शनिवार, 8 दिसंबर 2018

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता एक परिचय... भाग - २

तो गीता शुरू होती है, एक कथा से| कथा है, महाभारत की, हस्तिनापुर की राजगद्दी को अकेले पाने की चाहत में कौरवों के द्वारा पांडवों को युद्ध के मुहाने तक लाने की| शुरुआत होती है, एक प्रश्न और एक निर्णय से| प्रश्न, युद्ध के मैदान से बहुत दूर राजमहल के किसी कोने में बैठे धृतराष्ट्र का संजय से है कि "युद्ध में क्या हुआ?" प्रश्न, युद्ध का पूरा समाचार जानने का है | यह प्रश्न भी उस समय जब युद्ध रोकने के सारे रस्ते बंद कर दिए गए हों| और दूसरा एक निर्णय, एक निश्चय से कि "युद्ध मैं नहीं करूँगा"| और ये निर्णय है अर्जुन का| युद्ध की सारी तैयारी हो चुकी है, दोनों पक्षों ये योद्धा आमने-सामने हैं, युद्ध अब कभी भी आरंभ हो सकता है| रणभेरियाँ बज चुकी हैं, दोनों पक्षों के योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ तैयार बैठे हैं| तो ऐसे में अर्जुन ने एक निर्णय लिया कि "अब मैं युद्ध नहीं करूँगा, भले ही निहत्थे मारा क्यों न जाऊँ"|  

तो गीता की शुरुआत होती है, युद्ध के शुरुआत से, जहाँ दो पक्ष आमने सामने खड़े हैं हस्तिनापुर की राजगद्दी को पाने की चाहत में| यहाँ युद्ध को तीन लोग देख रहें हैं या देखने की इच्छा कर रहें हैं| पहला संजय की दृष्टि से धृतराष्ट्र, दूसरा धृतराष्ट्र पुत्र और हस्तिनापुर युवराज दुर्योधन और तीसरा पांडवों में से एक अर्जुन| तीन दृष्टि और तीन मनोस्थितियाँ| सबसे पहले धृतराष्ट्र की बात करें| एक राजा, जिसके पुत्र मोह ने पूरे राजपरिवार को यद्ध के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया| जब कुछ करना चाहिए, जब कुछ कर सकते थे तब तो कुछ किया नहीं| अपने अंधेपन के आर में अपनी पुत्र मोह रुपी दुर्बलता को छुपाते रहे| जब कुछ जानना चाहिए, जब कुछ जान सकते थे तब तो जाना नहीं कि क्या हो रहा है, तब यह जिज्ञासा नहीं की कि मेरे पुत्र क्या कर रहे हैं, पांडवों के पुत्र क्या कर रहें हैं | अब जब कुछ नहीं हो सकता, जब समय हाथ ने निकल चूका है (ये प्रश्न तब का है जब युद्ध शुरू हुए कुछ दिन बीत चूँके हैं, भीष्मपितामह वाण-शय्या पर गिरे पड़े हैं|) अब पूँछ रहें हैं, "युद्ध में क्या हुआ? मेरे पुत्र और पांडवों के पुत्र ने क्या किया"?  मन का मोह अभी भी खत्म नहीं हुआ है| महाभारत की लड़ाई का परिणाम पहले से पता था फिर भी घटनाओं पर अंधे बने रहे| और जब दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी हैं तो प्रश्न कर रहे हैं कि क्या हो रहा है? युद्ध में क्या हुआ? दोनों सेनाएँ क्या कर रहीं हैं? धृतराष्ट्र की यह दृष्टि तमोगुण का प्रतीक है| अपने लोभ, मोह, क्रोध के कारण उन्होंने ये स्थिति उत्पन्न की| 

