तो गीता शुरू होती है, एक कथा से| कथा है, महाभारत की, हस्तिनापुर की राजगद्दी को अकेले पाने की चाहत में कौरवों के द्वारा पांडवों को युद्ध के मुहाने तक लाने की| शुरुआत होती है, एक प्रश्न और एक निर्णय से| प्रश्न, युद्ध के मैदान से बहुत दूर राजमहल के किसी कोने में बैठे धृतराष्ट्र का संजय से है कि "युद्ध में क्या हुआ?" प्रश्न, युद्ध का पूरा समाचार जानने का है | यह प्रश्न भी उस समय जब युद्ध रोकने के सारे रस्ते बंद कर दिए गए हों| और दूसरा एक निर्णय, एक निश्चय से कि "युद्ध मैं नहीं करूँगा"| और ये निर्णय है अर्जुन का| युद्ध की सारी तैयारी हो चुकी है, दोनों पक्षों ये योद्धा आमने-सामने हैं, युद्ध अब कभी भी आरंभ हो सकता है| रणभेरियाँ बज चुकी हैं, दोनों पक्षों के योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ तैयार बैठे हैं| तो ऐसे में अर्जुन ने एक निर्णय लिया कि "अब मैं युद्ध नहीं करूँगा, भले ही निहत्थे मारा क्यों न जाऊँ"|
तो गीता की शुरुआत होती है, युद्ध के शुरुआत से, जहाँ दो पक्ष आमने सामने खड़े हैं हस्तिनापुर की राजगद्दी को पाने की चाहत में| यहाँ युद्ध को तीन लोग देख रहें हैं या देखने की इच्छा कर रहें हैं| पहला संजय की दृष्टि से धृतराष्ट्र, दूसरा धृतराष्ट्र पुत्र और हस्तिनापुर युवराज दुर्योधन और तीसरा पांडवों में से एक अर्जुन| तीन दृष्टि और तीन मनोस्थितियाँ| सबसे पहले धृतराष्ट्र की बात करें| एक राजा, जिसके पुत्र मोह ने पूरे राजपरिवार को यद्ध के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया| जब कुछ करना चाहिए, जब कुछ कर सकते थे तब तो कुछ किया नहीं| अपने अंधेपन के आर में अपनी पुत्र मोह रुपी दुर्बलता को छुपाते रहे| जब कुछ जानना चाहिए, जब कुछ जान सकते थे तब तो जाना नहीं कि क्या हो रहा है, तब यह जिज्ञासा नहीं की कि मेरे पुत्र क्या कर रहे हैं, पांडवों के पुत्र क्या कर रहें हैं | अब जब कुछ नहीं हो सकता, जब समय हाथ ने निकल चूका है (ये प्रश्न तब का है जब युद्ध शुरू हुए कुछ दिन बीत चूँके हैं, भीष्मपितामह वाण-शय्या पर गिरे पड़े हैं|) अब पूँछ रहें हैं, "युद्ध में क्या हुआ? मेरे पुत्र और पांडवों के पुत्र ने क्या किया"? मन का मोह अभी भी खत्म नहीं हुआ है| महाभारत की लड़ाई का परिणाम पहले से पता था फिर भी घटनाओं पर अंधे बने रहे| और जब दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी हैं तो प्रश्न कर रहे हैं कि क्या हो रहा है? युद्ध में क्या हुआ? दोनों सेनाएँ क्या कर रहीं हैं? धृतराष्ट्र की यह दृष्टि तमोगुण का प्रतीक है| अपने लोभ, मोह, क्रोध के कारण उन्होंने ये स्थिति उत्पन्न की|
दूसरी दृष्टि दुर्योधन की है| जो विपक्षी सेना को एक क्षत्रिय की भाँति देख रहा है| यह दृष्टि रजोगुण है| सामने जब युद्ध आ चूका हो तो अपने और पराये के पहचान की कोशिश भर है| शत्रुओं और मित्रों की शक्तियों को जान लेने की है| दुर्योधन अपने रजोगुण दृष्टि से युद्ध को देख रहा| हाँ कभी उसकी भी दृष्टि तमोगुणी हुआ करती थी| वह भी कभी लोभ से, क्रोध से, अभिमान से पांडवों को देखा करता| उसके मन में इच्छा थी पुरे राज्य पर एकक्षत्र राज करने की| इसी तमोगुण के कारण उसने भगवान श्रीकृष्ण तक को बंदी बनाने की बात तक कह डाली थी| लेकिन आज जब युद्ध की घड़ी नजदीक आ गयी तो सारा अभिमान जाता रहा| बेहोशी की अवस्था से होश में आ गया| सत्य उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था, अब उससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता था| उसकी तमोगुणी बुद्धि पीछे छूट गई और रजोगुणी बुद्धि ने शरीर और मन को नियंत्रित किया| अब वह एक क्षत्रिय की भाँति अपनी सेना का मनोबल बढ़ा रहा है| तो ये रजोगुण है|
