बुधवार, 23 नवंबर 2016

" नशा : सबसे ज्यादा किसका ? "

           सबसे पहले भगवत भक्ति की इस अनुपम चर्चा में आप सभी का स्वागत करता हूँ। ऐसे तो अक्सर हम किसी न किसी नए विषय को लेकर, अपनी चर्चा का आरंभ करते हैं, लेकिन आज का जो प्रश्न आया है, वह थोड़ा अलग सा है। एक भक्त ने पूछा है, "सबसे ज्यादा नशा किससे होता है?" प्रश्न थोड़ा अलग सा है और आप ये भी कह सकते हैं, भक्ति विषयक चर्चा में यह विषय क्यों? पर मेरा मनना है, मन में द्वन्द की स्थिति नहीं रहनी चाहिए। आप के मन में अगर कोई प्रश्न है, तो जल्द से जल्द उसका समाधान कर लेना चाहिए। मन में अगर कोई बात रह जाती है, तो धीरे-धीरे वह अपनी पैठ बना लेती है। और फिर उसका समाधान कठिन हो जाता है। तो आइए अब बात करते हैं, आज के प्रश्न पर," नशा : सबसे ज्यादा किसका ? "
           ऐसे तो दुनियाँ में बहुतों प्रकार का नशा होता है। लेकिन सबसे ज्यादा नशा किसका होता है, इस पर लोगों की अपनी-अपनी राय हो सकती है। और अगर विज्ञान की बात करें, डॉक्टरों की बात करें तो ये सूचि बड़ी होते जाएगी। लेकिन हमारा मकसद, और शायद प्रश्नकर्ता का भी मकसद इसे विज्ञान की नजरों से देखना नही है। विज्ञान और डॉक्टरों वाली बात, आप आसानी से इंटरनेट आदि पर खोज कर पा सकते हैं। उस पर शोध आदि भी कर सकतें हैं। तो इस बात को हम आप पर छोड़ते हैं। लेकिन एक बात, विज्ञान वाले नशे का प्रयोग स्वयं पर कभी न करें, वार्ना आप के  शोध का तो पता नहीं, पर आप किसी गली-चौराहे, नदी-नाले में गिरे-पड़े अवश्य ही मिलेगें। ऐसा शोध कभी न करें जिसमें, आप के खुद के खो जाने का भय हो। आपकी शोध तो जाएगी ही आप भी नहीं मिलेगें। तो संसार में ऐसे बहुत सी चीजें हैं, जिनमें नशा होता है। और डॉक्टर लोग इनका प्रयोग, रोगों का उपचार करने में करते हैं। लेकिन नशा और भी कई कारणों से सकता है, जो कि बहुत ही खतरनाक है। कहतें हैं, नशे में आदमी को कुछ भी पता नहीं रहता। लोग नशे की हालात में अपना-पराया, अच्छे-बुरे सब कुछ भूल जाते हैं। तो ये नशा बहुत ही खतरनाक है, पीड़ादायी है। खाश कर जब आप नशे से बहार निकलते हैं तो, खुद से नजर मिलाने के लायक नहीं रहते। एक तो हुआ नशा, जो कि खाने-पीने से आता है। दूसरा, कभी-कभी बिना खाये-पीये भी लोग नशे में होते हैं। कबीरदास जी ने कहा है,
" कनक कनक ते सौ गुणी, मादकता अधिकाय। 
एक  खाय बौराय नर,  एक  पाय  बौराय॥ "
- "कबीर" 
"कनक का एक अर्थ होता है सोना, और दूसरा अर्थ होता है धथूरा ,कबीरदस जी कहते हैं सोने (वाले कनक )में ,धथुरे (वाले कनक) से , सौ गुना ज्यादा नशा होता है, क्योंकि धथुरे को तो खाने के बाद नशा होता है, किन्तु सोने को पाने से ही नशा हो जाता है। " बात बिल्कुल सही भी है, आज हम लोगों को धन-संपत्ति, रुपये-पैसों आदि के नशे में  देखते हैं, और ये नशा इतना गहरा होता है कि लोग आजीवन इससे बहार नहीं निकल पाते। खाने-पीने के नशे से तो लोग धंटे दो-चार घंटे में बहार हो जाते हैं, लेकिन धन का जो नशा है, उसका जाना मुश्किल होता है। धन का ये नशा कुछ ऐसा होता है कि लोग अपनों तक को भूल जाते हैं। गाँव-समाज की बात कौन कहे, लोग माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि सभी रिश्तों को दरकिनार कर जाते हैं। ऐसा नहीं की ये धन सदा आप के पास रहने वाला है। कहते हैं लक्ष्मी चंचला होतीं हैं। कभी भी एक जगह नहीं ठहरती, लेकिन फिर भी लोग इसके लिए पागल बने बैठे हैं। धन का आना जाना तो लगा ही रहता है और आगे भी जारी रहेगा, लेकिन उसके लिए ये दीवानगी, कि हम अपने माता-पिता को ही भूल जाएँ, ये सही नहीं।
           ये तो रही धन की बात, एक और चीज है, जिसका नशा इस धन से भी ज्यादा होता है। धन तो भौतिक पदार्थ है, इस को प्राप्त करना, संग्रह करना समझ में आता है। लेकिन यह जो नशा है, इसे आप छू नहीं सकते, देख भी नहीं सकते, तिज़ोरी  में बंद कर रख नहीं सकते। लेकिन इसका जो नशा होता है, वह अतिसय भयावह होता है।  .... 
continue ...




*************************
***************************************

सोमवार, 21 नवंबर 2016

"एक भक्त की कथा"

