के पार होगें? उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि, वह क्या करे? वह जहाँ देखता है, वहीँ उसे बलवती माया, रास्ता रोके खड़ी दिखाई देती है। वह अपनी शक्तिहीनता और लाचारता को भी भली भाँति जनता है, और इसी कारण अपनी व्यथा प्रभु को सुना रहा है। वह अपने आप को अधम से भी अधम, निर्ल्लज से भी निर्ल्लज और बेकार से भी बेकार, बता रहा है। उसका मानना है कि सारे संसार में, उसके जैसा आज तक कोई अधम नहीं हुआ, निर्ल्लज नहीं हुआ, बेकार नहीं हुआ। इसी कारण वह भगवान से पूछ रहा है, कैसे वह सांसारिक सुख दुःख से मुक्त हो पायेगा। वह अपने आप को अधम कहता है, और इसका कारण बताता है, मानव शरीर पा कर भी अब तक वह प्रभु की भक्ति नहीं कर पाया, भगवान का साक्षात्कार नहीं कर पाया, उनका दर्शन नहीं कर पाया। वह अपने आप को निर्ल्लज बताता है, और इसका कारण यह बताता है कि, इस संसार में, पेट की भूख शांत करने के लिए, दिन-रात न जाने कितने पापों में लगा रहता है, और इसी  प्रकार अनन्त जन्मों में न जाने कौन-कौन से पाप इक्कठे कर लिए हैं, ऊपर से इन सब पापों का कुछ भी याद नहीं, फिर भी वह भगवान से दया चाहता है, कृपा चाहता है। वह अपनी निर्ल्लजता भगवान के सामने रख रहा है। वह अपने आप को बेकार भी कह रहा है, इस का कारण वह बता रहा है, सारी सुविधा मिलने के बाद भी, वह ऐसा कोई काम नहीं कर पाया जिससे वो प्रभु के नजदीक जा सके। प्रभु की कृपा बरस रही है पर वह उसको वह ग्रहण नहीं कर पा रहा है, उनकी भक्ति नहीं कर पा रहा है। वह तरह-तरह के तर्क दे कर पभु को अपनी दीनता बता रहा है।    
           एक ओर वह अपने आपको अधम, निर्ल्लज और बेकार बता रहा है, तो दूसरी और वह कह रहा है, हे प्रभु सारे संसार में आप के जैसा कोई और पतितों का उद्धार करने वाला नहीं है। वह कहता है वेद-पुराण आदि सारे धर्मग्रंथ, यही कहते हैं, सारे संत-महात्मा भी यही कहते हैं कि आप के जैसा कोई दयालु नहीं, आपके जैसा कोई कृपालु नहीं। आप ने, न जाने कितनों पतितों, अधमों और पापियों को संसार से मुक्त किया है, न जाने कितनो को दर्शन दिया और न जाने कितनो को अपनी भक्ति का वरदान दिया है। वह कहता है इसी भक्त-वत्सलता को सुन कर वह आया है। इस कारण, हे प्रभु अब आप ही बताइये कि कैसे मैं इस माया के बंधन से मुक्त हो सकूँगा।वह भगवान से पूछता है कि प्रभु अब आप ही कोई रास्ता दिखाइए। अब आप ही मेरी नैया को पार लगा सकतें हैं।
           और अंत में वह, दोनों हाथ जोड़ विनती कर, भगवान से कहता है, हे प्रभु अब तो करुणा कर दया कर, दर्शन दीजिये, साक्षात दर्शन दीजिये। वह कहता है, प्रभु वही रूप दिखाइए, जो आपने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिखाया था, उस रूप का दर्शन कराइये जिस रूप में, आप माँ कौसल्या के सामने प्रगट हुए थे, वही मनोहर छवि दिखाइए जिसके लिए सबरी जीवन भर इंतजार करती रहीं, वही रूप लावण्य जिसकी एक झलक पाने के लिए गोपियाँ अपना सारा काम-धाम छोड़ रस्ता तकते रहती थीं। हे प्रभु अब तो आप दर्शन दीजिये, अब तो कृपा कीजिये। हरी ॐ ॥           
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बुधवार, 19 अगस्त 2015

"सही क्या? गलत क्या?"