दूसरी दृष्टि दुर्योधन की है| जो विपक्षी सेना को एक क्षत्रिय की भाँति देख रहा है| यह दृष्टि रजोगुण है| सामने जब युद्ध आ चूका हो तो अपने और पराये के पहचान की कोशिश भर है| शत्रुओं और मित्रों की शक्तियों को जान लेने की है| दुर्योधन अपने रजोगुण दृष्टि से युद्ध को देख रहा| हाँ कभी उसकी भी दृष्टि तमोगुणी हुआ करती थी| वह भी कभी लोभ से, क्रोध से, अभिमान से पांडवों को देखा करता| उसके मन में इच्छा थी पुरे राज्य पर एकक्षत्र राज करने की| इसी तमोगुण के कारण उसने भगवान श्रीकृष्ण तक को बंदी बनाने की बात तक कह डाली थी| लेकिन आज जब युद्ध की घड़ी नजदीक आ गयी तो सारा अभिमान जाता रहा| बेहोशी की अवस्था से होश में आ गया| सत्य उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था, अब उससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता था| उसकी तमोगुणी बुद्धि पीछे छूट गई और रजोगुणी बुद्धि ने शरीर और मन को नियंत्रित किया| अब वह एक क्षत्रिय की भाँति अपनी सेना का मनोबल बढ़ा रहा है| तो ये रजोगुण है| 

अब बात करते हैं, तीसरी दृष्टि की, अर्जुन के दृष्टि की| अर्जुन ने भी दोनों सेनाओं को आमने-सामने देखा| लेकिन इस दृष्टि में न तो आसक्ति थी और न ही अभिमान| न युद्ध जीतने की अभिलाषा और न हार जाने का गम| अर्जुन की दृष्टि सत्य की दृष्टि थी| दृष्टि निःश्छल थी, शांत थी, आसक्ति रहित थी| यह दृष्टि सात्त्विक दृष्टि थी| इसके पीछे धर्म और कुल की मर्यादा, शास्त्र ज्ञान, सत्य पर चलने की सपथ आदि था| अर्जुन, युद्ध तो करने आये थे लेकिन अभी भी मन के किसी एक कोने में सब ठीक नहीं हो रहा ऐसा सोच रहे थे| उन्हें अपने गांडीव पर भरोसा तो था, साथ ही पता भी था, अगर तीनों लोकों के योद्धा भी आ जायें, तो भी वे ही युद्ध को जीतेगें| लेकिन केवल युद्ध को  जीतना उनकी मंशा नहीं थी| मन में परिवार और कुल के कल्याण का भी भाव था| युद्ध जीतने के लिए तो आस्वस्थ थे, पर परिवार के बिख़ड़ने का डर मन में था| उन्होंने युद्ध जीतने के बाद, राजगद्दी से ज्यादा, गुरुजनों और परिवार के बड़े जनों के, मान और मर्यादा को अधिक महत्त्व दिया| तो अर्जुन की दृष्टि सत्य की दृष्टि थी| ये था उनका सत्त्वगुण| 

एक और दृष्टि थी जो, इन सबों से अलग थीं, जो युद्ध को एक अलग ही तरह से देख रहा थे| ये दृष्टि मान और अपमान, निंदा और प्रशंसा से परे थी| ये युद्ध को बिना राग और भय के देख रहे थे| ये दृष्टि सम्यक दृष्टि थी| ये दृष्टि थी कृष्ण की, जो युद्ध के मैदान में होते हुए भी वहां से कोसों दूर थे| उनकी दृष्टि प्राकृतिक गुणों से परे थी| वे सब कुछ देखते हुए भी कुछ भी नहीं देख रहे हों ऐसा व्यवहार कर रहे थे| सत्य और असत्य से अलग ये दृष्टि तुरीय दृष्टि थी| ये गुणातीत अवस्था, तुरीय अवस्था होती है, जब आप अपने सच्चे स्वरुप में होते हैं| इसमें कोई आवरण नहीं होता, बिल्कुल शुद्ध, सहज और सबका मूल| प्रकृति के गुणों के आच्छादित तीन अवस्था का वेदों में वर्णन आया है, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति| सामान्यतः राग और द्वेष, छल और प्रपंच से भरा तमोगुण प्रधान जाग्रत अवस्था| शांत शरीर के साथ रजोगुण रुपी स्वप्न की अवस्था और सांसारिक माया के प्रपंचों से बिल्कुल अलग सुषुप्ति अवस्था जो सत्त्वगुण प्रधान होती है| पर इसके साथ ही एक बिल्कुल शुद्धतम अवस्था होती है, वह है तुरीय अवस्था| जो तीनों अवस्थाओं में होते हुए भी उनसे अलग होती है| कृष्ण भी इसी तुरीय अवस्था में थे, उनकी दृष्टि तुरीय दृष्टि थी| बिल्कुल शुद्ध, शांत, सनातन| जब आप अपने तुरीय अवस्था या रूप को जान लेते हैं तो आप प्रकृति के गुणों से ऊपर उठ जाते हैं| इसमें न तमोगुण होता है, न ही रजोगुण और न ही सत्त्वगुण| प्रकृति से परे आप बस भगवत आनंद में रहते हैं| न मोह, न अभिमान, न शोक, न दुःख यहाँ तक की धर्म रुपी सत्त्व गुण भी चला जाता है| आप सबकुछ से मुक्त हो जाते हैं| श्रीकृष्ण यही तुरीय दृष्टि से सब देख रहे थे| 

