"भाग १" से आगे
निष्काम भक्ति क्यों? कामना रहित भक्ति क्यों? पिछली चर्चा में हमने देखा, हम सबको भगवत भक्ति करनी चाहिए, पर हमारी भक्ति, भक्ति होनी चाहिए व्यापार नहीं। भगवान की भक्ति इसलिए नहीं करें कि वो आप की सारी मनोकामनाएं को पूर्ण करें। वो आपको धन-दौलत, गाड़ी-घर आदि दें। बल्कि भगवान की भक्ति, उनको सर्व शक्तिशाली, सारे ब्रह्माण्ड का एकमात्र कर्ता-धर्ता, और हम सबका पालनकर्ता पिता मान कर करें। उनसे प्रेम सहज और सरल होना चाहिए, किसी दिखावा या बाह्य आडम्बर के लिए नहीं। तो पिछली चर्चा में हमने देखा, जो हम दिन-रात भगवान से कुछ न कुछ मांगते रहते हैं, उसको छोड़ना है। एक तो मांगने से भक्ति, भक्ति न रह कर व्यापार हो जाती है, दूसरी मांगना एक बहुत बड़े खाई के समान है, जिसमें अगर आप एक बार गिरे तो निकलना मुश्किल हो जाता है। यदि आप ने कुछ कामना की, आपने कोई इच्छा की और वह पूर्ण हो गयी, तो फिर आपके मन में एक और कामना जन्म लेगी, फिर आप उसको पूर्ण करने के लिए प्रयासरत हो जायेगें। आप की एक कामना, दूसरी को, फिर दूसरी तीसरी को, तीसरी चौथी को, और ये सिलसिला फिर चलता जायेगा। मनुष्य की कामनाओं का कोई अंत नहीं, ऐसा कुछ नहीं, जिसको संसार में पा कर आप कहेंगें, बस अब और नहीं, अब हो गया। तो आपकी कामनाएं कभी भी ख़त्म नहीं होगीं। यही कारण है, आज सदियों से मनुष्य संसार में भटक रहा है, क्या गरीब क्या अमीर, क्या छोटा क्या बड़ा, हर कोई भाग रहा है, हर कोई एक अजीब सी दौड़ में शामिल हैं, सुबह से शाम तक, दिन से रात तक। तो अगर आप मांगने के रस्ते पर चल पड़े, तो शान्ति मिलने से रही, आपके भागम-भाग का जो सिलसिला चल रहा है, वह जारी रहेगा। तो ये रही ईच्छा पूर्ण होने की बात, और अगर कभी आपने कुछ माँगा और वह पूर्ण न हुआ तो, उससे मन में विक्षोभ पैदा होगा, और जैसे ही मन में विक्षोभ पैदा हुआ आपकी भक्ति जाती रहेगी, आपकी सारी श्रद्धा जाती रहेगी। यह बहुत ही आम है। आप सब ने देखा-सुना होगा, लोगों को किसी आश्रम से, किसी साधु से विरक्त होते हुए, यहाँ तक की वो पुलिस में शिकायत तक करने पहुँच जातें हैं। ये वही लोग होतें हैं, जो कल तक उन साधु की, उस आश्रम विशेष की गुणगान करते नहीं थकते थे, आज चाहते हैं, पुलिस करवाई कर उनको जेल में बंद करे। बात साफ है जब तक उनकी कामनाएं पूर्ण होती रहीं, तब तक तो सब ठीक था, लेकिन जैसे ही किसी एक कामना में कुछ अरंगा हुआ, सारी भक्ति जाती रही, सारी निष्ठा जाती रही। अब कोई साधु या कोई आश्रम आपकी हर मनोकामना को पूर्ण तो नहीं कर सकता है न। कोई तो छोड़िये वो आपकी एक भी मनोकामना को पूर्ण नहीं कर सकता। उसके पास अपनी कोई शक्ति है ही नहीं, जिससे वह आप के लिए कुछ कर सके। आप की कोई मनोकामना पूर्ण होती है, तो वो केवल और केवल भगवान की शक्ति से ही होता है। लेकिन भगवान जीवों को उसके कर्मों के हिसाब से ही फल देते हैं। और उनके दरबार में कोई भेदभाव नहीं होता, कोई सिफारिस नहीं चलती, कोई रिश्वत काम नहीं करता। तो जहाँ कामना होगी, जहाँ आप मांगने के लिए जायेंगें, कुछ दिनों में वहां से वैराग्य होना तय है, वहां से विरक्ति होनी