           सही क्या? गलत क्या? ; सत्य क्या? असत्य क्या? ; न्याय क्या? अन्याय क्या? ; उचित क्या? अनुचित क्या? ; पाप क्या? पुण्य क्या? ; धर्म क्या? अधर्म क्या? ; आज एक साधक ने बहुत ही सरल और सच्चे मन से ये प्रश्न किया। बिल्कुल शुद्ध ह्रदय से पूछा गया, कोई छलावा नहीं, कोई दिखावा नहीं। ऐसे प्रश्न अक्सर हमारे सामने होते हैं। आम तौर पर, हमारे जीवन के हर मोड़ पर, हर जगह, जब भी कभी, दो में से किसी एक को चुनना हो, तो हमारे सामने ऐसे प्रश्न होते हैं। और ऐसी स्थिति में हम हमेसा, बहुत सोच-विचार कर ही, कोई फैसला करना चाहते हैं। लेकिन कभी-कभी ये फैसला करना कठिन होता है। मन और बुद्धि मिल कर, ये निश्चित ही नहीं कर पाते कि, क्या सही है, और क्या गलत? ऐसे समय में हम दुविधा में होते हैं, कभी मन कहता है, ये सही है ये कर लो, और कभी लगता है, ये सही नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें पता होता है कि, दोनों में से कोई एक ही चुनना है, और कोई विकल्प नहीं। फिर भी हमारे लिए किसी एक का चुनाव करना आसान नहीं होता। आप सभी ने इसका अनुभव किया होगा, अक्सर हम ऐसे सवालों से घिरे होते हैं। ऐसे समय में हमें मार्गदर्शन की जरुरत होती है, किसी सच्चे सलाह की आवश्यकता होती है, आप चाहते हैं कोई रास्ता मिल जाये। तो हम कैसे निश्चय करें कि, क्या सही है और क्या गलत? आइए, अब हम मिल कर इस प्रश्न को उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं।
           तो हमने देखा कि हमारे लिए सही-गलत का चुनाव करना कभी-कभी मुश्किल होता है। इसका कारण है, सही और गलत का फैसला करना, अपने आप में दो-धाड़ी तलवार पर चलने जैसा है। और इनके बीच की दीवार इतनी पतली होती है, कि कब हम एक ओर से दूसरे ओर आ जाते हैं, इसका पता भी नहीं चलता। सत्य का साथ देते-देते, कब असत्य के रस्ते के पर हो जाते हैं, इसका निर्धारण करना मुश्किल होता है। और ऐसा इसलिए है कि, कभी-कभी सत्य और असत्य के स्वरुप के, अंतर का निर्धारण, व्यक्ति विशेष, समाज और परिस्थिति पर होने लगता है। किसी एक व्यक्ति के लिए सही, तो किसी और के लिए गलत, किसी एक समाज के लिए सत्य, तो औरों के लिए असत्य। तथा ये अंतर समय के साथ बदलता भी रहता है। आज जो सत्य, आदर्श और न्याय संगत लग रहा है, कल वैसा न लगे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दुनियाँ में इतने झगड़े, विवाद और घर-घर के कलह का यही कारण है। हम एक ही सत्य को दो विरोधी छोड़ से देखते हैं, और ऊपर से समस्या ये की दोनों विरोधी स्वयं को सत्य की ओर  होने का दावा कर रहे होते हैं। लेकिन, एक बच्चा भी कह सकता है, सत्य तो एक ही होता है, फिर दोनों सही कैसे हो सकतें हैं? सत्य की तो एक ही परिभाषा है, फिर दो सत्य और वो भी विरोधी कैसे पैदा हो जाता है? न्याय तो किसी एक तरफ ही होगा, तो दोनों कैसे न्याय करने का दवा करते हैं? आइये हम इस पर विचार करें। आखिर दो अंतःविरोधी सत्य कहाँ से आता है? थोड़े इसके जड़ तक जाते हैं, शायद फिर हम इस प्रश्न का उत्तर भी खोज पायें कि सही क्या है और गलत क्या?