यहाँ जैसे दृश्य एक से होते हुए भी दृष्टि अलग-अलग होने के कारण, एक ही घटना सब को अलग-अलग भाव दे रही थी| इसी प्रकार समय के व्यवहार से भी लोग अलग-अलग देख रहे थे| यहाँ धृतराष्ट्र भूतकाल में देख रहे थे या देखने की ईच्छा किये हुए थे| जानना छह रहे थे क्या हुआ? पांडव के और मेरे पुत्रों ने क्या किया? युद्ध के मैदान में क्या-क्या हुआ, किसने क्या-क्या किया? ये तमोगुण का प्रतीक है| ऐसे लोग अपने बिते हुये कल से बाहर नहीं आते| ऐसे लगता है जैसे इनकी जिंदगी भूतकाल में ही अटक गई हो| तो ये लोग मोह, प्रमाद, आलस्य आदि से ग्रसित होते हैं| होने को तो समय के साथ बस इनका शरीर ही होता है जो वर्तमान समय में लोगों को दिखाई देता है पर ये खुद इतिहास के किसी पन्ने में सिमटे होते हैं| समय का प्रवाह इसकी दुनियाँ में रुका होता है| ऐसे लोग तमोगुणी स्वाभाव के होते हैं|

अब बात करते हैं, दुर्योधन की, जो अपनी सेना और अपने सामने खड़ी पांडवों की सेना को देख रहा है| उनके सैन्य क्षमता का आकलन कर रहा है, कितने रथी, कितने महारथी| ऐसे लोग केवल वर्तमान में रहते हैं| अपने भूतकाल की गलतियों से न सीखते  और न सीखने की कभी सोचते हैं| जो बीत गया हो इनके लिए जैसे हुआ ही न हो| बीता हुआ समय इन्हें यद् नहीं होता| ऐसे लोग बस आज और अभी का बस सोचते हैं| दुर्योधन भी कुछ ऐसे ही हिसाब लगा रहा था| मेरी ओर से तो भीष्मपितामह, गुरुद्रोण, कर्ण आदि हैं, पांडवों को तो खेल-खेल में ही हरा देगें और हमेशा-हमेशा के लिए राज्य उसका हो जायेगा| उस कुछ भी याद नहीं था कि इसी सेना को अर्जुन ने अकेले ही धुल चटा दी थी|  ऐसे लोगों लो लगता है जो है आज है और यह उनकी मुट्ठी में हैं| ऐसे लोग रजोगुणी स्वाभाव के होते हैं|

अब अर्जुन की देखें, भूतकाल की सीख और वर्तमान की परख तो है पर दृष्टि में भविष्य है| धार्मिक दृष्टि से देख रहे हैं| कोई भी कार्य प्रांरभ करने से पहले उसके परिणाम का आकलन कर रहे हैं| अर्जुन युद्ध में अपने स्वजन को सामने देख, भावी परिणाम से चिंतित हो उठे हैं| उन्हें भूतकाल में युद्ध का कारण और वर्त्तमान में कौन किसके साथ है सब पता हैं| लेकिन वे फिर भी विचलित हैं वो है युद्ध का परिणाम| वो परिणाम जो उन्हें धर्म सांगत नहीं लग रहा है| वो अपना सुख नहीं देख रहे वरन भविष्य में जो परिवार और समाज की हानि होती दीख रही है उससे घबड़ा रहे हैं| ये सत्त्व गुण है| धर्म और शास्त्र की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कर्म करने की बात करते हैं|