           आज की भगवत-चर्चा में आप सभी महानुभावों का स्वागत करता हूँ, अभिनन्दन करता हूँ। आज की चर्चा कुछ खास है। खास इसलिए कि, आज की चर्चा में हम लोग "एक भक्त की कथा" पर विचार करेगें। बात बिल्कुल सच्ची और आत्म बीती है। हो सकता है, आप लोगों को भी ऐसा अनुभव हुआ हो। जब आप किसी से मिलते हों और बातचीत के क्रम में कुछ बातें आप के मन को छू जातीं हों। मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। अभी कुछ दिन पहले की बात है, मुझे एक भगवत-भक्त से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जान-पहचान पहले से थी, जब भी वहाँ जाता उनसे जरूर मिलता था और समय-समय पर हमलोग मिलकर भगवत विषयक चर्चा करा करते थे। उनके स्नेह का सदा मैं पात्र रहा। तो इस बार भी जब मैं उनसे मिला तो यूँ ही कुछ भगवत-विषयक चर्चा आरंभ हुई। उन्होंने अपने जीवन की दो दृष्टांतों के बारे में बताया। जिसका प्रतिबिम्ब आज भी मेरे मानस पटेल पर पड़ा हुआ है। आज हम लोग उन्हीं दो दृष्टांतों पर चर्चा करेगें।
           पहली बात उन्होंने जो बताई, वह है लोग चंदन क्यों लगते हैं, टीका क्यों लगते हैं। बात साधारण हो सकती है। आप में कईयों को ये बात वैज्ञानिक तरीके से भी पता हो, पर उनका उत्तर मुझे बहुत पसंद आया। इसकारण  वह आप सबों से साझा करना चाहता हूँ। बात शुरू करूँ, इससे पहले थोड़ा उन संत का परिचय दे दूँ। उम्र क़ोई ४५-५० वर्ष की है। एक छोटे से गाँव  में रहते हैं। किसान परिवार से हैं, इस कारण ज्यादा पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला। बस थोड़ी बहुत तो पैतृक संपत्ति है, उसी में खेती-वारी कर के अपना और परिवार का गुजर-वसर कर रहे हैं। वर्षों उन्होंने एक सामान्य सा जीवन जीया। एक दिन भगवत कृपा और संतों के समागम से, पुण्यों का उदय हुआ और उनकी जीवन-शैली बदल गयी। भगवत-भक्ति का रंग, कुछ ऐसा चढ़ा कि दुनियादारी घीरे-धीरे पीछे छूटने लगी। जो कभी गलती से भी भगवान का नाम नहीं लेते थे, अब बिना भगवत भजन किये दिन की शुरुआत नहीं करते। खानपान बदला, पहनावा बदला, संगती बदली, एक प्रकार से कहें उनकी सारी दुनियाँ ही बदल गयी। लेकिन परिवर्तन हमेशा अनुकूल ही नहीं होता। जब चीजें बदलती हैं तो सभी अच्छा-अच्छा ही नहीं होता, कुछ विपरीत परिवर्तन भी होते हैं। प्रतिकूलता उनके साथ भी आई भी। सबसे पहले आस-पास के लोगों ने ही कहना-सुनना शुरू किया। ये वो घड़ी थी, जब अपनों ने ही रास्ता रोकने का काम किया। लोग भजन, करने, चन्दन करने, पूजा करने आदि का मज़ाक उड़ने लगे। राह चलते, रास्ता रोक कर न जाने कैसे कैसे बात कहने लगे। मनुष्य के जीवन में ये घड़ी बड़ी कठिन होती है, जब अपने लोग ही रास्ता रोक के खड़े हो जाते हैं। यही वो समय होता है जब आप परीक्षा दे रहे होते हैं। आप दुनियाँ से तो लड़ कर आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन आप की असली परख तब होती है, जब आप अपनों से विरोध सह रहे होते हैं। उनका भी वही समय चल रहा था। जिन्हें वो अपना मानते थे, जिन्हें अपना समझते थे, वो लोग ही आज उनके पीछे पड़े हुए थे। पर उन्होंने हार नहीं मानी और अपना विस्वास बनाये रखा। भगवत कृपा से वे सभी बाधायों को पार करते चले गए। सच कहतें हैं, प्रभु अपने भक्तों को कभी हारने नहीं देते। हाँ थोड़े समय के लिए कष्ट होता है पर अंत में हमेशा जीत होती है।
           बात उन्ही दिनों की है, जब लोग आ-आ कर उनसे तरह-तरह के सवाल पूँछा करते थे। एक दिन की बात है, किसी ने मजाक के लहजे में उनसे पूँछा, महात्मा जी! आप जो यह चन्दन-टीका लगते हैं वो क्यों लगते हैं? पूंछने वाले सज्जन को लगा गंवार आदमी है, जबाब तो दे नहीं पाएगा, इसकी खिल्ली जरूर उड़ेगी। लेकिन इनका जबाब बहुत ही सुंदर था। इन्होंने कहा, मैं शरीर के सात अंगों पर चन्दन लगता हूँ। माथे पर चन्दन इसलिए लगता हूँ कि मेरी बुद्धि हमेशा शुद्ध हो। माथे का चन्दन हमेशा मुझे याद दिलाते रहता है, कि हम अपनी सात्विक बुद्धि से अपने मन और इन्द्रिय को भगवत-भक्ति में लगाए रहें। दोनों कान में चन्दन इसलिए लगता हूँ कि हमेशा अच्छी-अच्छी बातों को ही सुनूँ ग्रहण करूँ। कानों का चन्दन इस बात का याद दिलाये रखता है कि भगवत चर्चा के सिवाय सारी बातें व्यर्थ हैं, इसलिए हमेशा भगवान के प्यारे गुणों का ही श्रवण होता रहे। अपने दोनों हाथों में चन्दन इसलिए लगता हूँ, ताकि इन हाथों से हमेशा अच्छे कर्म कर सकूँ। हाथों का चन्दन याद दिलाते रहता है कि हमारे कर्म भगवत विषयक हों। कर्मों में कर्तापन का अभिमान न हो। कण्ठ में चन्दन लगता हूँ, ताकि हमेशा मीठी और अच्छी वाणी बोल सकूँ। भगवान के भजन गा सकूँ। कण्ठ का चन्दन भगवान के प्यारे नामों का निरंतर जयकार लगाने का याद दिलाते रहता है। और ह्रदय में चन्दन इसलिए लगता हूँ ताकि, भगवान् में प्रेम हो सके। ह्रदय का चन्दन याद दिलाते रहता है, प्रेम का, करुणा का। भगवान् की सारी सृष्टि, भगवन्मय है। इसकारण हमेशा सब जीवों से प्रेम हो, किसी के लिए गलती से भी द्वेष-भावना न हो। ये सात अंगों का चन्दन प्रतीक है, भगवत-भक्ति का, उनकी कृपा का। उन्होंने उस व्यक्ति से कहना जारी रखा और बोले "मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं। ज्ञान-विज्ञान की बातों से कोसों दूर हूँ। चन्दन लगाने के और भी कोई वैज्ञानिक कारण हों, तो वो मुझे नहीं पता। लेकिन ये चन्दन मैं  रोज इस लिए लगता हूँ ताकि, प्रभु की कृपा यूँ ही सदा पा सकूँ। उनके भक्तों का संग पा सकूँ।" उनकी ये सारी बातें, मेरे मन को छू गयीं। इसमें भी हो सकता है लोग कुछ तर्क निकाल लें, पर इसमें उनकी सरलता और निष्कपता दिखती है। यहाँ उनका उत्तर महत्त्व पूर्ण तो है ही, साथ ही साथ उनकी भावना कहीं और गहरी हैं। और मूल में तो केवल तो केवल उनकी अनन्य भक्ति ही है।     
           अब आतें हैं, उनके जीवन के दूसरे दृष्टान्त की बातों पर, जो की बहुत मार्मिक है। ये घटना पहले वाली से भी पहले की है और उनके जीवन के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुई। इस घटना के बाद ही उनका जीवन बदल गया। बात उन दिनों की है जब वो एक सामान्य सा ग्रामीण जीवन जी रहे थे। काम था, सुबह उठ कर खेतों पर जाना और उसमें लगे फसलों को देखना। जब वो यह दृष्टान्त मुझे सुना रहे थे तो लगा वो बिलकुल उस पुराने समय में पहुँच गए हैं। चेहरे पर निःशब्ता झलक पड़ी थी। उनका मन एक गहरी वेदना में डूब गया था। आँखों में शायद पश्चाताप के आँसू थे। घटना कुछ इस प्रकार थी, सर्दियों का मौसम था, अन्य दिनों की भांति वो अपने खेतों को देखते-देखते आगे जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा, सामने एक मादा खरगोश धूप में लेटी हुई अपने चार-पाँच बच्चों को दूध पिला रही थी। एक तो सर्दी का मौसम और ऊपर से सुबह की प्यारी धूप, मादा खरगोश थोड़ी सुस्ता गयी। उसे इनके पास आ जाने का कुछ पता नहीं चला। वो अभी भी पहले की भाँति आँखें बंद किए लेटी हुई थी। तभी मन में न जाने सूझी, इन्होंने पास में पड़े एक डंडे को हाथ में उठा लिया। सोचा होगा, आज अच्छा शिकार हाथ लगा है, एक मोटा-ताज़ा खरगोश तो मिलना तय है, हो सकता है दो-तीन भी हाथ लग जाये। ये बात उन दिनों की है जब ये और इनका परिवार शाकाहार-मांसाहार सब कुछ खाता-पीता था। उस समय इनकी सोच जो कुछ भी रही होगी, ये हाथ में डंडा ले कर उस मादा खरगोश की ओर लपके। सहसा अपने पास एक मानुष को हाथ में डंडा लेकर आते देख वो मादा खरगोश बिलकुल डर गई। घबराहट का और कारण था, उसके छोटे-छोटे बच्चे, जिन्हें छोड़ वह भाग भी नहीं सकती थी। डर और घबराहट के बीच उसे न जाने क्या हो गया, एका-एक निष्पंद हो गई, हाथ-पैर बिखर गए, शरीर उल्टा हो गया। खरगोश के बच्चे भी अपनी माँ की ये हालत देख कर अपनी ही आवाज में रोने लग गए। ये सब कुछ इतनी जल्दी हुआ की, इनके हाथ का डंडा  हाथ में ही रह गया। सामने एक मादा बेसुब्ध पड़ी थी और उसके बच्चे माँ की हालात देख रो रहे थे। ये कारुण्य दृश्य देख कर न जाने इनके ह्रदय में क्या हुआ। इनका शरीर शिथिल सा हो गया, हाथ ज्यूँ उठे के उठे रह गए, डंडा छूट के नीचे गिर गया। पैर आगे बढ़ नहीं रहे थे। सोचने-समझने की शक्ति न जाने कहाँ चली गयी थी। पता नहीं ये उस स्थिति में वहाँ कब तक खड़े रहे। जब होश आया तो वहाँ  कुछ भी न था। न मादा खरगोश, न उसके बच्चे। हाँ पास में वो डंडा जरूर पड़ा था। मादा खरगोश के निःशब्द