           सत्य और असत्य दो अंतःविरोधी, एक साथ कहाँ से पैदा होता है, इसको जानने के लिए, हमें पहले ये पता लगाना होगा कि सत्य और असत्य की परिभाषा क्या है, सही और गलत का फैसला हम कैसे करतें हैं? हम कैसे पता लगते हैं कि कौन न्याय कर रहा है और कौन नहीं। सही-गलत का फैसला हम अपने मन और बुद्धि के द्वारा अपने अनुभवों, बड़ो की बातों, समाज और धर्मग्रंथों की सीख आदि के आधार पर करते हैं। अब इसमें दो बातें हो सकती है, एक, या तो धर्मग्रंथ, समाज आदि ही हम लोगों को विरोधी बातें बताते हैं या इन सब की सीख तो एक ही होती है, पर हम लोग स्वयं ही अलग-अलग अर्थ कर लेतें हैं। धर्मग्रंथ तो सदियों से हैं और इनकी बातें भी वही हैं, तो अब पहली बात कि धर्मग्रंथ और समाज अलग-अलग सीखाते हैं, संभव नहीं। तो दूसरी बात ही हो सकती है कि हम स्वयं ही अलग-अलग अर्थ निकाल लेतें हैं। हाँ बिल्कुल ऐसा ही होता है। इसका कारण है, हमारे देखने का नजरिया। हम वही देखते हैं, जो वस्तुतः देखना चाहते हैं, और ये बिलकुल प्राकृतिक है। आप के देखने के स्थान, समय और परिस्थिति पर चीजें निर्भर करती है। आप जिस किसी जगह पर होतें हैं और वहाँ से कोई चीज जैसी दिखती है, किसी और जगह से भी वैसी ही दिखे, इसकी कोई निश्चित्ता नहीं। जैसे किसी के लिए मक्का पूर्व में है तो, किसी के लिए पश्चिम में। मक्का किस दिशा में है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप स्वयं मक्के के किस ओर हैं। यदि आप मक्के के पूर्व में हैं, तो मक्का आप के लिए पश्चिम में होगा और यदि आप मक्के के पश्चिम में हैं, तो मक्का आप के पूर्व में होगा। मक्का तो वहीँ है, सदियों से है, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहाँ से देख रहें हैं। और ये बिलकुल प्राकृतिक है, और इसमें कोई दो मत नहीं। तो जो हम सत्य के दो अंतः विरोधी स्वरुप को देखते हैं इसका कारण  बस यही है कि हम सत्य हो दो विपरीत छोड़ से देख रहे होते हैं। जब ऐसा है तो इसमें गलत क्या है? फिर हम सब से गलती कहाँ हो रही है? फिर ये जो अंतः विरोध के कारण झगड़े हो रहें हैं, क्या ये सब यही है? नहीं, ऐसा नहीं। समाज में होते झगड़े और आपस के कलह गलत हैं।तो गलती कहाँ हो रही है? आइये इस पर विचार करें।
            सत्य हमेसा सत्य ही होता है, किन्तु गलती तब होती है, जब हम सत्य को सापेक्षता की तराजू पर तौलते हैं। सत्य को आपने-आपने नजरिये से देखते हैं, सत्य का सहारा आपने फायदे के लिए करते हैं। सत्य और न्याय को कभी सापेक्षता की तराजू से तौला नहीं जा सकता, वरना सत्य, सत्य नहीं रह जाता, न्याय, न्याय नहीं रह जाता। सत्य हमेसा शुद्ध और निरपेक्ष होता है, सत्य को अगर मूल रूप से जानना है तो सापेक्षता छोड़नी होगी।अपनी सीमाओं को लांघ कर आगे बढ़ना होगा, अपने स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। कोई धर्मग्रंथ, कोई समाज, कोई व्यक्ति आपको, सत्य का दर्शन नहीं करा सकता, जब तक कि आप स्वयं की सीमाओं से बहार नहीं आते, मैं और मेरेपन को छोड़ नहीं देते। आप सब को महाभारत की कथा याद होगी, जब पाण्डव अपनी सारी संपत्ति जुए में हार जाते हैं, यहाँ तक की द्रौपदी को भी हार जाते हैं। तब दुर्योधन, द्रौपदी को भड़ी सभा में लाने के लिए, अपने भाई को आदेश देता है। और उसका भाई दुःशासन द्रौपदी को उसकी बालों से खींचते हुए, वहाँ ला कर वस्त्र हरण करने की कोशिश करता है। उस समय हस्तिनापुर की वो सभा, प्रकाण्ड विद्वानों, धर्माचार्यों, बड़े-बड़े शूरवीरों, न्यायविदों, सत्यव्रतियों आदि से भड़ी थी। कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐसे विद्वानो के बीच अन्याय हो सकता है, पर किसी ने द्रौपदी की लाज बचाने की कोशिश नहीं की। हर किसी ने सर को झुका के, बस तमाशा देखा, सब को पता था, गलत हो रहा है पर सब चुप थे। कोई धर्म की दुहाई दे रहा था, तो कोई अपने फर्ज के तले दबे होने का, कोई नमक का कर्ज अदा कर रहा था, तो किसी को