अब बात करते हैं श्रीकृष्ण की जो तीनों कालों में देख रहे हैं पर किसी में भी आसक्ति नहीं है| कृष्ण कभी सूर्य के साथ हुई अपनी चर्चा की बात बताते हैं तो कभी अर्जुन को युद्ध क्यों करना चाहिए ये बताते हैं और साथ ही साथ ये बताना भी नहीं भूले की मेरी पूर्ण शरणागति में आ जाओ मैं तुम्हें सब कुछ से मुक्त कर दूँगा | एक ही साथ भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों की राह दिखते हैं| कृष्ण कभी भूतकाल के ज्ञान की सनातन धारा की बात करते हैं, तो कभी वर्तमान समय में युद्ध की विवशता का और कभी स्वर्णिम भविष्य की छटा दिखाते हैं| पर स्वयं में वो कहीं किसी में लिप्त नहीं हैं, देख सब रहें हैं, जान सब रहें हैं पर कुछ भी उनको प्रभावित नहीं कर रहा है| वो कर वही रहें हैं जो वो करना चाहते हैं| कल क्या हुआ, अभी क्या हो रहा है और आगे क्या होगा इन सब की उनके निर्णय पर असर नहीं डाल रहा| ऐसे सात्त्विक लोग हमेशा सत्य के साथ होते हैं| ऐसे लोग हमेसा चेतना में होते हैं| कृष्ण समय के बंधन में नहीं बंधें हैं, इसलिए सत्य उनके सामने प्रत्यक्ष है वो सत्य को देख पा रहे हैं| ऐसी तुरीय दृष्टि से जीव कर्म करता हुआ कर्म-बंधन से नहीं बंधता| वो मुक्त होता है, आनंद में होता है|    

जारी है ... 

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता एक परिचय... भाग - १

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 
-वृहदारण्यक उपनिषद

"वो पूर्ण है, ये भी पूर्ण है और ये पूर्ण उसी पूर्ण से प्रकट हुआ है| उस पूर्ण से इस पूर्ण के निकलने पर भी वो पूर्ण ही है|" वो पूर्ण है, अद्वितीय है, बस वो एक ही है, उससे अलग कुछ भी नहीं| उसे आप परमात्मा,भगवान आदि जो भी नाम दे लें, सब कुछ, बस उस एक को ही इंगित करता है| वेदों ने परमात्मा बारे में कहा है, "जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्त्पन्न होती है, जो इसका पालन करता है, और फिर अपने में ही इसको लीन कर लेता है|" परमात्मा की एक और परिभाषा है, जिसका वेदों में चर्चा है, "जो बड़ा है और दूसरों को बड़ा करने में सक्षम है|" इस दूसरी बात पर हम आगे चर्चा करेगें| तो पहली बात है वो एक है| उसी एक से इस सृष्टि का प्राकट्य हुआ है| तो यहाँ एक परमात्मा और दूसरी सृष्टि ये दो बातें हुईं| तीसरी बात है, हम स्वयं जो इस सृष्टि को देख रहें हैं, अनुभव कर रहे हैं|  हम जो देख और समझ रहें हैं, वह इसी सृष्टि का ज्ञान कर रहे हैं| तो यहाँ तीन तत्व हैं, परमात्मा, सृष्टि और हम दूसरे अर्थ में वो, ये और मैं और साहित्य दृष्टि में ब्रह्म, माया(संसार) और जीव| जीव की सीमा है, संसार की सीमा है, किन्तु ब्रह्म अनंत है, सीमा रहित है| 
माया और जीव दोनों ब्रह्म की ही शक्ति हैं, क्योंकि दोनों ब्रह्म से ही उत्त्पन होतीं हैं और उसी में लीन भी हो जातीं हैं| जीव(आप स्वयं) जिस दिन माया के आवरण से परे उस ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है, उसका दर्शन कर लेता है, उसे जान जाता है, वह मुक्त हो जाता है, ब्रह्म से एक हो जाता है, आनंद को प्राप्त होता है| पूरी गीता में इसी माया के आवरण को हटाने की बात की जाती है| लगभग ७०० श्लोकों की श्रीमद्‍भगवद्‍गीता, महर्षि वेदव्यास प्रणीत महाभारत से उद्धत है|