तय है। मनुष्यों की कामनाएं अनंत हैं और उसके पूर्ण होने की संभावना का एक सीमा है, यह आपके अच्छे कर्मों पर निर्भर करता है। मनुष्य जब तक माया के वष में है, तब तक उसकी कामनाएं बनती रहेंगी और वह संसार मर भटकता रहेगा। तो ये निश्चित है जब आप सकाम भक्ति करेंगें तो आप की कामनाओं के पूर्ण होने की एक सीमा होगी, वो एक न एक दिन अवश्य ही ख़त्म होगा। जिस दिन आपकी कामनाएं पूर्ण नहीं होगीं, उस दिन मन में विक्षोभ होगा, मन में द्वेष पैदा होगा, फिर आपकी भक्ति जाती रहेगी। तो सकाम भक्ति करने वालों का नास्तिक होने की संभावना बनी रहती है। जिस दिन आप की कोई इच्छा पूर्ण नहीं हुई की आपका विस्वास गया, आपका प्रेम गया और आप नास्तिक हुए।
और एक बात, जब आप किसी से प्रेम करें और वो भी आप से उतना ही प्रेम करे, तो ऐसे प्रेम में कुछ नया नहीं है। संसार में हर जगह ये देखने-सुनने को मिल जाता है। यहाँ तक की जानवरों तक में ऐसा प्रेम देखने को मिल जाता है।यदि आपको प्रेम में प्रेम न मिले तो भी आप प्रेम करते रहें, ये थोड़ा अलग है, लेकिन ऐसा प्रेम भी कभी-कभार सुनने को मिल जाता है। बिलकुल आम नहीं है, लेकिन होता है, थोड़ा कम लोगों को होता है, पर होता है, एक तरफ़ा प्यार भी होता है। लेकिन बात तो तब होगी, जब आपके प्रेम में आपको दुत्कार मिले, और फिर भी आप प्रेम किये जा रहें हों। ऐसा प्रेम सच्चा प्रेम है, बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी इच्छा के, बिना किसी कामना के। और अगर कभी आपको ऐसा प्रेम भगवान से हो जाये, तो समझिए आप का जीवन सफल हो गया। आपकी भक्ति पूर्ण हो गयी। प्रेम मिले तो प्रेम हो ये आम है, प्रेम न भी मिले, प्रेम के बदले दुत्कार भी मिले, तो भी प्रेम हो, और वैसा ही प्रेम हो, बिल्कुल पहले जैसा प्रेम हो, तो बात बन जाएगी। फिर आप प्रेम के बादशाह होगें, वो प्रेम सच्चा होगा वो भक्ति सच्ची होगी।
और एक बात, जब आप किसी से प्रेम करें और वो भी आप से उतना ही प्रेम करे, तो ऐसे प्रेम में कुछ नया नहीं है। संसार में हर जगह ये देखने-सुनने को मिल जाता है। यहाँ तक की जानवरों तक में ऐसा प्रेम देखने को मिल जाता है।यदि आपको प्रेम में प्रेम न मिले तो भी आप प्रेम करते रहें, ये थोड़ा अलग है, लेकिन ऐसा प्रेम भी कभी-कभार सुनने को मिल जाता है। बिलकुल आम नहीं है, लेकिन होता है, थोड़ा कम लोगों को होता है, पर होता है, एक तरफ़ा प्यार भी होता है। लेकिन बात तो तब होगी, जब आपके प्रेम में आपको दुत्कार मिले, और फिर भी आप प्रेम किये जा रहें हों। ऐसा प्रेम सच्चा प्रेम है, बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी इच्छा के, बिना किसी कामना के। और अगर कभी आपको ऐसा प्रेम भगवान से हो जाये, तो समझिए आप का जीवन सफल हो गया। आपकी भक्ति पूर्ण हो गयी। प्रेम मिले तो प्रेम हो ये आम है, प्रेम न भी मिले, प्रेम के बदले दुत्कार भी मिले, तो भी प्रेम हो, और वैसा ही प्रेम हो, बिल्कुल पहले जैसा प्रेम हो, तो बात बन जाएगी। फिर आप प्रेम के बादशाह होगें, वो प्रेम सच्चा होगा वो भक्ति सच्ची होगी।