शरीर वाला वो दृश्य, इनके मन, बुद्धि, ह्रदय सबको भेद चूका था। शरीर में लगा जान ही नहीं बचा हो। एक-एक पैर उठाना भड़ी पड़ रहा था। किसी तरह एक पेड़ के नीचे जा बैठे और कब तक यूँ ही बेमने से वहाँ बैठे रहे कुछ पता न चला। भूख और प्यास भी मनो ख़त्म हो गई थी। शाम हुई घर की और चले, मन अभी भी बुझा-बुझा सा था। रह-रह कर वही दृश्य मन  था। गाँव शुरू होने से पहले एक मन्दिर था। मन बेचैन था घर जाने को नहीं कर रहा था, सोचा मंदिर में थोड़ी देर बैठते हैं। मंदिर प्रांगण में शांति थी, और इनके मन में अभी-अभी एक तूफान गया था। उस दिन मन और मंदिर का कुछ तारतम्य सा बन गया। मंदिर में भगवान् की आरती हुई, इन्होंने भगवान् का प्रसाद लिया और घर को आ गए। इस घटना के बाद से ही इनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। मन पवित्र हुआ, सात्विकता आई, तो विचार बदले, बोल-चाल बदला, खाने-पहनने का तरीका बदला। मन भगवत-भक्ति में सुख पाने लगा। फिर दुनियाँदारी की कौन परवाह करे। आस-पास के लोग थोड़े दिनों तक अजीब निगाहों से देखे, लेकिन फिर सब छोड़ दिया। आखिर वो लोग भी तो अपनी दुनियाँदारी में व्यस्त थे। हाँ इनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। तब से आज तक अनवरत भगवत-भक्ति के पथ पर आगे बढ़ते रहे। स्वयं तो भक्ति करते ही हैं, दूसरे लोग भी लाभान्वित होते हैं, और भक्ति-मार्ग के लिए प्रेरित होते हैं।
           कहते हैं, महर्षि वाल्मीकि को भी ज्ञान की प्राप्ति कुछ इसी प्रकार हुई थी। कथा कुछ यूँ आती है, एक समय की बात है, महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ तमसा नदी के किनारे संध्या वंदन के लिए गए थे। संध्या वंदन के पश्चात्, जब वो लौट रहे थे तो देखा एक, कौंच पंछी का जोड़ा आपस में खेल रहा था। नदी का शीतल किनारा और पंछियों की करतल ध्वनि, बड़ा ही मनोरम दृश्य था। तभी एक बहेलिये ने एक बाण चलाया, जो कि सीधे उस नर क्रोंच को जा लगा और वो उसी समय मर गया। अपने प्रेमी पंछी को मृत देख वो मादा भी व्यथा से वहीं मर गयी। इस करुणामय दृश्य को देख कर, अनायास ही वाल्मीकि जी एक श्लोक कहा,
"मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥"
कहा जाता है, यह महर्षि वाल्मीकि जी के द्वारा रचित पहला श्लोक था। इसके बाद ही उन्होंने महाकाव्य "रामायण" की रचना की। हमारे जीवन की कोई घटना का, कब क्या असर होता है, इसका कहना मुश्किल है। करुणा, भगवत-भक्ति जगाने का पहला कदम हो सकता है। कहते हैं जिसके ह्रदय में करुणा है, उसके ह्रदय में ही प्रेम हो सकता है। और प्रेम, भक्ति की पहली सीढ़ी है। प्रेम से ही भगवान् द्रवित होते हैं। प्रेम, करुणा, क्रोध, लोभ, मोह आदि हर किसी के ह्रदय में होते हैं। लेकिन आप कब करुणा और प्रेम में होते हैं, ये आप पर ही निर्भर करता है। महर्षि बाल्मीकि भी पहले जंगलों में लूट-पाट किया करते थे, लेकिन जब ह्रदय में करुणा प्रस्फुटित हुई तो वो एक साधारण मनुष्य से महर्षि हो गए। ऐसी और भी कई घटनाएं इतिहास पन्नो में दबे पड़े हैं। आत्मज्ञान, भक्ति का प्रेरक हो सकता है, साथ ही साथ जीवों के प्रति करुणा और प्रेम भी भक्ति का प्रेरक हो सकता है। या यूँ कहें कि करुणा और प्रेम भक्ति का ही दूसरा रूप है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं। स्वामी विवेकानंद के उपदेसों का सार भी इसी में है। वो अक्सर कहा करते थे,
     "आत्मनो मोक्षार्थम्, जगत् हिताय च " 
"लोगों का कर्म जन्म-मृत्यु (स्वयं के उद्धार के लिए )से छुड़ाने और संसार के कल्याण के लिए होने चाहिए। यही आध्यात्म है, यही भक्ति है।" और ऐसा कर पाना तभी संभव है जब आप सारे जीवों में उसी एक परमात्मा का दर्शन करते हों। आप के ह्रदय में प्रेम और करुणा का संचार हुआ, समझिये भगववान की कृपा हुई। आप सब जीवों पर प्रेम और करुणा दें, प्रभु आप को अवश्य ही भक्ति देगें। आप बूँदों में देगें, वो बरसात करायेगें।
भगवत-भक्ति "आत्मनो मोक्षार्थम" और "जगत हिताय" इन दो किनारों के बीच बहने वाली नदी है। जिसमें प्रेम और करुणा रूपी जल सदा प्रवाहित होते रहती है। अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं। भगवत-भक्ति आप अपने उद्धार के लिए करें या दूसरों के कल्याण के लिए, दोनों एक दूसरे से अलग नहीं है। अपने उद्धार में जगत का हित है और जगत के हित में अपना उद्धार। दोनों अन्योनाश्रय है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं,
"परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।। "
- रा. च. मा. ३/३०/९ 
"जो कोई दूसरों की कल्याण के लिए सदा तत्पर रहते हैं , उनके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं है । "
           भगवत-भक्ति के बिना, हम सब का जीवन भी यूं ही निरर्थक बीता जा रहा है, ख़त्म हो रहा है। जरुरी है, हम अनन्य भक्ति कर प्रभु को प्राप्त कर सकें। हमारे जीवन की कोई भी घटना प्रेरक बन सकती है, हम अपनी आस-पास की घटनाओं से सीख ले सकते हैं। कोई जरुरी नहीं की हमारे साथ घटे तभी बात बनेगी। हम देख-सुन कर भी सीख ले सकते हैं। हर किसी को प्रभु ने बिल्कुल अलग बनाया है, तो हमारी प्रेरणा भी अगल-अलग हो सकती है। पर लक्ष्य वही हो कि किसी भी प्रकार से भगवत-भक्ति प्राप्त हो सके। आप को महाभारत की यक्ष-युधिष्ठिर वाली कथा याद होगी। यक्ष प्रश्न पर प्रश्न किये जा रहे थे और युधिष्ठिर एक-एक कर के समुचित उत्तर दे रहे थे। बहुत सारे प्रश्न पूछने के बाद, अंत में यक्ष ने पूँछा, "किमाश्चर्य?" आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर का उत्तर था,
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यामालयम ।
शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम॥ ९७
"रोज-रोज प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं, किन्तु जो हैं,वो सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़ और क्या आश्चर्य होगा !" 
बात बिल्कुल सही भी है। हम सब को पता है, जिसने जन्म लिया है, एक न एक दिन उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन तब भी हम इस संसार में ऐसे रमे रहते हैं, जैसे कि कभी हम इसे छोड़ के जाने वाले नहीं। अपनी दुनियाँदारी में यूँ लगे रहते की कालचक्र हमें प्रति क्षण, मृत्यु के करीब और करीब, लेते जा रहा है इसका कुछ भी फिक्र नहीं। छल-कपट, झूठ-सच आदि न जाने क्या-क्या कर केवल पाप कमाते हैं। पाप  की इस गठरी बड़ी और बड़ी किये जा रहे हैं। यह भी याद नहीं रहता, एक दिन सारी की सारी गठरी यहीं पर रह जानी है। हम सब को इसी आश्चर्य से बहार निकलना है।संसार के भूलभुलैया से बहार निकलना है। हमें अपने सच्चे स्वरूप परमात्मा का अनुभव करना है। और जिस किसी दिन, जिस किसी भी कारण से हमें ये अनुभव हो जायेगा, उस दिन हमारा काम बन जायेगा। फिर किसी के रास्ता दिखने की जरुरत नहीं रह जाएगी। मंजिल पर कदम खुद-ब -खुद आगे बढ़ते चले जाएगें। परमपिता परमेश्वर हम सभी को सदबुद्धि दे, ताकि हम सब उनको ही प्राप्त करने के लिए, उनके ही रास्ते पर चल पड़ें। आज के लिए बस इतना ही। सबका कल्याण हो, सब सुखी से रहें, हर एक जगह शांति हो, शांति हो, शांति हो। हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ....    
"एक धड़ी आधो घड़ी, आधो में पुनि आध। 
तुलसी संगत साधु के, हरे कोटि अपराध ॥" 
"गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं, साधू-संतों के साथ ,अगर एक क्षण का भी संग हो जाये, एक क्षण की बात कौन करे,यदिआधे क्षण या उसके भी आधे क्षण का,अगर संग हो जाये तो जन्मों-जन्मों के संचित पाप खत्म हो जाता है।"  ऊपर की पंक्तियाँ शायद तुलसीदास जी की या कबीर जी की लिखी हुई है, या फिर किन्ही और की, पता नहीं। अभी इतिहास के पन्नों में नहीं जाऊँगा, और इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता कि इसे किन्होंने लिखा है। संदेश इतना सा है, साधु-संतों की संगति का एक क्षण भी हमारे जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल सकता है। बस शर्त इतनी सी है कि जब भी संतों से मिलें किसी पूर्वाग्रह से दूषित हो कर न मिलें। निष्कपट और सरलता से भगवान के भक्तों का संग करेगें तो जीवन में परिवर्तन जरूर होगा। भगवत-भक्ति अवश्य मिलेगी। कल्याण होगा। 
        ******************************
**************************************************