पुत्र-प्रेम ने बाँध रखा था। सब ने अपना स्वार्थ छुपाने के लिए, धर्मग्रंथों, सत्य, न्याय और न जाने किन किन चीजों का सहारा लिया। उन लोगों को लग रहा था, धर्म से गिर जायेगें, आने वाला समाज कहेगा नमक का साथ नहीं दिया, इतिहास के पन्नों में न जाने क्या लिखा जायेगा आदि-आदि! हर कोई एक दूसरे को देख रहे थे और आशा में थे कि कोई तो रोके, पर किसी ने आगे बढ़ कर दुःशासन को रोकने की कोशिश नहीं की। पर क्या ये सही था? किसी अबला स्त्री की इज्जत लुट रही हो और आप मुँह छुपाये बैठे हों, क्या ये सही है? भगवान कृष्ण ने इसका उत्तर दिया, स्वयं द्रौपदी  की साड़ी बन, उसकी लाज बचाई। सत्य और न्याय से बचने के लिए आप बहाने तो ढूँढ ही लेते हैं, पर वह केवल आप की कमजोरी छुपाने का जरिया भर होता है।
           सच्चाई के रस्ते में अगर अपना स्वार्थ और किसी की भलाई आमने-सामने हो तो, अपना स्वार्थ त्याग कर ही आप सत्य को पा सकते हैं। अगर आप ने जरा सा भी स्वार्थ को बल दिया तो आप का मन हजारों बहाने ढूँढ़ लेगा। महाभारत की उस सभा में जो धर्म की दुहाई दे रहे थे, वो सब के सब स्वार्थ के वश में थे। बहाने तो ढेर सारे थे, बहाने तो मिलने ही थे। अगर न मिलते तो मन, नए बहाने बना लेता, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, मन इस काम में बहुत ही आगे होता है। आप को पता भी नहीं चलता और बहाने बन के तैयार हो जातें हैं। और स्वार्थ को छुपाने का सबसे अच्छा तरीका है, धर्म का बहाना। हम अक्सर ऐसा ही करते हैं, अपनी कायरता छुपाने के लिए धर्म का सहारा लेतें हैं, क्यूँकि पता है, इस पर कोई ऊँगली न उठा सकेगा, धर्म के आड़े आप हमेशा बच जायेगें। तो वहाँ भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया चीड़ बन कर, कोई स्वार्थ नहीं, किसी का डर नहीं, बस मन में रहा होगा कि किसी भी तरह से द्रौपदी की इज्जत बच जाये। और यही भावना सर्वोपरि है।
           तो जब कभी भी आप को ऐसा लगे कि चुनना मुश्किल हो रहा तो सोचिये भगवान कृष्ण होते तो क्या करते। आप सोचिये कि आपके पास भगवान की ही शक्तियां हैं। फिर आप स्वार्थ और भय छोड़ कर जो भी निर्णय करेगें वो सत्य के साथ होगा, न्याय के साथ होगा। कोई धर्मग्रंथ, किसी गुरु का ज्ञान, आप के आने वाले परिस्थितियों का हल, पहले नहीं बता सकता। आप को स्वयं ही इन सब का निचोड़, और अपना अनुभव जोड़ कर निर्णय करना होगा। एक वाक्य में कोई निर्देश देना सम्भव नहीं, बस सरल ह्रदय से, बिना किसी स्वार्थ और राग-द्वेष के, दूसरों का भला, निर्बल और निःसहाय की रक्षा का भाव ले कर, निर्णय लें और उसको कार्यान्वित भी करें। फिर सब मंगल-मंगल होगा, कोई दुविधा न होगी। फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा। भगवान आप सब के साथ हैं, सब का कल्याण होगा, सब आनंदमय होगा। परमपिता परमेश्वर हम सब को, सुमति दें, सद्बुद्धि दे, और शक्ति प्रदान करें, ताकि हम सब सत्य और न्याय के रास्ते पर चल सकें। हरी ॐ ।।
"यो मां पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयि पश्यति ।    
तस्याहं न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति॥"
- भगवत गीता ६/३० 
श्री भगवान बोले -"जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही देखता है, और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। "
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गुरुवार, 13 अगस्त 2015

" रे मन चलो प्रेम की राह... भाग -३ "

"भाग -१" ; "भाग -२" से आगे
           पिछली दो चर्चाओं में, हमने देखा कि मन ही है, जो हमसे सारे काम करवाता है और यह सांसारिक चीजों में प्रेम पाने के लिए भटकता रहता है। फिर हमने देखा संसार से वह अलौकिक प्रेम हमें नहीं मिल सकता जिसकी हमें सदियों से तलाश है। आगे हमने देखा वह दिव्य प्रेम केवल और केवल हमें परमात्मा से ही मिल सकता है। आज हम चर्चा करेगें कि भगवान का वह दिव्य और अलौकिक प्रेम कैसे मिल सकता है? 
           परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, स्वयं प्रकाशमान और सक्षम हैं। वो नित्य, आनंदमय और करुणा के भंडार हैं। तो यदि उनसे प्रेम किया जाये तो, वह प्रेम अनंत मात्रा का होगा और सदा के लिए होगा। ऐसे ही प्रेम की तो हमें जरुरत है। और सारे जीव, ये सारा संसार उन्हीं की शक्तियाँ हैं, इस कारण से भी उनका प्रेम आनंदमय, सुखमय और शांतिमय होता है। तो उनका प्रेम कैसे प्राप्त किया जाये? इसको ठीक-ठीक जानने के दो तरीके हैं, पहला या तो सद्ग्रन्थों का सहारा लिया जाये, जैसे की वेद, पुराण, श्रुति आदि, या दूसरा जिस किसी ने उनका प्रेम पाया हो, उसके नक़्शे-कदम पर चला जाये। अब पहले यानि सद्ग्रन्थों की बात करें, तो पता चलता है कि भगवान को पाने के बहुत सारे तरीके बताये गए हैं। कहीं पर ज्ञान मार्ग, तो कहीं पर कर्म मार्ग, कोई योग की बातें बता रहा है, तो कोई धर्म की। कहीं पर आपको भगवान का सगुण-साकार रूप दिखेगा तो कहीं पर निर्गुण-निराकार। बातें सब उसी एक परमात्मा की हैं, लेकिन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके और उपाय बताये गए हैं। उस पर मुश्किल ये कि,केवल इन सद्ग्रन्थों को बस पढ़ कर आप कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकल पायेगें। क्योंकि बहुत से जगह शब्द कुछ कह रहे होतें हैं और उनका अर्थ कुछ और ही होता है। इस कारण सद्ग्रन्थों की बातों को भली-भांति समझने के लिए, किसी जानकर के पास जाना होगा, जैसे आप पढ़ने के लिए विद्यालय जाते हैं, शिक्षक के पास जातें है। ऐसे मोटे-मोटे तौर पर भगवान को पाने का एक मार्ग जो कि सारे ही सद्ग्रन्थों में है वह है, "भक्ति-मार्ग"। सारे ग्रंथों की मूल भावना यही है कि आप भक्ति कर, अपने इष्ट को प्राप्त कर लें। केवल भगवान की भक्ति ही वो है, जो आपको भगवान से मिला सकता है। पर भक्ति कैसे करें, इसका उत्तर है, संतों ने जो रास्ता अपनाया उसी रास्ते पर चल कर। 
           तो उसी आसान तरीके की बात करें, ऐसे लोगों का अनुकरण करें जिन्होंने स्वयं परमात्मा का साक्षात्कार किया हो। क्या ऐसे लोग हुए हैं? हाँ लाखों हुए हैं, हर युग में हुए हैं। आज भी आप को मिल जायेगें, पर थोड़ी जिज्ञासा जगानी होगी, थोड़ा सा प्रत्यन करना होगा। ऐसे संत लोग न केवल स्वयं भगवान का दर्शन प्राप्त किये हैं, वरन न जाने कितनो को भगवान से मिलवाया है, जैसे मीरा, तुलसी, सूर आदि। बस आप को उनका ही अनुशरण करना है, वैसा ही प्रेम ले कर, वैसे ही विश्वास के साथ। आपको वैसी ही प्रीति जगानी होगी, जैसी कभी मीरा ने जगाई थी, उतना ही विश्वास करना होगा जितना की सूर को था, उतनी ही भक्ति जितनी तुलसी ने की। तो परमात्मा का प्रेम मिलना तय है। आप को भजन करना होगा, रो कर उन्हें पुकारना होगा। आपकी करुण पुकार एक दिन अवश्य ही उनको आपके पास ले कर आयेगीं। आप को कहीं जाने की भी जरुरत नहीं, वो खुद चल कर आप के पास आयेंगें। आप की सच्ची और अनन्य भक्ति को वो भी नकार नहीं सकते। परमात्मा से प्रेम तो सरल है, और अनेकों संतों का उदाहरण है। आप चुनें सच्ची श्रद्धा के साथ, फिर करें उसी, एक परमेश्वर  की भक्ति। मन से करें, दिखावे के लिए नहीं। फिर आपके मन की चञ्चलता दूर होगी, फिर आपको भटकना न पड़ेगा। आप यहीं पर प्रभु का साक्षात्कार कर पायेगें। फिर आप के जीवन से दुःख छूमंतर हो जायेगा, आप नित्य नए-नए आनंद का अनुभव करेगें। आप कहेगें अभी तक ऐसा कुछ अनुभव क्यों नहीं हुआ? ऐसा नहीं कि अनुभव नहीं हुआ, हुआ है, पर चूँकि आप संसार के सन्मुख थे, इस कारण आप को पता नहीं चला। आप परमात्मा के सन्मुख होते तो पता चलता और फिर वो अनुभव हमेशा के लिए आप के पास होता। आपको संसार में ये जो क्षणिक सुख दीखता है, वो एक परछाई है अनंत आनंद की, परमात्मा के आनंद की। सांसारिक सुख तो मृगतृष्णा है, सच्चा सुख तो बस उस आनंद सिंधु के पास ही है। अतः मन को लगाएं उस एक के प्रेम में। थोड़े से अभ्यास से सब संभव है , जैसा कि कृष्ण ने अर्जुन को बताया, "अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ " - भगवत गीता  ६/३५ "हे अर्जुन ये(मन) अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।" मन को भगवान का प्रेमी बनाना है, बस थोड़े से अभ्यास से। अभी तक आप को प्रेम नहीं हुआ क्योंकि आप ने परमात्मा को सच्चे अर्थों में जाना ही नहीं। उन्हें जानिए क्योंकि केवल वहीँ सुख है, ऐसे भी संसार में भटक कर के तो देख ही लिए हैं। सच्चे मन से जिज्ञासा करें, दयालु प्रभु स्वयं ही रास्ता प्रदान करेगें। फिर आनंद ही आनंद बरसेगा, मंगल ही मंगल होगा। तो हमने देखा, 