महाभारत लगभग एक लाख श्लोकों का ग्रंथ है और श्रीमद-भागवत-गीता, उन सभी का निचोड़, उन सभी का सार| अगर महाभारत एक आम का वृक्ष हो तो, गीता उसमें रसीले आम| जड़ से लेकर शीर्ष तक पेड़ महत्त्वपूर्ण होता है, लेकिन उसके रसीले फल का आंनद ही कुछ और होता है| अगर कोई महाभारत नहीं पढ़ सके, उसका ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके तो गीता को पढ़ ले, बस गीता भर को जान जाये तो उसको और कुछ जानने की जरुरत नहीं रह जायेगी, उसका काम हो जायेगा| महाभारत रुपी अथाह समुद्र में गीता मोती स्वरुप है| समुद्र मंथन के बाद का अमृत है| यह वह ज्ञान है जो सदियों से गुरु-शिष्य परम्परा से चला आ रहा है| गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, "ये जो मैं तुम्हें बता रहा हूँ, ये आज की बात नहीं है, बात बहुत प्राचीन है| इससे पहले भी मैं इसे सूर्य को बता चूका हूँ| पर समय के साथ यह ज्ञान लुप्त हो गया था| तू मेरा प्रिय शिष्य है इसलिए आज फिर से ये बात तुम्हें बता रहा हूँ|" (गीता अध्याय ४/१-३ ). तो गीता का ज्ञान कल भी प्रासंगिक था, आज भी है और आगे भी रहेगा, जबतक संसार में द्वन्द है, दुःख है, पीड़ा है| यह केवल युद्ध का समाचार जानने की इच्छा रखने वाले धृतराष्ट और संजय के बीच की बात नहीं| और न ही केवल श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच तर्कों, शास्त्रों और ज्ञान की बातें बस भर है| अगर गीता केवल धृतराष्ट का का प्रश्न भर होता तो पहले ही अध्याय में यह खत्म हो जाताक्यूँकि आपको पहले अध्याय के बाद युद्ध का कुछ भी प्रसंग इसमें नहीं मिलेगा| आगे के सत्रह अध्याय में तो युद्ध है ही नहीं| और यह अगर केवल श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच तर्कों की बात होती तो वह भी दूसरे अध्याय में ही पूरा हो गया होता| अर्जुन ने पहले अध्याय में जिन-जिन तर्कों को सामने रखा, उसे श्रीकृष्ण दूसरे ही अध्याय में एक एक करके निरस्त कर दिया|  अर्जुन के सारे तर्क श्रीकृष्ण के सामने धरासाई हो गए| तो गीता तर्कों की भी बात नहीं है| यह कुछ और ही है| यह उस हर घड़ी की कहानी है जब हम द्वन्द में होते हैं| दो राहें पर होते हैं और पता नहीं होता सही क्या है और गलत क्या है? न्याय क्या है और अन्याय क्या है? सत्य क्या है और असत्य क्या है?जीवन में आगे बढ़ने के लिए कौन से रस्ते पर आगे बढ़ा जाये? गीता ऐसे ही समय में हमारा मार्ग प्रसस्थ करता है| हमें सही और गलत में सही को चुनने में मदद करता है|   