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

"त्याग"

""माँ! माँ!"
एक नन्हें बालक ने, माँ के गोद में आ कर कहा। उम्र यही कोई सात-आठ साल की होगी। दुबला-पतला शरीर रंग बिलकुल गोरा, चेहरे पर रौनक, आँखों में अशीम निश्छल शांति और भाव गंभीर। माँ समझ गयीं, जरूर कोई विशेष बात है।बड़े प्यार से बालक को सीने से लगाया और सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं। 
"बोलो मेरे लाल, क्या हुआ? क्या चाहिए?"
"माँ" एक लंबी और गहरी साँस...
"हाँ बेटा! बोलो।"
"माँ, मुझे संन्यास लेना है।" बेटे ने बड़े ही शांत भाव से अपनी बात रख दी। 
एक लंबी ख़ामोशी! थोड़ी देर के लिए तो माँ को समझ ही नहीं आया कि बेटे ने क्या माँगा। बेटे ने सच में संन्यास की माँग की या यह एक बालक की चंचलता बस भर है। माँ थोड़ी देर के लिए विस्मित सी हो गयी। बालक का प्रश्न गंभीर था और माँ को शायद पता था कि ये किसी अबोध बालक का माशूम प्रश्न नहीं है। उसे अपने बेटे की बौद्धिक कौशलता का आभास है। लेकिन वो इस माँग के लिए अभी तैयार नहीं थी। माँ को पता है, उसका बेटा असाधारण पतिभा का धनी है। वो साक्षात् ज्ञान की गंगोत्री से निकला है और उसे ज्यादा दिनों तक घर-गृहस्थी में बाँध कर रखना संभव नहीं। लेकिन वो दिन इतनी जल्दी आ जाएगा, उसने सपने में भी न सोचा था। माँ को पुरानी बातें याद आने लगीं। कैसे शादी के बाद बहुत दिनों तक बिना संतान के दुःख भरे दिन गुजारे थे। और न जाने कितने व्रत, तपस्या और पुण्य कर्मों के बाद उसे बेटे की प्राप्ति हुई थी। उसे याद है कैसे बेटे के जन्म के बाद घर-घर में मिठाइयाँ बटीं थी। कैसे बेटे के नींद के साथ सोना और जगना हुआ करता था। कैसे उसके हँसी के साथ हँसती और उसके दुःख से रोती थी। उसका बेटा उसका जीवन था। बेटे के जन्म ने उसके दामन को खुशियों से भर दिया था। लेकिन शायद विधाता को कुछ और ही मंजूर था। उसकी खुशियाँ ज्यादा दिनों तक नहीं रहीं। एक दिन अकस्मात्
continue....

"गर्व से कहो.... मैं शूद्र हूँ!"

           आज की भगवत विषयक चर्चा में आप सभी महानुभावों का स्वागत करता हूँ, और आप सभी ने जो अपना कीमती समय निकाल कर, कष्ट सह कर यहाँ पधारे, इसके लिए आप सबों को बहुत-बहुत धन्यवाद। ऐसे हम सभी, प्रायः किसी न किसी प्रश्न को ले कर अपनी चर्चा आरंभ करते हैं। किन्तु आज जो प्रश्न आया है, उसे पढ़ कर मन थोड़ा दुःखी हुआ। प्रश्नकर्त्ता ने पूछा है, "जाति से मैं शूद्र हूँ, और कभी-कभी अपनी जाति बताने में लज्जा का अनुभव करता हूँ। मेरे मानसिक दुविधा को शांत करें। और साथ ही साथ उन्होंने पूछा है आप का क्या वर्ण है, आप की जाति क्या है?" उनका पत्र लंबा है और उन्होंने और भी कई दृष्टान्तों का वर्णन किया है। पर मैंने छोटे में उनके प्रश्न को बताया।  प्रश्न केवल उनका ही नहीं, वरन ये प्रश्न बहुतों का है। उन्होंने अपने मन के विचारों को बड़े ही मार्मिक ढंग से रखा है। उनके दुःखी मन के साथ-साथ हमारा मन भी रो रहा है, कष्ट पा रहा है। और उनकी वेदना से, मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। आज के वैज्ञानिक युग में भी हम इन बातों को ख़त्म नहीं कर पाए, जान कर दुःख होता है। केवल रहन-सहन में ही बदलाव आया है, सोच हमारी अभी भी बहुत छोटी है, ये सोच मन दुःखी होता है, रोता है।
           लेकिन अगर विचार करें तो उनके मन की वेदना, आरोपित की गई वेदना है, ऊपर से थोपी गई वेदना है। वास्तव  में इसका कोई स्थान ही नहीं। वर्ण व्यवस्था तो समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाई गयी थी।उस समय यह वर्णों का विभाग केवल दैनिक कर्मों के अनुसार तय की गयी थी। उसमें  कोई उच्च और निम्न होने की बात ही नहीं। आज भी जैसे हम कहते हैं कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर है, कोई चित्रकार है। हम ये नहीं कहते इंजीनियर बड़ा है, डॉक्टर छोटा। दोनों अलग-अलग हैं, समाज के लिए दोनों जरुरी हैं। दोनों का काम अलग-अलग है, कोई छोटा या बड़ा नहीं। कोई उच्च और निम्न नहीं। इसीप्रकार शुरू में भी वर्ण व्यवस्था, कर्मों को ध्यान में रख कर के की गयी थी। उस समय कोई वर्ण छोटा या बड़ा न था। धीरे-धीरे समाज को कुरीतियों ने घेड़ लिया और फिर एक वर्ण के लोग अपने आप को बड़ा समझने लगे और दूसरे वर्ण को छोटा समझा दिया गया। और समय के साथ-साथ ये छोटे-बड़े का भेद भी बढ़ता ही चला गया। आज ये स्थिति ये है, कि एक खास वर्ण-जाति के लोग अपने आपको छोटा ही समझने लगे हैं। तो हमारी जो यह वर्ण-जाति व्यवस्था उच्च-निम्न, छोटा बड़ा आदि में बटी हुई है, यह ऊपर से थोपी गयी सोच है। जिसे जितनी जल्दी हम बदलेगें, उतनी जल्दी ही एक मजबूत समाज की आधार शिला रख पायेगें।
           आज की चर्चा में हम इस बात को थोड़ी गहराई से देखेगें। वेदों ने वर्ण और आश्रम की जो व्यवस्था बताई है उसमे चार प्रकार के वर्ण और चार प्रकार के आश्रम है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये वर्ण व्यवस्था के चार अंग हैं तथा बह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, ये आश्रम व्यवस्था के चार अंग हैं। कोई भी मनुष्य इन चार वर्ण और आश्रम में से अपनी रूचि के अनुसार चुनाव कर सकता है। जैसे वर्ण से ब्राह्मण और आश्रम से गृहस्थ, वर्ण से शूद्र और आश्रम से संन्यास आदि। और ये चुनाव बिल्कुल स्वेच्छा से होना चाहिए, व्यक्ति के विचारों और कर्म कौशल से होनी चाहिए। वर्णाश्रम व्यवस्था के अंग इस प्रकार हैं :