तो आइए हम सब अपने मन को, परम दयालु प्रभु के सन्मुख करें, उनकी भक्ति करें, उनकी सेवा करें। रे मन चलो प्रेम की राह…, रे मन चलो प्रेम की राह… हरि ॐ ॥ 
"कठिन काल मल कोस, धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस, रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥"   
- रा. च. मा. ३/६/२
"यह कठिन कलिकाल पापोंका खजाना है;इनमें न धर्म है,न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है।इसमें तो जो लोग सब भरोसोंको छोड़कर श्रीरामजीको ही भजते हैं,वे ही चतुर हैं "
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बुधवार, 12 अगस्त 2015

" रे मन चलो प्रेम की राह... भाग -२ "

" भाग -१ " से आगे
          पिछली चर्चा में हमने देखा था, हमारा मन किसी की अभिलाषा में निरंतर भटक रहा है। इस कारण यह चञ्चल है। वह चीज इसे अभी तक नहीं मिल पायी है, इस कारण यह संसार में हर चीज में उसे ही ढूँढता है और आशा करता है कि कहीं ये वही तो नहीं। पर आज तक ऐसा नहीं हुआ, उसे अपने काम की चीज नहीं मिली। और मन अब तक शांत नहीं हुआ। आइए हम सब इस पर विचार करें। देखें हमारा मन किस चीज को खोज रहा है और वह कैसे मिल सकता है? 
          संसार में अगर देखें, तो एक बात पता चलता है कि, शांत और स्थिर वह व्यक्ति है जो की प्रेम में है। चाहे जिस किसी भी प्रकार का प्रेम क्यों न हो। मनुष्य सबसे ज्यादा शांत, खुश और आनंद में तब होता है जब वह उसके पास होता है, जिस से वह प्रेम करता हो। जैसे एक संगीतकार सब से ज्यादा खुश तब होता है जब वह कोई संगीत बना रहा हो, एक इंजीनियर अपने बनाये पुल पर जब गाड़ियों को गुजरते देखता है, तो ख़ुशी से झूम उठता है। शिल्पकार को उसकी मूर्ति, कवि को उसकी कविता, चित्रकार को उसके बनाये चित्र आदि से प्रेम होता है। और ये सब जब अपने प्रेम के पास खुश होतें हैं, शांत होतें हैं, आनंद में होते हैं। एक माँ अपने बच्चे को गोद  में ले शांत हो जाती है, वैसे ही बच्चा भी माँ के पास आ कर असीम आनंद की अनुभूति करता है। फिर बच्चे को कीमती से कीमती खिलौना दे दें, पर वह अपनी माँ को छोड़ कर नहीं आएगा। कोई बच्चा, किसी खिलौने को  तभी हाथ लगता है, जब उसे पता होता है कि माँ आस पास ही है, कहीं जाने वाली नहीं। यह विस्वास, आनंद और शांति, प्रेम में होने के कारण ही है। ऐसे ही हिमालय की गुफाओं में साधु सन्यासी, दिन-दुनियाँ से बेखबर निरंतर अपनी साधना में लगे रहते हैं और परम शांति पातें हैं, ये उनका प्रेम ही तो है। तो एक बात साफ है, व्यक्ति सब से ज्यादा खुश तब होता है जब वह प्रेम में होता है। शांत होता है, जब वह अपने प्रेमी के सानिध्य में होता है। खुशियाँ मनाता है, जब प्रेम की राह पर होता है। मनुष्य का जीवन आनंद से सराबोर होता है, खिला-खिला होता है, जब वह प्रेम में होता है। तो एक चीज जो शुरू में दीखता है, वह है "प्रेम"। मन की चञ्चलता गायब हो जाती है, जब हम प्रेम में होतें हैं। तो मन का अभीष्ट है, 'प्रेम'। जिस क्षण भी उसे प्रेम का लवलेश भी दिखता है, उसकी चञ्चलता क्षणभंगुर हो जाती है। चाहे वह प्रेम कैसा भी क्यों न हो। आप सब ने ये अनुभव किया होगा, कभी न कभी। प्रेम में आप स्थिर हो जातें हैं, यहाँ तक की प्रेम की बातों को याद कर के भी शांति मिलती है। तो अब प्रश्न है, 'मन' किसके प्रेम की आशा करता है? ऐसा क्या है, जिसे वह आज तक नहीं पा सका है? उसी एक प्रेम की चाहत में सदा से भटक रहा है। अब इस पर विचार करें । मन का प्रेम क्या है, मन किस प्रेम के लिए लालायित है, मन कैसे प्रेम कि इच्छा रखता है?