कहते हैं "श्रीमद्‍भगवद्‍गीता" स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के शब्द ही है| इसपर कोई कुछ कहता है या इसकी व्याख्या करता है तो वह उसके शब्द होते हैं उसके अर्थ और भाव होते हैं, उसकी अपनी व्याख्या होती है| गीता स्वयं में पूर्ण है, शुद्ध है| इसकी व्याख्या कर हम इसकी सुंदरता, इसके भाव को और कम ही कर रहे होते हैं| लेकिन ऐसा बहुत कम हुआ है, जो कोई गीता को पढ़े, समझे, जाने, अनुभव करे और फिर बिना कुछ बोले रह जाए| क्यूँकि इसकी मिठास ही कुछ ऐसी है, जिसने इसको चखा वो बिना बताये रह न पायेगा, बिना गुनगुनाये रह न पायेगा| और इसमें कोई बुराई भी नहीं, अगर हमारी चर्चा से, व्याख्या से किसी की जिज्ञासा जागृत हो जाती है और वह भी ज्ञान की इस पावन गंगा की खोज में निकल जाता है तो समझिए वो भूल-चूक माफ, समझिये वो व्याख्या सफल हुई| ऐसे तो भगवान के शब्दों पर कुछ टीका टिप्पणी करना पाप है, लेकिन अगर इस पाप से किसी की ज्ञान यात्रा प्रारंभ होती हो तो ऐसे पाप सिरोधार्य है| इसके लिए विज्ञ जन क्षमा करें| अपनी ओर से धृष्टता कर रहा हूँ, आशा करता हूँ, आप सभी मान्यवर एक अबोध बालक की मनोस्थिति को समझ कर, मेरी इस कृति को स्वीकार करेगें और मार्गदर्शन करेंगें|      

अंत में आप सभी से एक विनती करता हूँ, एक प्रार्थना करता हूँ| अगर गीता के बारे में कोई शंका हो, मन में कुछ दुविधा हो, अगर कभी लगे कि गीता में ऐसे नहीं, ऐसे होना चाहिए तो बस एक बात ध्यान में रखियेगा| "श्रीमद्‍भगवद्‍गीता" नर्सरी से लेकर पीएचडी करने वालों तक, के लिए है| यह उसके लिए भी है जिसने अभी-अभी ज्ञान के मार्ग पर पहला कदम रखा है और उनके लिए भी है जो भगवत भक्ति के मार्ग में नित्य नए नए रिसर्च कर रहे हैं| आप की शंका आप का प्रश्न बस आपकी कक्षा के लिए ही है| जिस किसी भी दिन आप को उसका उत्तर मिल जायेगा आप फिर अगली कक्षा में होगें| इसलिए शंका को मन में जगह न दें, वरन इसके बदले जिज्ञासा करें| शंका और जिज्ञासा में एक छोटा सा अंतर होता है| शंका में आप अपने को बड़ा समझते हैं, आपने ज्ञान को बड़ा आँकते हैं| आपका प्रश्न आपके लिए छोटा होता है| आप प्रश्न को इसलिए नहीं मन में जगह देते कि आपको इसका उत्तर चाहिए होता है, वरन आप कहीं न कहीं अपने अहंकार को बल दे रहे होते हैं| इसके ठीक उल्टा जिज्ञासा में आप छोटे होते हैं आप का प्रश्न बड़ा होता है| आप में जानने की उत्सकता होती है| आपमें ज्ञान को पाने की चाहत होती है| और जब आप किसी भी चीज को बिल्कुल शुद्ध मन से पाने की कोशिश करते हैं तो वो आप को मिल ही जाती है| शुरू-शुरू में आप को लगे की गीता के ७०० श्लोक कुछ ज्यादा हैं, तो बस याद रखिए ये भक्तों के लिए रिसर्च बुक भी है और रिफरेन्स बुक भी| कुछ समझ में आये तो अच्छा न आये तो और उसे अगली कक्षा के लिए छोड़ दीजिए| ज्यादा तर्क-वितर्क में न पड़ें| प्रभु कृपा करेगें और धीरे-धीरे सभी रहस्यों से एक दिन पर्दा उठ जाएगा| आप को कुछ करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी| अर्जुन ने कौन सा परिश्रम किया था| वो तो बस युद्ध में अपने सामने परिजनों को देख बस मोहित हो गए थे| बात तो युद्ध नहीं करने भर का था| भगवान ने करुणा की और अर्जुन धन्य-धन्य हो गए, कृतार्थ हो गए| ऐसे ही भगवान हम सभी को दया से करुणा से सराबोर करते रहते हैं| बस एक बार अपने को खुल के इस बारिश में भींगने का मौका दीजिए, सब मंगल होगा, सब कल्याण होगा..... हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ     

जारी है ......