इस प्रकार कोई भी मनुष्य इन सोलह प्रकार के जीवन धर्मों में से किसी भी प्रकार के जीवन को अपना सकता है। इसके लिए कोई रोक-टोक नहीं। वेदों ने वर्णाश्रम व्यवस्था का विभाग कर इन सभी के लिए कुछ नियम निर्धारित किये हैं। चारों वर्ण के लिए अलग-अलग नियम और चारों आश्रम के लिए अलग-अलग नियम। और ये नियम समाज को व्यवस्थित रखने के लिए हैं, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए हैं। वेदों ने कहीं पर भी किसी एक वर्ण या आश्रम को बड़ा या छोटा नहीं बताया है। और बात क्या कहें, वेदों में प्रमाण हैं शूद्रों के संन्यासी होने के। उदाहरण स्वरुप पुराणों के वक्ता को ही ले लें। तो शुरू में इस व्यवस्था में कोई भेद-भाव न था। सदियों ये नियम सुचारू रूप से समाज को चलाते रहे। लेकिन समय के साथ-साथ, कुछ स्वार्थी लोगों ने इसमें भी अपना स्वार्थ ढूंढना शुरू कर दिया। वो बैठे-बिठाये, बिना परिश्रम के अपना काम बनाने की बात सोचने लगे। उनके पास स्वयं का तो पुरुषार्थ था नहीं, कि खुद को ऊपर उठा पाते। इसकारण से उन्होंने एक सोची-समझी नीति के तहत धीरे-धीरे एक खाश वर्ग के लोगों को निम्न दिखाने लगे। उनके मन में ये बात बिठाने लगे की तुम छोटे हो। और वे भी भोले- भाले लोग इस बात को मन बैठे की वो छोटे हैं, उनका समाज छोटा है। उनके ऐसे मनाने का भी कारण है, उनकी निश्चलता, उनकी सादगी, अपने मेहनत और कर्म में पूर्ण विश्वास। ऐसे भोले-भाले लोग उन कपटी लोगों की बातों में आ गए। और फिर शुरू हुआ शोषण और अत्याचार का भयावह दौर। जिसे सोच कर भी आपके रोंगटे खड़े हो जायेगें। इस प्रकार जाति और वर्ण की व्यवस्था समय के साथ-साथ कुलषित होते चली गयी। अभी थोड़े समय से लोगों की सोच में परिवर्तन आया है, आना शुरू हुआ है। लेकिन अभी भी एक बड़ा वर्ग इस व्यवस्था से पीड़ित है। इसके लिए हम सब को एक साथ मिल कर काम करना होगा। खुद की सोच बदलनी होगी, आस-पास के लोगों को इस भ्रम से निकलना होगा। और सबसे महत्वपूर्ण बात ये की आने वाली पीढ़ी में ये जहर न फैले इस की लिए उन्हें अच्छे संस्कार देने होंगें। हमारी नयी पीढ़ी वही देखती और सीखती है जो हम सोचते और करते हैं। तो हमें अपनी सोच बदलनी होगी। अपना व्यवहार बदलना होगा। तभी धीरे-धीरे हम अपने लक्ष्य में कामयाब हो सकते हैं और एक सांस्कृतिक रूप से समृद्धशाली समाज की स्थापना कर सकते हैं, स्थापना कर पायेगें।
          अब आते हैं, प्रश्नकर्ता के दूसरे प्रश्न पर, जिसमें उन्होंने मेरी जाति पूछी है। ....  
continue...



गुरुवार, 15 सितंबर 2016

"भक्ति का वरदान - उपसंहार"

"भक्ति का वरदान - उपसंहार"'

कहते हैं जैसे भगवान् की कथा अनंत है वैसे ही भगवान् के भक्तों की भी कथा अनंत है। इस भगवत चर्चा में हमने रामचरित मानस में आये भक्तों के जीवन का कुछ प्रसंग सुना समझा।
continue...
दसरथ जी, अंगद आदि

*******************
***************************

"भक्ति का वरदान - २१. गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज"

"भक्ति का वरदान - २१. गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज"

चौपाई
यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा।।
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा।।
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं।।
रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा।।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।

छंद
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै।।2।।
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

दोहा/सोरठा
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130(क)।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130(ख)।।

श्लोक
यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रॆमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशम प्राप्त्यै तू रामायणं।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतम स्वान्तस्तम:शान्तये
भाषाबद्ध्मिदम चकार तुलसीदासस्तथा मानसं।।1।।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानाभाक्तिप्रदम
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम।
श्रॆमद्रामचरितमानसमिदम भक्त्यावगाहन्ति ये
ते सन्सारपतनगघोरकिरनैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

***************
****************************

"भक्ति का वरदान - २०. श्री काकभुसुंडि जी"

"भक्ति का वरदान - २०. श्री काकभुसुंडि जी"

चौपाई
देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई।।
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।।
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी।।
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ।।
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा।।
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी।।
भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी।।
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी।।

दोहा/सोरठा
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास।।83(क)।।
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि।।83(ख)।।

चौपाई
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना।।
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं।।
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ।।
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा।।
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू।।
मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।

दोहा/सोरठा
अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव।।84(क)।।
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।84(ख)।।

चौपाई
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक।।
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना।।
सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी।।
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं।।
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई।।
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें।।
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।

दोहा/सोरठा
माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि।।85(क)।।
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग।।85(ख)।।

*********************
************************************

"भक्ति का वरदान - १९. सनकादि मुनि जी"

"भक्ति का वरदान - १९. सनकादि मुनि जी"

चौपाई
भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा।।
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए।।
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए।।
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना।।
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा।।
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।
तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी।।
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।

दोहा/सोरठा
देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।

चौपाई
कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई।।
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन।।
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा।।
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।

दोहा/सोरठा
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।33।।

चौपाई
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर।।
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद।।
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय।।
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।

दोहा/सोरठा
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।

चौपाई
देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि।।
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक।।
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक।।
भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।
मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर।।
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक।।
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन।।

दोहा/सोरठा
बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।

*****************
********************************

"भक्ति का वरदान - १८. श्री शिवजी जी"

"भक्ति का वरदान - १८. श्री शिवजी जी"

दोहा/सोरठा
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13(ख)।।

छंद
जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।।
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।।
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के।। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।
नहिं राग न लोभ न मान मदा।।तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा।।
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।

दोहा/सोरठा
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14(क)।।
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14(ख)।।

*****************
*******************************

"भक्ति का वरदान - १७. इन्द्र"

"भक्ति का वरदान - १७. इन्द्र"


दोहा/सोरठा
अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।।112।।

छंद
जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।1।।
जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल सनाथ।।2।।
जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार।।
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल।।3।।
लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब।।
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब कें लाग।।4।।
परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट।।
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल।।5।।
मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान।।
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज।।6।।
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव।।
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप।।7।।
बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत।।
मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास।।8।।
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं।।
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं।।

दोहा/सोरठा
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल।।113।।

चौपाई
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे।।
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी।।
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई।।
सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए।।

*************************
************************************

*************
6.112
चौपाई
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।।
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ।।
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।।
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो।।
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं।।
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा।।
*************

"भक्ति का वरदान - १६. श्री विभीषण जी"

"भक्ति का वरदान - १६. श्री विभीषण जी"

दोहा/सोरठा
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।।

चौपाई
अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।।
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।।

दोहा/सोरठा
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।।

चौपाई
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।

दोहा/सोरठा
-अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।।

चौपाई
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।

दोहा/सोरठा
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।।

चौपाई
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी।।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।

दोहा/सोरठा
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।।

चौपाई
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।

*************************
**************************************

शनिवार, 20 अगस्त 2016

"श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव" २०१६ आमंत्रण-पत्र

"श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव" २०१६ आमंत्रण-पत्र 


"जय श्री कृष्ण"

"भगवान् की महती कृपा और प्रेरणा से, हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी, हम लोग "श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव" मना रहें हैं। आप सभी सपरिवार, इसमें सम्मलित होकर, भगवत-भक्ति का लाभ लें।"
 
तिथि - 25-08-2016 (गुरुवार)
समय - रात्रि 9.00 बजे से 
स्थान - मयूर विहार फेज २, नई दिल्ली  
संपर्क - स्वाति & अमित @ 8130443330 

********************
********************************
************************************************

रविवार, 14 अगस्त 2016

"भक्ति का वरदान - १५. श्री हनुमान जी"

"भक्ति का वरदान - १५. श्री हनुमान जी (५/३३/१) भक्ति"

कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।।
साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।

दोहा/सोरठा
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।।

चौपाई
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।

**************************
***************************************

"भक्ति का वरदान - १४. स्वयंप्रभा"

"भक्ति का वरदान - १४. स्वयंप्रभा (४/२४/८) भक्ति"

चौपाई
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा।।
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं।।
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने।।
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना।।
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा।।
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।।
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा।।
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा।।

दोहा/सोरठा
दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज।।24।।

चौपाई
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा।।
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना।।
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए।।
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई।।
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू।।
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा।।
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा।।
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही।।

दोहा/सोरठा
बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस ।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस।।25।।

 ********************
************************************


"भक्ति का वरदान - १३. सुग्रीव जी"

"भक्ति का वरदान - १३. सुग्रीव जी (४/६/२१) भक्ति"

बार बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा।।
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।।
सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई।।
ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तब पद अवराधक।।
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं।।
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।।
सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई।।
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।
सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी।।
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई।।

चौपाई
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।।
अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी।।
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया।।
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई।।
तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।।
अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई।।

दोहा/सोरठा
एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ।।21।।

*******************
******************************

"भक्ति का वरदान - १२. तारा"

"भक्ति का वरदान - १२. तारा (४/१०/६) चरणों में प्रेम"



चौपाई
राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा।।
नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा।।
तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।।
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी।।

पुत्र अंगद


*********************
******************************

"भक्ति का वरदान - ११. बाली"

"भक्ति का वरदान - ११. बाली (४/९/१०-११) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम"

चौपाई
परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें।।
स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ।।
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा।।
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा।।
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई।।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा।।
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।।
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी।।

दोहा/सोरठा
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि।।9।।

चौपाई
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी।।
अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना।।
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।।
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी।।
मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा।।

छंद
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं।।
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही।।1।।
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ।।2।।

दोहा/सोरठा
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग।।10।।

Continue...