तो आइए निष्काम भक्ति के कुछ और पहलुओं पर विचार करें। फिर से उसी प्रश्न पर विचार करें कि कामना रहित भक्ति क्यों, निष्काम भक्ति क्यों? आखिर क्यों वेदों में, उपनिषदों में और आदि सभी धर्मग्रंथों में, सभी जगह कामना रहित भक्ति करने की बात कही गयी। पर क्या कभी कामना रहित कर्म किये जा सकते हैं? वस्तुतः नहीं, कामना रहित कर्म कठिन है, मुश्किल है, क्यूँकि हम जब भी कुछ कर्म करते हैं, उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य होता है, कोई न कोई मकसद होता है। या यूँ कहें कोई मकसद कोई उद्देश्य ही हमें कर्म करने को प्रेरित करते हैं। जब कोई मकसद न हो, कोई मंजिल न हो तो कर्म करना और करना आसान नहीं होगा। संसार में, समाज में लगभग सारा का सारा काम, किसी न किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए होता है। आपने किसी की मदद करना की, तो बदले में अपेक्षा करना कि वह भी आप की मदद करे, मंदिरों में दान दिए तो, पुण्य कामना और समाज में प्रतिष्ठा पाने का उद्देश्य, बड़ों को आदर दिए, तो अच्छा बनने का उद्देश्य। यहाँ तक की रसगुल्ला खाने में, जीभ की संतुष्टि का उद्देश्य। तो हम जो भी काम करते हैं या करने की सोचते हैं, उसके पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य होता है, कुछ न कुछ कामना होती है कुछ न कुछ मंशा होती है। तो संसार में अच्छे मंशा से अच्छे कर्म करना स्वागत योग्य है। वेदों ने भी वर्णाश्रम धर्म की बात इसी अच्छाई को ध्यान में रख कर की है। संसार सुचारू रूप से चलता रहे इसके लिए यह बहुत जरुरी है, कि हम सब अपने-अपने लिए वर्णित कर्मों को सुचारू रूप से करते रहें। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर वेदों ने ऐसा क्यों कहा, हमारी भक्ति कामना रहित होनी चाहिए? आइये अब इस पर विचार करें।
वेदों में जब भी भक्ति की बात आती है, वहाँ हमेशा निष्काम भक्ति की ही बात होती है। भक्ति माने निष्काम भक्ति और कुछ नहीं, इसमें कोई किन्तु परन्तु नहीं। अपनी इच्छओं को ध्यान में रख कर की गयी भक्ति को वेद, भक्ति की संज्ञा नहीं देता। लेकिन वहीं वेद वर्णाश्रम कर्मों के लिए भी कहता है। ऐसा क्यों? तो पहली बात भक्ति कोई कर्म नहीं। भागवत भक्ति के अलावा आप जो कुछ भी करते हैं, वो सब के सब कर्म हैं। जैसे आप दौड़ रहें हों तो दौड़ने का कर्म, सो रहें हो तो सोने का कर्म, पत्थर तोड़ रहे हों तो पत्थर तोड़ने का कर्म। आप कुछ भी करें, वो सब का सब आप के कर्मों में जुटता जाता है। आप पूछेगें जो सब कुछ छोड़-छाड़ कर जंगल चला गया, हिमालय चला गया, उसका तो कोई कर्म नहीं होगा। नहीं ऐसा नहीं है, उसका भी कर्म होता है, अपने निहित कर्म, न करने का कर्म। आप कुछ न भी करें, तो भी वह न करना आपके कर्मों में गिना जायेगा। ऐसा इसलिए क्यूंकि, आपको यह मानव शरीर कुछ निश्चित कर्मों को करने के लिए दिया गया है, नहीं करेगें तो, न करने का कर्म तो जुड़ेगा ही। मनुष्य योनि में आप बिना कर्म किये एक क्षण को भी नहीं रह सकते हैं। तो आप कहेगें बात तो वहीँ की वहीँ रह गयी, कर्म किये बिना रह नहीं सकते, और बिना उद्देश्य के कर्म हो नहीं सकता तो फिर निष्काम भक्ति का क्या मतलब?