अब बात करते हैं, तीसरी दृष्टि की, अर्जुन के दृष्टि की| अर्जुन ने भी दोनों सेनाओं को आमने-सामने देखा| लेकिन इस दृष्टि में न तो आसक्ति थी और न ही अभिमान| न युद्ध जीतने की अभिलाषा और न हार जाने का गम| अर्जुन की दृष्टि सत्य की दृष्टि थी| दृष्टि निःश्छल थी, शांत थी, आसक्ति रहित थी| यह दृष्टि सात्त्विक दृष्टि थी| इसके पीछे धर्म और कुल की मर्यादा, शास्त्र ज्ञान, सत्य पर चलने की सपथ आदि था| अर्जुन, युद्ध तो करने आये थे लेकिन अभी भी मन के किसी एक कोने में सब ठीक नहीं हो रहा ऐसा सोच रहे थे| उन्हें अपने गांडीव पर भरोसा तो था, साथ ही पता भी था, अगर तीनों लोकों के योद्धा भी आ जायें, तो भी वे ही युद्ध को जीतेगें| लेकिन केवल युद्ध को जीतना उनकी मंशा नहीं थी| मन में परिवार और कुल के कल्याण का भी भाव था| युद्ध जीतने के लिए तो आस्वस्थ थे, पर परिवार के बिख़ड़ने का डर मन में था| उन्होंने युद्ध जीतने के बाद, राजगद्दी से ज्यादा, गुरुजनों और परिवार के बड़े जनों के, मान और मर्यादा को अधिक महत्त्व दिया| तो अर्जुन की दृष्टि सत्य की दृष्टि थी| ये था उनका सत्त्वगुण|
एक और दृष्टि थी जो, इन सबों से अलग थीं, जो युद्ध को एक अलग ही तरह से देख रहा थे| ये दृष्टि मान और अपमान, निंदा और प्रशंसा से परे थी| ये युद्ध को बिना राग और भय के देख रहे थे| ये दृष्टि सम्यक दृष्टि थी| ये दृष्टि थी कृष्ण की, जो युद्ध के मैदान में होते हुए भी वहां से कोसों दूर थे| उनकी दृष्टि प्राकृतिक गुणों से परे थी| वे सब कुछ देखते हुए भी कुछ भी नहीं देख रहे हों ऐसा व्यवहार कर रहे थे| सत्य और असत्य से अलग ये दृष्टि तुरीय दृष्टि थी| ये गुणातीत अवस्था, तुरीय अवस्था होती है, जब आप अपने सच्चे स्वरुप में होते हैं| इसमें कोई आवरण नहीं होता, बिल्कुल शुद्ध, सहज और सबका मूल| प्रकृति के गुणों के आच्छादित तीन अवस्था का वेदों में वर्णन आया है, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति| सामान्यतः राग और द्वेष, छल और प्रपंच से भरा तमोगुण प्रधान जाग्रत अवस्था| शांत शरीर के साथ रजोगुण रुपी स्वप्न की अवस्था और सांसारिक माया के प्रपंचों से बिल्कुल अलग सुषुप्ति अवस्था जो सत्त्वगुण प्रधान होती है| पर इसके साथ ही एक बिल्कुल शुद्धतम अवस्था होती है, वह है तुरीय अवस्था| जो तीनों अवस्थाओं में होते हुए भी उनसे अलग होती है| कृष्ण भी इसी तुरीय अवस्था में थे, उनकी दृष्टि तुरीय दृष्टि थी| बिल्कुल शुद्ध, शांत, सनातन| जब आप अपने तुरीय अवस्था या रूप को जान लेते हैं तो आप प्रकृति के गुणों से ऊपर उठ जाते हैं| इसमें न तमोगुण होता है, न ही रजोगुण और न ही सत्त्वगुण| प्रकृति से परे आप बस भगवत आनंद में रहते हैं| न मोह, न अभिमान, न शोक, न दुःख यहाँ तक की धर्म रुपी सत्त्व गुण भी चला जाता है| आप सबकुछ से मुक्त हो जाते हैं| श्रीकृष्ण यही तुरीय दृष्टि से सब देख रहे थे|