*********************
************************************

"भक्ति का वरदान - १०. सबरी"

"भक्ति का वरदान - १०. सबरी (३/३५/७) प्रेम"

चौपाई
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी।।
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी।।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

दोहा/सोरठा
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।35।।

चौपाई
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी।।
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा।।
बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई।।

छंद
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू।।

दोहा/सोरठा
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि।।36।।

continue.....

**********************
*******************************

"भक्ति का वरदान - ९. जटायु"

"भक्ति का वरदान -  ९. जटायु (३/३१/१८, ३/३२) हृदय में निवास

चौपाई
गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा।।
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी।।

छंद
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही।।
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं।।1।।
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं।।
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं।।2।
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं।।
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई।।3।।
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा।।
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी।।4।।

दोहा/सोरठा
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम।।32।।

continue

************************
***************************************

रविवार, 17 जुलाई 2016

"भक्ति का वरदान - ८. अगस्त जी"

"भक्ति का वरदान - ८. अगस्त जी (३/१२/१०-११) हृदय में निवास

चौपाई
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा।।
बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ।।
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं।।
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई।।
पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा।।
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ।।
नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा।।
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही।।
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए।।
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई।।
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी।।
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा।।
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा।।

दोहा/सोरठा
मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर।।12।।

चौपाई
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही।।
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ।।
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही।।
मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी।।
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी।।
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया।।
जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना।।
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला।।
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं।।
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता।।
अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा।।
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।।
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ।।
संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई।।
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ।।
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू।।
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया।।
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई।।
कणिकाएँ 
********************
**************************************

"भक्ति का वरदान - ७. सुतीक्ष्ण जी"

 ७. सुतीक्ष्ण जी (३/१०/२६; ३/११) हृदय में निवास

चौपाई
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना।।
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक।।
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा।।
हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया।।
सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई।।
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं।।
नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा।।
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की।।
होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन।।
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा।।
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई।।
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा।।
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा।।
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए।।
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा।।
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा।।
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें।।
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा।।
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी।।
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई।।
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला।।
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा।।

दोहा/सोरठा
तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार।।10।।

चौपाई
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी।।
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी।।
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं।।
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं।।
मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः।।
निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः।।
अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं।।
हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं।।
संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः।।
भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः।।
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं।।
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं।।
भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः।।
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः।।
अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः।।
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः।।
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी।।
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी।।
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी।।
जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे।।
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए।।
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही।।
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा।।
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई।।
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना।।
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा।।

दोहा/सोरठा
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम।।11।।

चौपाई
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा।।


*********************
*********************************

"भक्ति का वरदान - ६. शरभंग जी "



"भक्ति का वरदान - ६. शरभंग जी (३/७/७; ३/८) हृदय में निवास


पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा।।

दोहा/सोरठा
देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग।।7।।

चौपाई
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला।।
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा।।
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती।।
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा।।
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।।
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा।।
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा।।

दोहा/सोरठा
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।।8।।


चौपाई
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा।।
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ।।
रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी।।
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा।।


****************************
***********************************

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

"भक्ति का वरदान - ५. श्री भरत जी"

"भक्ति का वरदान -  ५. श्री भरत जी (२/२०४) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम

दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।204।।


continue....
 **********************
***********************************

"भक्ति का वरदान - ४. भरद्वाज जी"

"भक्ति का वरदान - ४. भरद्वाज जी (२/१०६/८) चरणों में प्रेम


को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई।।
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा।।
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी।।
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पुजि जथाबिधि तीरथ देवा।।
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए।।
मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई।।
दो0- दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि।।106।।
–*–*–
कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे।।
कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के।।
सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए।।
भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरव्दाज मृदु बचन उचारे।।
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू।।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।।
लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हारें दरस आस सब पूजी।।
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू।।
दो0-करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार।।
–*–*–
सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने।।
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा।।
सो बड सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू।।
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं।।
यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी।।
भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए।।
राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोयन लाहू।।
देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई।।

continue

*********************
*******************************

"भक्ति का वरदान - ३. केवट"



"भक्ति का वरदान - ३ केवट (२/१०२) भक्ति ३


........सुरसरि तीर आपु तब आए।।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।।
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।
छं0-पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।
सो0-सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।100।।
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई।।
वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू।।
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी।।
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।।
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं।।
दो0-पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।101।।
–*–*–
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता।।
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा।।
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी।।
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।।
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।।
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।।
फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।।
दो0- बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।।102।।










continue......

*****************
*********************************

मंगलवार, 28 जून 2016

बुधवार, 22 जून 2016

"भक्ति का वरदान - २. अहल्या जी"

"भक्ति का वरदान - २. अहल्या जी"


दोहा-गौतम नारि  श्राप बस उपल देह धरि धीर । 
         चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ 
"गौतम मुनिकी स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किये बड़े धीरजसे आपके चरणकमलोंकी धूलि चाहती है । हे रघुवीर!इसपर कृपा कीजिये "

छंद -परसत पद पावन  सोक नसावन प्रगट भई  तपपुंज सही । 
    देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि सही  ॥
"श्रीरामजीके पवित्र और शोकको नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गयी। भक्तों को सुख देनेवाले श्रीरघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गयी "

   अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही । 
   अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
"अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गयी । उसका शरीर पुलकित हो उठा;मुख से वचन कहने में नहीं आते थे । वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गयी और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनन्द के आँसुओं )की धारा बहने लगी "


धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ  चीन्हा रघुपति कृपाँ  भगति पाई । 
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥
"फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्रीरघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की । तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने [इस प्रकार]स्तुति प्रारम्भ की -हे ज्ञान से जानने योग्य श्रीरघुनाथजी!आपकी जय हो "

मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई । 
राजीव बिलोचन भव  भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥ 
"मैं [सहज ही]अपवित्र स्त्री हूँ;और हे प्रभो!आप जगत को पवित्र करनेवाले,भक्तोंको सुख देनेवाले और रावण के शत्रु हैं । हे कमलनयन!हे संसार (जन्म मृत्यु )के भय से छुड़ानेवाले!मैं आपकी शरण आयी हूँ,[मेरी]रक्षा कीजिये,रक्षा कीजिये "
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना । 
देखेउँ भरि लोचन हरि  भव  मोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥ 
"मुनिने जो मुझे शाप दिया,सो बहुत ही अच्छा किया । मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह मल्टी हूँ जिसके कारण  मैंने संसारसे छुड़ाने वाले श्रीहरि (आप )को नेत्र भरकर देखा । इसी(आपके दर्शन )को शंकर जी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं।   "
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर  आना । 
पद कमल परागा रस  अनुरागा मन  मन मधुप करै  पाना ।
"हे प्रभो!मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ,मेरी एक विनती है। हे नाथ!मैं और कोई वर नहीं माँगती,केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मनरूपी भौंरा आपके चरणकमल की रजके  प्रेमरूपी रसका सदा पान करता रहे"

जेहिं  पद सुरसरिता परम पुनीता  प्रगट भई सिव सीस धरी । 
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर  धरेउ कृपाल हरी ॥
"जिन चरणोंसे परमपवित्र देवनदी गङ्गाजी प्रकट हुईं,जिन्हें शिवजी ने सिरपर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं,कृपालु हरि (आप )ने उन्हीं को मेरे सिरपर रखा "

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि  चरन  परी । 
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै  पति लोक अनंद  भरी ॥
"इस प्रकार [स्तुति करती हुई ]बार बार भगवानके चरणों में गिरकर जो मनको बहुत ही अच्छा लगा,उस वर को पाकर गौतमकी स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोकको चली गयी "

दोहा -अस प्रभु दीनबंधु हरि  कारन रहित दयाल । 
       तुलसिदास  सठ  तेहि भजु छाड़ि  कपट जंजाल ॥ 
"प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं हे शठ [मन ]!तू कपट-जंजाल छोड़ कर उन्हीं का भजन कर "