           अभी तक हमने देखा मन, प्रेम की खोज में दिन रात भटक रहा है।क्योंकि अगर प्रेम मिल जाये तो फिर शांति मिलनी तय है, या यूँ  कहें कि पेम में ही शांति है। पर वह प्रेम कैसा होना चाहिए? संसार में हमें बहुतों बार प्रेम हुआ है, कभी धन से, कभी मकान से, कभी माँ से, तो कभी पति या पत्नी से और भी न जाने किन किन से। लेकिन इन सब प्रेम से थोड़ी देर के लिए सुख तो मिला, लेकिन वो परम आनंद, वो चरम सुख नहीं मिलता जिसकी मन को तलाश है, मन की चञ्चलता ख़त्म नहीं हुई, मन भटकता ही रहा। ऐसे प्रेम, थोड़े मात्रा का होता है जो एक दिन शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे कम होते होते ख़त्म हो जाता है। जैसे आप का भोजन से प्रेम। जब आप भूखे होतें हैं, तो भोजन के लिए लालायित होते हैं, किस तरह से मिले, आप उसको पाने के लिए हर संभव प्रयत्न करतें हैं। आप का मन, बुद्धि और इन्द्रिय भोजन को पाने में लग जाता हैं। ऐसे में अगर आप को समय से वह न मिले तो बेचैन हो जातें हैं। लेकिन जैसे ही पता चले की अब मिलने वाला है, बस ये बात सुन कर ही मन में ख़ुशी होती है। अभी तक भोजन मिला नहीं, पर मिलने की बात सुन कर ही आप खुश होने लगतें हैं। फिर भोजन आता है, आप खाना शुरू करतें हैं। पहला निवाला, क्या बात है! असीम शांति प्रदान करता है, फिर दूसरा, तीसरा...। फिर एक समय आता है, जब आप कहतें हैं, बस अब हो गया। कोई आग्रह करे तो थोड़ा और, पर उसके बाद नहीं। फिर भोजन से पहले वाला प्रेम नहीं रह जाता, खाने की बात तो छोड़िये सामने देखने का भी मन  नहीं करता, चाहे फिर आप के सामने छप्पन प्रकार के भोग ही क्यों न हो। और अगर फिर कोई जबरदस्ती करे तो उसी खाने से आप को नफ़रत हो जाता है, फिर आप उस बारे में सोचना तक पसंद नहीं करते। संसार के सारे प्रेम, चाहे वो धन से हो, घर-मकान से हो, रिश्ते-नातेदारों से हो, या और भी किसी सांसारिक चीजों से हो, भोजन के प्रेम की तरह ही होता है। ऐसे प्रेम थोड़े मात्रा का होता है, जो एक दिन शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे कम होते-होते ख़त्म हो जाता है। वही प्रेम जिससे कभी आप को परम शांति मिला करती थी, आज उस के बारे में सुनने-सोचने तक का मन नहीं करता। पर ऐसा क्यों है? क्योंकि सांसारिक प्रेम की एक सीमा होती है, और वो सदा के लिए नहीं होता। कभी मिलता है, तो कभी नहीं मिलता। इस कारण इससे मिलने वाला सुख भी, सीमित ही होता है। हमरे मन को ऐसा प्रेम चाहिए जो की अनंत मात्रा का हो और हमेशा के लिए हो। हमारा मन ऐसे प्रेम की तलाश में है जो कभी न ख़त्म होने वाला हो, वरन समय के साथ बढ़ता ही जाये। संसार में हम जो कुछ भी देखते सुनते हैं, यहाँ तक की हमारी मन, बुद्धि और सोच तक समय के साथ बदल जाता है। ये सब चीजें नश्वर हैं, तो इनसे किया गया प्रेम भी नश्वर ही होगा, और फिर ऐसे प्रेम से असीम शांति मिले, इसकी कल्पना करना मूर्खता होगा। इस कारण हमें कभी भी वो शांति नहीं मिली, जिसकी हम सब को सदा से तलाश है। तो हमारा मन चञ्चल है क्योंकि हमें अभी अनंत प्रेम नहीं मिला या यूँ कहें अनंत से प्रेम नहीं हुआ।