यहाँ जैसे दृश्य एक से होते हुए भी दृष्टि अलग-अलग होने के कारण, एक ही घटना सब को अलग-अलग भाव दे रही थी| इसी प्रकार समय के व्यवहार से भी लोग अलग-अलग देख रहे थे| यहाँ धृतराष्ट्र भूतकाल में देख रहे थे या देखने की ईच्छा किये हुए थे| जानना छह रहे थे क्या हुआ? पांडव के और मेरे पुत्रों ने क्या किया? युद्ध के मैदान में क्या-क्या हुआ, किसने क्या-क्या किया? ये तमोगुण का प्रतीक है| ऐसे लोग अपने बिते हुये कल से बाहर नहीं आते| ऐसे लगता है जैसे इनकी जिंदगी भूतकाल में ही अटक गई हो| तो ये लोग मोह, प्रमाद, आलस्य आदि से ग्रसित होते हैं| होने को तो समय के साथ बस इनका शरीर ही होता है जो वर्तमान समय में लोगों को दिखाई देता है पर ये खुद इतिहास के किसी पन्ने में सिमटे होते हैं| समय का प्रवाह इसकी दुनियाँ में रुका होता है| ऐसे लोग तमोगुणी स्वाभाव के होते हैं|
अब बात करते हैं, दुर्योधन की, जो अपनी सेना और अपने सामने खड़ी पांडवों की सेना को देख रहा है| उनके सैन्य क्षमता का आकलन कर रहा है, कितने रथी, कितने महारथी| ऐसे लोग केवल वर्तमान में रहते हैं| अपने भूतकाल की गलतियों से न सीखते और न सीखने की कभी सोचते हैं| जो बीत गया हो इनके लिए जैसे हुआ ही न हो| बीता हुआ समय इन्हें यद् नहीं होता| ऐसे लोग बस आज और अभी का बस सोचते हैं| दुर्योधन भी कुछ ऐसे ही हिसाब लगा रहा था| मेरी ओर से तो भीष्मपितामह, गुरुद्रोण, कर्ण आदि हैं, पांडवों को तो खेल-खेल में ही हरा देगें और हमेशा-हमेशा के लिए राज्य उसका हो जायेगा| उस कुछ भी याद नहीं था कि इसी सेना को अर्जुन ने अकेले ही धुल चटा दी थी| ऐसे लोगों लो लगता है जो है आज है और यह उनकी मुट्ठी में हैं| ऐसे लोग रजोगुणी स्वाभाव के होते हैं|
अब अर्जुन की देखें, भूतकाल की सीख और वर्तमान की परख तो है पर दृष्टि में भविष्य है| धार्मिक दृष्टि से देख रहे हैं| कोई भी कार्य प्रांरभ करने से पहले उसके परिणाम का आकलन कर रहे हैं| अर्जुन युद्ध में अपने स्वजन को सामने देख, भावी परिणाम से चिंतित हो उठे हैं| उन्हें भूतकाल में युद्ध का कारण और वर्त्तमान में कौन किसके साथ है सब पता हैं| लेकिन वे फिर भी विचलित हैं वो है युद्ध का परिणाम| वो परिणाम जो उन्हें धर्म सांगत नहीं लग रहा है| वो अपना सुख नहीं देख रहे वरन भविष्य में जो परिवार और समाज की हानि होती दीख रही है उससे घबड़ा रहे हैं| ये सत्त्व गुण है| धर्म और शास्त्र की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कर्म करने की बात करते हैं|
अब बात करते हैं श्रीकृष्ण की जो तीनों कालों में देख रहे हैं पर किसी में भी आसक्ति नहीं है| कृष्ण कभी सूर्य के साथ हुई अपनी चर्चा की बात बताते हैं तो कभी अर्जुन को युद्ध क्यों करना चाहिए ये बताते हैं और साथ ही साथ ये बताना भी नहीं भूले की मेरी पूर्ण शरणागति में आ जाओ मैं तुम्हें सब कुछ से मुक्त कर दूँगा | एक ही साथ भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों की राह दिखते हैं| कृष्ण कभी भूतकाल के ज्ञान की सनातन धारा की बात करते हैं, तो कभी वर्तमान समय में युद्ध की विवशता का और कभी स्वर्णिम भविष्य की छटा दिखाते हैं| पर स्वयं में वो कहीं किसी में लिप्त नहीं हैं, देख सब रहें हैं, जान सब रहें हैं पर कुछ भी उनको प्रभावित नहीं कर रहा है| वो कर वही रहें हैं जो वो करना चाहते हैं| कल क्या हुआ, अभी क्या हो रहा है और आगे क्या होगा इन सब की उनके निर्णय पर असर नहीं डाल रहा| ऐसे सात्त्विक लोग हमेशा सत्य के साथ होते हैं| ऐसे लोग हमेसा चेतना में होते हैं| कृष्ण समय के बंधन में नहीं बंधें हैं, इसलिए सत्य उनके सामने प्रत्यक्ष है वो सत्य को देख पा रहे हैं| ऐसी तुरीय दृष्टि से जीव कर्म करता हुआ कर्म-बंधन से नहीं बंधता| वो मुक्त होता है, आनंद में होता है|