*****************
****************************************

"भक्ति का वरदान - १. शतरूपा जी"

"भक्ति का वरदान - १. शतरूपा जी"

सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।।142।।

दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग।।143।।

दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार।।144।।
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम।।146।।
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि।।148।।
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।149।।
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई।।
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।।
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।।
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु।।150।।
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।।
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।

सोमवार, 20 जून 2016

"भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग २"

                                                                                  "भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग १" से आगे 
           आज की भगवत भक्ति चर्चा में आप सभी का फिर से स्वागत करता हूँ। हम सब ने यह चर्चा, रामचरितमानस की कथाओं में आये उन भक्तों पर शुरू की थी, जिन्होंने भगवान् से वरदान के रूप में केवल और केवल उनकी भक्ति ही मांगी। इससे पहले वाली चर्चा में हम सब ने देखा, मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है भगवान् के चरणों में जिस किसी भी प्रकार से हो प्रेम हो जाना। क्योंकि प्रभु के चरणों में प्रेम हो जाने के बाद स्वतः ही सारे काम बन जाते हैं। सब कुछ आनंदमय हो जाता है। जब भगवान् के चरणों में प्रेम होगा तो अंतःकरण में स्थित परमपिता परमेस्वर का ह्रदय में दर्शन होगा। जो कि सब मंगलों की खान है। आज हमलोग देखेगें कि भगवान् के चरणों में प्रेम कैसे हो, इसको समझने की कोशिश करेगें। भगवान के चरणों में प्रेम तभी होगा जब आप भगवान् को ठीक-ठीक जान लेगें। अब कुछ लोग कह सकते हैं भगवान को ठीक-ठीक जान पाना तो संभव नहीं है क्योंकि वेद-शास्त्र ऐसा ही कहते हैं। हाँ, ये बात सही है कि भगवान् को पूर्ण रूपेण जाना जा सकना कठिन है, लेकिन आप प्रयास तो कर सकते हैं। पूरे-पूरे न सही कुछ तो जान ही सकते हैं। तो भगवान् को जाने कैसे? भगवान् को जानने और उनके चरणों में प्रेम का सबसे सहज रास्ता है- 'सत्संगति'। भगवान को जानने का तो आसान सा तरीका है, भगवान के प्रेमी भक्तों का संग और उनके पद चिन्हों का अनुकरण। इससे एक तो आप धीरे-धीरे भगवान् के बारे में जानने लगेगें और दूसरा भक्तों के संग और कृपादृष्टि से आप का भगवान् के चरणों में प्रेम भी जागृत होने लगेगा। भगवान् और भगवान् के भक्तों की कथाओं में प्रेम होने लगेगा। इस तरह दिनों-दिन आप की भक्ति दृढ होती जाएगी। फिर आप अपने अंतःकारण में भगवान का साक्षात्कार कर सकेगें।
           तो लक्ष्य है, भगवान् के चरणों में प्रेम होना तथा अंत में भगवान का ह्रदय में निवास और उनका सतत दर्शन। इसके लिए ऐसे संतों का संग करना जिन्हें भगवान् के चरणों में प्रेम है और जिनके मन और ह्रदय में स्वयं भगवान् रहते हैं। साथ ही साथ ऐसे साधु-संतों के पद चिन्हों का अनुकरण करना ताकि, हम अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकें। अब प्रश्न है, किनके मन और ह्रदय में भगवान् रहते हैं और ऐसे संत की पहचान हो, उनके स्वाभाव कैसे होते हैं? ऐसे तो भगवान् की तरह ही भगवान् के भक्तों की कथायें, गुण-स्वाभाव भी अनन्त हैं, जिनका सही-सही पता पाना कठिन है। फिर भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में इनका कुछ वर्णन किया है। गोस्वामी जी ने बताया है कि भगवान् किनके ह्रदय में निवास करते हैं। मानस में प्रसंग आता है, जब भगवान् राम माता सीता जी और भाई लक्ष्मण जी साथ वन गए तो उन्होंने वाल्मीकि जी से रहने के लिए स्थान पूँछा। तब वाल्मीकि जी ने भगवान के निवास के १४ स्थान बताये, जहाँ भगवान् रहते हैं। और वो प्रसंग कुछ इस प्रकार है। आइए हम सब मिल कर इसका मन से पाठ करें:
दो0-पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ।।१२७॥  

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने।।
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी।।
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।

दो0-जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु।।१२८।।

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।

दो0-सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।१२९।।

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।

दो0-स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।१३०।।

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।
दो0-जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।१३१।।

- रा . च . मा . २/१२७-१३१ 

१. श्रवण समुद्र समान - ह्रदय में निवास 
२. आँख चातक  के समान - ह्रदय में निवास
३. जीभ हंस की तरह - ह्रदय में निवास
४. भगवत सेवा, देवता, गुरु और ब्राह्मण का आदर, भगवान् की पूजा और पूर्ण शरणागति - मन में निवास
५. हरि नाम जप, ब्राह्मणों  की सेवा, गुरु भक्ति और केवल भगवान् के चरणों में प्रेम - मन में निवास
६. काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से जो दूर रहता हो - ह्रदय में निवास
७. सभी का भला चाहने वाला और अनन्य शरणागति - मन में निवास
८. पराये स्त्री और धन से दूर और आप से प्राणों के समान प्रेम - मन में निवास
९. जिसने सारे रिस्तेदार आप को ही मन लिया है - मन में निवास
१०. जो दूसरों के अवगुण को छोड़ उसके गुणों को ही ध्यान में रखता हो और कष्ट सह कर भी विप्र और गाय की सेवा करता हो - मन में निवास
११. जो आप का गुण  और अपना दोष देखता हो, जिसे केवल आप का ही भरोसा हो और आपके भक्त प्रिय हों - ह्रदय में निवास
१२. जो सब कुछ छोड़  कर आप की ही शरण में आ गया हो - ह्रदय में निवास
१३. जो सर्वत्र आप को ही देखता हो - ह्रदय में निवास
१४.  जिसे आप के प्रेम को छोड़  कर और कुछ भी नहीं चाहिए - मन में निवास
७-ह्रदय में निवास और ७-मन में निवास

****************************
************************************************** 

शुक्रवार, 17 जून 2016

"भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग १"