           तो हमारे मन को ऐसा प्रेम चाहिए, जो अनंत मात्र का हो और सदा के लिए हो। ऐसा नहीं कि  मिला और थोड़े समय में फिर ख़त्म हो गया। पर मन को ऐसा प्रेम चाहिए ही क्यों? फिर देखेगें ऐसा प्रेम किस और कैसे से मिल सकता है। आइए, अपने शरीर से बात शुरू करें, तो हमारी इन्द्रियाँ जैसे हाथ, पैर, आँख, नाक, कान आदि(५-ज्ञान इन्द्रियाँ और ५-कर्म इन्द्रियाँ), इससे ऊपर इन सब के विषय,  इसके ऊपर मन, इसके ऊपर बुद्धि, और इसी तरह आगे। तो संसारी चीजों में जो सबसे ऊपर है, और हमसे करीब है, वह है मन। मन के एक ओर  संसार और दूसरी और आत्मा। भगवान कृष्ण अर्जुन से गीता में कहते हैं,
"इन्द्रियाणां मन श्र्चास्मि" -  भगवत गीता १०/२२ : "इन्द्रियों  में मैं  मन  हूँ " 
तो मन ही वो कड़ी है, जिसके एक ओर तो परम शुद्ध आत्मा और दूसरी ओर मायिक संसार है। और इन दोनों में बड़ा भारी अंतर है, दोनों दो छोड़ हैं, एक 'आत्मा', विशुद्ध और अनित्य, तो दूसरा 'संसार', क्षणिक और दुःख स्वरुप। और आत्मा चूँकि परमात्मा का अंश है, इसकारण वो उसी असीम आनंद की खोज में ही लगा है। इस कारण वह वैसा ही सुख चाहता है या यूँ कहें वही सुख चाहता है। पर दिक्क्त तब शुरू होती है, जब वो परम आनंद संसार में खोजने की कोशिश करता है। संसार में इधर-उधर भटक कर उसी शांति की खोज करता है। तो यह तय हुआ की मन को वही परमात्मा वाला सुख चाहिए। जो की अनंत मात्रा का है और हमेशा के लिए है। पर अब देखना है कि क्या यह सुख हमें संसार में मिल सकता है? मतलब क्या हमें यह सुख धन-दौलत, रिश्ते-नातेदार, घर-मकान आदि से मिल सकता है? आप कहेगें, ये संसार भी तो भगवान ने ही बनाया तो यहाँ भी वैसा ही सुख मिलना चाहिए। पर ऐसा नहीं है। ये संसार भगवान ने अपनी जड़ शक्ति माया से बनाया है, और इस कारण यह क्षणभंगुर है। एक दिन बना और धीरे-धीरे एक दिन खत्म भी हो जायेगा। ये जो कुछ भी आप देखतें हैं, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, तारे-नक्षत्र आदि सभी एक दिन बने थे, और एक दिन ख़त्म हो जायेंगें। यह तय है, यह निश्चित है। तो इन सब चीजों से हमें वो सुख हमें नहीं मिल सकता जिसकी हमें तलाश है। नश्वर संसार से अनंत सुख नहीं मिल सकता, इनसे प्रेम करें तो कुछ भी हासिल नहीं होगा। तो संसार से या यहाँ की वस्तुओं से प्रेम से हमारा काम नहीं बनेगा। 
           तो अब हमें वो खोजना है जो कि नित्य हो। अब नित्य दो चीज होती है एक आत्मा और दूसरा परमात्मा। अब आत्मा के पास तो अपनी शक्ति होती नहीं, यह तो परमात्मा की शक्तियों से ही प्रकाशित होता है। तो आत्मा के प्रेम से भी हमारा काम नही बनेगा। फिर तो बस परमात्मा ही बचे। तो अब देखना है, परमात्मा की किन शक्तियों ये हमारा काम बन सकता है और इसको कैसे प्राप्त किया जाये? आगे एक-एक कर हम इस पर चर्चा करेगें। आज के लिए बस इतना ही, शेष आगे। हरि ॐ ॥   
"धरनि धरहि मन धीर, कह बिरंचि हरिपद सुमिरु ।
जानत  जान की पीर, प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥"
- रा. च. मा. १/१८४ 
"ब्रह्माजीने कहा-हे धरती!मन में धीरज धारण करके श्रीहरिके चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ाको जानते हैं,ये तुम्हारी कठिन विपत्तिका नाश करेंगे "
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