अब बात करते हैं, दुर्योधन की, जो अपनी सेना और अपने सामने खड़ी पांडवों की सेना को देख रहा है| उनके सैन्य क्षमता का आकलन कर रहा है, कितने रथी, कितने महारथी| ऐसे लोग केवल वर्तमान में रहते हैं| अपने भूतकाल की गलतियों से न सीखते और न सीखने की कभी सोचते हैं| जो बीत गया हो इनके लिए जैसे हुआ ही न हो| बीता हुआ समय इन्हें यद् नहीं होता| ऐसे लोग बस आज और अभी का बस सोचते हैं| दुर्योधन भी कुछ ऐसे ही हिसाब लगा रहा था| मेरी ओर से तो भीष्मपितामह, गुरुद्रोण, कर्ण आदि हैं, पांडवों को तो खेल-खेल में ही हरा देगें और हमेशा-हमेशा के लिए राज्य उसका हो जायेगा| उस कुछ भी याद नहीं था कि इसी सेना को अर्जुन ने अकेले ही धुल चटा दी थी| ऐसे लोगों लो लगता है जो है आज है और यह उनकी मुट्ठी में हैं| ऐसे लोग रजोगुणी स्वाभाव के होते हैं|
अब अर्जुन की देखें, भूतकाल की सीख और वर्तमान की परख तो है पर दृष्टि में भविष्य है| धार्मिक दृष्टि से देख रहे हैं| कोई भी कार्य प्रांरभ करने से पहले उसके परिणाम का आकलन कर रहे हैं| अर्जुन युद्ध में अपने स्वजन को सामने देख, भावी परिणाम से चिंतित हो उठे हैं| उन्हें भूतकाल में युद्ध का कारण और वर्त्तमान में कौन किसके साथ है सब पता हैं| लेकिन वे फिर भी विचलित हैं वो है युद्ध का परिणाम| वो परिणाम जो उन्हें धर्म सांगत नहीं लग रहा है| वो अपना सुख नहीं देख रहे वरन भविष्य में जो परिवार और समाज की हानि होती दीख रही है उससे घबड़ा रहे हैं| ये सत्त्व गुण है| धर्म और शास्त्र की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कर्म करने की बात करते हैं|
अब बात करते हैं श्रीकृष्ण की जो तीनों कालों में देख रहे हैं पर किसी में भी आसक्ति नहीं है| कृष्ण कभी सूर्य के साथ हुई अपनी चर्चा की बात बताते हैं तो कभी अर्जुन को युद्ध क्यों करना चाहिए ये बताते हैं और साथ ही साथ ये बताना भी नहीं भूले की मेरी पूर्ण शरणागति में आ जाओ मैं तुम्हें सब कुछ से मुक्त कर दूँगा | एक ही साथ भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों की राह दिखते हैं| कृष्ण कभी भूतकाल के ज्ञान की सनातन धारा की बात करते हैं, तो कभी वर्तमान समय में युद्ध की विवशता का और कभी स्वर्णिम भविष्य की छटा दिखाते हैं| पर स्वयं में वो कहीं किसी में लिप्त नहीं हैं, देख सब रहें हैं, जान सब रहें हैं पर कुछ भी उनको प्रभावित नहीं कर रहा है| वो कर वही रहें हैं जो वो करना चाहते हैं| कल क्या हुआ, अभी क्या हो रहा है और आगे क्या होगा इन सब की उनके निर्णय पर असर नहीं डाल रहा| ऐसे सात्त्विक लोग हमेशा सत्य के साथ होते हैं| ऐसे लोग हमेसा चेतना में होते हैं| कृष्ण समय के बंधन में नहीं बंधें हैं, इसलिए सत्य उनके सामने प्रत्यक्ष है वो सत्य को देख पा रहे हैं| ऐसी तुरीय दृष्टि से जीव कर्म करता हुआ कर्म-बंधन से नहीं बंधता| वो मुक्त होता है, आनंद में होता है|
जारी है ...