           आज के भगवत चर्चा में आप सभी का स्वागत है। आप सभी महानुभाव ने जो अपना बहुमूल्य समय निकाल के इस हरि नाम चर्चा में शामिल हुए, इसके लिए आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें, धन्यवाद, साधुवाद। ऐसे तो अक्सर हम सभी किसी न किसी भगवत विषय पर चर्चा करते आये हैं, पर आज की चर्चा मेरे लिए कुछ खास है। बहुत दिनों से इच्छा थी कि "रामचरित-मानस" में आये भक्तों पर एक चर्चा श्रृंखला शुरू की जाये। भगवत कृपा और आप लोगों के सहयोग से आज इसका आंरभ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह विचार, बहुत समय पहले रामचरितमानस का मनन करते समय, मन में आया था। मानस में बहुतों बार प्रसंग आया है, जब भक्त अपनी साधना से, अपनी तपस्या से, अपनी भक्ति से भगवान को प्रशन्न कर लेतें हैं, तो भगवान् साक्षात दर्शन देतें हैं और दर्शन का लाभ दे कर वर मांगने को कहते हैं। ऐसे में भक्त हमेशा, केवल और केवल भगवान् की भक्ति का ही वरदान मांगते हैं। ऐसे ही एक प्रसंग का मनन करते समय, यह विचार मन में आया कि क्यों न भगवान के भक्तों पर एक चर्चा शुरू की जाये और इसमें खास कर उन प्रसंगों को शामिल किया जाये, जहाँ पर भक्तों ने भगवान् से वरदान रूप में केवल और बस केवल भक्ति की ही मांग की है। अपनी कुछ लापरवाही और कुछ आलसपन की वजहों से ये छूटता ही जा रहा था। आज आपलोगों के सहयोग से, वह शुभदिन आ पड़ा है, जब यह चर्चा शुरू करने का परम सौभाग्य मिला है। चलिए हम सब मिलकर अब इस चर्चा श्रृंखला की शुरुआत करें।         
           चर्चा जब रामचरितमानस के भक्तों की हो तो सबसे पहले जिनका नाम जहन में आता है वो हैं, परम पूज्य श्री गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज। और इसका कारण भी है, "रामायण" की कथा को जनमानस के रोम-रोम में पहुँचाने का श्रेय परम पूज्य गोस्वामीतुलसीदासजी महाराज को जाता है। एक समय था जब पठन-पाठन का ज्ञान, अपने कठिन व्याकरण की वजहों से केवल कुछ पंडितों के पास रह गया था। साधारण जनों के लिए, इसको समझना अत्यन्त ही कठिन और असम्भव सा हो गया था। उस समय में, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए, मूर्धन्य विद्वानों का विरोध झेलते हुए, समाज में प्रचलित धारणाओं(उस समय ज्ञान और विद्वता का प्रतीक संस्कृत भाषा ही सर्वमान्य भाषा थी) को तोड़ते हुए, उन्होंने "रामचरितमानस" रूपी अमूल्य निधि हम सबको दी। और यह ग्रन्थ, तब से इस धरा के कण-कण में रच-बस गया है। सदियाँ बीत गयीं लेकिन आज भी यह उतना ही नवीन है जितना उस समय में था। पश्चिम के किसी दार्शनिक ने कहा है, "उत्तर भारत की जनता को अगर जानना-समझना है तो सबसे पहले 'रामचरितमानस' को जानना और समझाना होगा।" ये बात बस केवल किसी दार्शनिक के गूढ़ दर्शन की बात नहीं, रामचरितमानस वास्तव में भारतियों में कुछ इस तरह से रचा-बसा है कि अगर इसको भारत की आत्मा कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ये तो रही जन सामान्य की बात, और जहाँ तक भक्त, साधक और भक्ति की बात है, इसके बिना भगवत-भक्ति की परिकल्पना भी संभव नहीं है। कहते हैं, भारत भूमि के कण-कण में भक्ति, ज्ञान और दर्शन की ज्योति प्रज्वलित होते रहती है। प्रकाण्ड विद्वत जनों की बात क्या कहें, यहाँ उत्कृष्ट ज्ञान की गंगा जन-जन में प्रवाहित हो रही है। इसमें रामचरितमानस का एक अभूतपूर्व योगदान है। ऐसे में अगर तुलसीदासजी को आधुनिक गुरुओं की अग्रीम पंक्ति में रखा जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
           गुरु साक्षात् भगवत स्वरुप ही होते हैं, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर सहज में ही ले आते हैं। इनके बारे में कहा गया है,
"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर् विष्णुः र्गुरुर्देवो महेश्वरः|
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
गुरु "गुरु ब्रह्मा हैं ,गुरु विष्णु हैं ,गुरु देवो के देव महादेव हैं और गुरु ही परम ब्रह्म हैं। हम सब ऐसे परम दयालु-कृपालु गुरु को नमन करते हैं, उनकी शरण में जाते हैं।"
इतना ही नहीं कबीरदास जी ने तो गुरुओं को देवताओं से भी बड़ा बताया, क्योंकि देवताओं की पहचान तो तब होगी न जब गुरु अज्ञान रूपी पर्दे को सामने से हटा लें ,  
"गुरु गोबिन्द दोउ खडे काके लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने गोबिन्द दियो बताय॥" 
 -कबीर
आइए सर्व प्रथम हम सब इन्हीं परम पूज्य गुरुओं के चरण कमलों की वंदना करते हुए भगवत-भक्तों की यह चर्चा श्रृंखला शुरू करें। "भक्ति का वरदान", इस चर्चा श्रृंखला में हम सब "रामचरितमानस" के कथा-प्रसंगों में आए उन भक्तों की चर्चा करेगें, जिन्होंने भगवान् से वरदान रूप में केवल और केवल उनकी भक्ति ही माँगी है। जहाँ तक याद आ रहा है, मानस में कुल ऐसे २१ भगवत भक्तों की कथाओं का वर्णन आता है। अगर मेरी गणना  में कोई त्रुटि हो तो सहृदय भक्तगण इसके लिए मुझे क्षमा करेगें और भूल सुधार निमित्त पथ प्रदर्शित भी करेगें। मानस में भक्ति का वरदान रूपी प्रसंग कुछ इस प्रकार आया है,
१. बालकाण्ड :
       १. शतरूपा जी (१/१५०) चरणों में प्रेम
       २. अहल्या जी (१/२१०/१-१६) चरणों में प्रेम
२. अयोध्याकाण्ड : 
       ३. केवट (२/१०२) भक्ति
       ४. भरद्वाज जी (२/१०६/८) चरणों में प्रेम
       ५. श्री भरत जी (२/२०४) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम
३. अरण्यकाण्ड :
       ६. शरभंग जी (३/७/७; ३/८) हृदय में निवास
       ७. सुतीक्ष्ण जी (३/१०/२६; ३/११) हृदय में निवास 
       ८. अगस्त जी (३/१२/१०-११) हृदय में निवास
       ९. जटायु (३/३१/१८, ३/३२) हृदय में निवास
      १०. सबरी (३/३५/७) प्रेम
४. किष्किन्धाकाण्ड :
      ११. बाली (४/९/१०-११) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम
      १२. तारा (४/१०/६) चरणों में प्रेम
      १३. सुग्रीव जी (४/६/२१) भक्ति
      १४. स्वयंप्रभा (४/२४/८) भक्ति
५. सुन्दरकाण्ड :
      १५. श्री हनुमान जी (५/३३/१) भक्ति
      १६. श्री विभीषण जी (५/४८/७) भक्ति
६. लंकाकाण्ड :
      १७. इन्द्र (६/११२/१५) हृदय में निवास 
      १८. श्री शिवजी (४/१६४/७) हृदय में निवास 
७. उत्तरकाण्ड :
            श्री शंकर जी (७/१४) चरणों में प्रेम
      १९ . सनकादि मुनि (३/३४) हृदय में निवास , ३ -टाइम्स
      २०. काकभुसुंडि जी (७/८४) भक्ति
      २१. गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज (७/१३०'') प्रेम

अगर गौर से विचार करें तो पता चलता है, भक्तों ने भक्ति के रूप में मूलतः दो चीजों की प्रार्थना की है,माँग की है। वह है, पहला चरणों में प्रेम और दूसरा ह्रदय में निवास। सम्पूर्ण रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने इन दो विषयों पर बहुत ज्यादा ध्यान दिए हैं। भक्ति के बस दो ही तत्व हैं, पहला भगवान के चरणों में प्रेम और दूसरा भगवान् का ह्रदय में निवास या यूँ कहें सबके ह्रदय में बसने वाले पभु का ह्रदय में दर्शन।  तो पहला प्रयास ये होना चाहिए, जिस किसी भी प्रकार से भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाये। और जब प्रभु के चरणों में प्रेम हो जायेगा तो स्वतः ही करुणानिधान आपके ह्रदय में आ विराजेंगे, दर्शन देगें। जब ह्रदय में आ बसेगें तो चरणों में और भी ज्यादा प्रेम बढ़ेगा और ज्यादा श्रद्धा होगी, इससे और भी भक्ति दृढ होगी, और आपका ह्रदय भगवान् का स्थाई निवास हो जायेगा। चरणों में प्रेम ---> ह्रदय में निवास ---> ह्रदय में निवास ---> चरणों , में प्रेम : भक्ति और प्रेम का यह सिलसिला अनवरत रूप से चलता रगेगा और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहेगी। आप सब ने ध्यान दिया होगा, गोस्वामी जी ने भी बालकाण्ड से उत्तरकाण्ड तक भक्ति का यही क्रम मानस में दर्शाया है।
"भक्ति का वरदान"

पहले चार बार चरणों में प्रेम, 
फिर भक्ति, 
इसके बाद चार बार ह्रदय में निवास, 
फिर प्रेम । 

दो बार चरणों में प्रेम, 
 चार बार भक्ति, 
दो बार ह्रदय में निवास । 

चरणों में प्रेम,
ह्रदय में निवास,
भक्ति, और 
प्रेम ।।

ऐसे भगवत-भक्ति में कोई नियम और शर्तें नहीं होती हैं(जैसे शंकर भगवान्, पहले ह्रदय में निवास फिर चरणों में प्रेम), आप कहीं से प्रारंभ करें भगवत दर्शन निश्चित है। फिर भी हम सब साधारण जीवों को भगवत भक्ति आसानी से समझा में आ जाये, इस कारण साधु-संतों थोड़े बहुत सुगम रस्ते बताये हैं। 
तो गोस्वामी जी कहते हैं, जीवन का अंतिम लक्ष्य भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाना है, अंतिम इसलिए कि इसके बाद आप का काम ख़त्म हो जाता है। इसके बाद भगवान् का काम शुरू होता, इसके आगे आपको कुछ करने की जरुरत नहीं, वो आप के लिए आपका सब काम करते हैं। तो भगवान् के चरणों में प्रेम कैसे हो यह प्रश्न है? इसका उत्तर हम सब अगली चर्चा में सुनेगें समझेगें। आज की चर्चा यहीं पर समाप्त काटें हैं। परमपिता परेश्वर आप सब का कल्याण करें, सदबुद्धि दें, सन्मार्ग पर ले चलें। हरि  ॐ, हरि  ॐ, हरि ॐ...   
**************************
*********************************************