नहीं ऐसा नहीं है। भगवान के प्रति की गयी भक्ति, कर्म नहीं होती, बल्कि यह तो आपको कर्मों और उसके संचित फलों से मुक्ति दिलाने वाली होती है। इतना ही नहीं, भगवत भक्ति से आप सदा के लिए, अपने दुखों से छुटकारा पा सकते हैं, और उस असीम आनंद को पा सकते हैं, जिसके लिए आप जन्मों-जन्मों से भटक रहें हैं। किसी कामना से किया गया कर्म, एक प्रकार का व्यापार होता है, जिसमें आप एक हाथ से देतें हैं और दूसरे हाथ से लेतें हैं। और इस संसारीरक व्यापार में जो कुछ भी अच्छा या बुरा कमाया जाता है, जीव को उसी के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं। लेकिन भगवान की अनन्य भक्ति, कामना रहित भक्ति आप को सारे कर्मों से मुक्त कर देती है। वह कामना रहित भक्ति ही है, जो कि भगवान के माया से पड़े है और आप को भी माया से पड़े ले जाने में सक्षम है। मनुष्य की कामनाएं अनंत हैं और कर्म फल निश्चित, इस कारण आप की सारी कामनाएं पूर्ण नहीं हो सकती, और उन कामनाओं को पूर्ण करने के चक्कर में आप और कर्म बंधन में फसते जाते हैं। ये सिलसिला कभी न ख़त्म होने वाले चक्र में चलता रहता है और जीव जन्म दर जन्म दुःखों और कष्टों को भोगता, संसार में भटकता रहता है। कामना रहित भगवान की अनन्य भक्ति ही एक मात्र रास्ता है, जिस पर चल कर आप इन सबों से मुक्त हो सकतें हैं, और भगवतानन्द को प्राप्त कर सकते हैं।
तो भागवत भक्ति करें और वो भी बिना किसी इच्छा और कामना को लिए। अवश्य ही आप को भगवत प्राप्ति होगी। अब एक सवाल उठता है, कामना रहित भक्ति का प्रारंभ कैसे हो, अब चूँकि इतने जन्मों से संसार व्यापार में लगें हैं, इतनी आसानी से ये छूटती नहीं। बात बिलकुल सही है, कामना रहित भक्ति करना थोड़ा मुश्किल तो है, आदत जो हो गयी है, पर ये नामुमकिन नहीं। आप शुरू तो करें, अपने भरोसे नहीं, भगवान की शक्तियों के भरोसे, आप भक्ति के मार्ग पर पहला कदम तो बढ़ाएं फिर भगवान स्वयं आपको रास्ता दिखलाते जायेगें। आप शुरू-शुरू में इच्छा या कामना रख सकते हैं, लेकिन वो कामना और इच्छा भी भगवत भक्ति का ही हो। जैसे साधु-संतों का दर्शन हो, भगवत नाम-संकीर्तन का लाभ मिले, किसी भी प्रकार मंदिरों तीर्थों में जाने का सौभाग्य प्राप्त हो आदि। कुछ कामना भी हो तो वो भी भगवंत भक्ति के लिए ही हो। फिर धीरे-धीरे इन कामनाओं का भी त्याग करें। दयालु प्रभु आपकी हमेसा सहायता करेगें। सब का कल्याण हो, सब सुखी हों, सब आनंदमय हों, सब जगह शांति हो। हम सब यही प्रार्थना करें, सब मंगलमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ॥
नहीं ऐसा नहीं है। भगवान के प्रति की गयी भक्ति, कर्म नहीं होती, बल्कि यह तो आपको कर्मों और उसके संचित फलों से मुक्ति दिलाने वाली होती है। इतना ही नहीं, भगवत भक्ति से आप सदा के लिए, अपने दुखों से छुटकारा पा सकते हैं, और उस असीम आनंद को पा सकते हैं, जिसके लिए आप जन्मों-जन्मों से भटक रहें हैं। किसी कामना से किया गया कर्म, एक प्रकार का व्यापार होता है, जिसमें आप एक हाथ से देतें हैं और दूसरे हाथ से लेतें हैं। और इस संसारीरक व्यापार में जो कुछ भी अच्छा या बुरा कमाया जाता है, जीव को उसी के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं। लेकिन भगवान की अनन्य भक्ति, कामना रहित भक्ति आप को सारे कर्मों से मुक्त कर देती है। वह कामना रहित भक्ति ही है, जो कि भगवान के माया से पड़े है और आप को भी माया से पड़े ले जाने में सक्षम है। मनुष्य की कामनाएं अनंत हैं और कर्म फल निश्चित, इस कारण आप की सारी कामनाएं पूर्ण नहीं हो सकती, और उन कामनाओं को पूर्ण करने के चक्कर में आप और कर्म बंधन में फसते जाते हैं। ये सिलसिला कभी न ख़त्म होने वाले चक्र में चलता रहता है और जीव जन्म दर जन्म दुःखों और कष्टों को भोगता, संसार में भटकता रहता है। कामना रहित भगवान की अनन्य भक्ति ही एक मात्र रास्ता है, जिस पर चल कर आप इन सबों से मुक्त हो सकतें हैं, और भगवतानन्द को प्राप्त कर सकते हैं।
तो भागवत भक्ति करें और वो भी बिना किसी इच्छा और कामना को लिए। अवश्य ही आप को भगवत प्राप्ति होगी। अब एक सवाल उठता है, कामना रहित भक्ति का प्रारंभ कैसे हो, अब चूँकि इतने जन्मों से संसार व्यापार में लगें हैं, इतनी आसानी से ये छूटती नहीं। बात बिलकुल सही है, कामना रहित भक्ति करना थोड़ा मुश्किल तो है, आदत जो हो गयी है, पर ये नामुमकिन नहीं। आप शुरू तो करें, अपने भरोसे नहीं, भगवान की शक्तियों के भरोसे, आप भक्ति के मार्ग पर पहला कदम तो बढ़ाएं फिर भगवान स्वयं आपको रास्ता दिखलाते जायेगें। आप शुरू-शुरू में इच्छा या कामना रख सकते हैं, लेकिन वो कामना और इच्छा भी भगवत भक्ति का ही हो। जैसे साधु-संतों का दर्शन हो, भगवत नाम-संकीर्तन का लाभ मिले, किसी भी प्रकार मंदिरों तीर्थों में जाने का सौभाग्य प्राप्त हो आदि। कुछ कामना भी हो तो वो भी भगवंत भक्ति के लिए ही हो। फिर धीरे-धीरे इन कामनाओं का भी त्याग करें। दयालु प्रभु आपकी हमेसा सहायता करेगें। सब का कल्याण हो, सब सुखी हों, सब आनंदमय हों, सब जगह शांति हो। हम सब यही प्रार्थना करें, सब मंगलमय होगा, आनंदमय होगा। आज के लिए बस इतना ही। हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ॥
"अरथ न धरम न काम रूचि , गति न चहउँ निरबान ।
जनम जनम रति राम पद, यह बरदानु न आन ॥ "
- रा . च . मा . २/२०४
"मुझे न अर्थकी रूचि है,न धर्मकी ,न कामकी और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ । जन्म-जन्ममें मेरा श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम हो,बस यही वरदान माँगता हूँ,दूसरा कुछ नहीं "
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