बुधवार, 29 जुलाई 2015

" संसार में सुख-दुःख ? "

           आज एक साधक ने पूछा, "संसार में कुछ लोग सुखी हैं, कुछ लोग दुखी हैं, कभी सुख मिलता है, कभी दुःख मिलता है? कुछ लोग कहतें हैं, संसार में सुख है, कुछ लोग कहतें हैं अरे नहीं, संसार में तो दुःख है। बस समझ में नहीं आता किसकी बात माने। कृप्या बताइये संसार में सुख है या दुःख?"
           आप ने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है, बिल्कुल शुद्ध हृदय से पूछा गया है। चलिए मिल कर, इसे एक-एक कर समझतें हैं। चार बातें हो सकतीं हैं, या यूँ कहें की संसार में चार प्रकार के लोग होतें हैं। पहले प्रकार के लोग, जिनकी संख्या बहुतों है, मानतें हैं कि, 'संसार में सुख और दुःख दोनों है' और ये सुख-दुःख आदमी को अपने-अपने कर्मो के अनुसार मिलता रहता है। इनकी बातें कुछ हद तक सही भी लगतीं हैं, हम सब अपने रोजमर्रा के जीवन में ये देखते हैं। कल जो दुखी था, आज ख़ुशियाँ मना रहा है, कल जो खुशियों के मारे फूला न समा रहा था, आज सर पकड़ कर रो रहा है। एक ही दिन में ही आदमी कभी खुश होता है, तो कभी दुखी। हर जगह सुख और दुःख दोनों देखने को मिल जाता है। तो हम कह सकतें हैं की संसार में सुख और दुःख दोनों है। किसको सुख मिलता है और किसको दुःख ये चर्चा की बात हो सकती है पर, संसार में सुख और दुःख है, ये तो दिखता है। 
           अब दूसरे प्रकार के लोगों की बात करें, जिनका मानना है, संसार में दुःख ही दुःख है। थोड़े से समय के लिए जो सुख दिखता है, वह तो बस छलावा भर है, मन का भ्रम है। ऐसे लोग कम हैं, पर हुए हैं और हैं भी। इन लोगों का ऐसा मानने का कारण है, दुःख की विशालता। अब बुद्ध की ही बात लें, उन्हें संसार से विरक्ति, बस लोगों को अपने दुःख से दुखी होते देख कर हुई। और सब कुछ छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। तो बुद्ध सरीखे संत, संसार में लोगों को बहुत प्रकार के दुःख भोगते देख कर संसार को दुःख मय बतातें हैं। 
           अब एक और प्रकार के संतों की बात करें, जिनका मानना है कि, संसार में न तो सुख है और न ही दुःख। सुख और दुःख तो आदमी के मन की उपज है। ऐसे लोग, न तो माला पहनाने से खुश होतें हैं और न ही चप्पलों की बौछाड़ से दुःखी। ये संसार को स्वप्न मय  देखतें हैं, और सुख-दुःख को भगवान कि माया से बना भ्रम। जैसे रस्सी में सर्प का भ्रम, रस्सी सर्प जैसा प्रतीत हुआ तो दुःख और पता लगते कि ये तो रस्सी मात्र है सुख। कबीरदास, मीराबाई, रसखान आदि संत सरीखे संन्यासी सब ऐसा ही मानतें हैं, दुनियाँ इनके बारे क्या सोचती है, क्या बोलती है और क्या करती है, इन सब बातों से इनको कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। ये अपने ही दुनियाँ में रमे रहतें हैं। 
           अब बात करतें हैं चौथे प्रकार के लोग, जिनका मानना है संसार में सुख ही सुख है। आपको आश्चर्य लगेगा सुनके, पर ऐसे संत हैं, जिनके लिए दुःख नाम की कोई चीज नहीं होती। जो सारे संसार को प्रभु मय देखते हैं ("सीय राममय सब जग जानी, करूँ प्रनाम जोरि जुग पानी।"-रा. च. मा. १/७/४ )। और चूकिं रज-कण से ले कर के नछत्र-तारे तक सारा जगत प्रभु का ही बनाया है तो दुःख की तो बात ही नहीं। प्रभु का विरह भी इनके लिए सुखमय ही होता है।इसलिए आप ने सुना होगा, न गोपियों ने शिकायत की और न श्रीराधा जी ने ही प्रभु को जाने से रोका। 
           तो चलिए अब वापस उस प्रश्न पर आतें हैं, जहाँ से चर्चा शुरू किये थे, कि  संसार में सुख है या दुःख? संसार को परमपिता परमेश्वर ने रचा है। कहतें हैं, ये जगत प्रभु की सर्वोत्तम रचनाओं में से एक है। और प्रभु तो आनंदमय हैं, सुख की राशि हैं। इसलिए तो परमात्मा का एक नाम सच्चिदानंद है। तो ऐसे सुखमय प्रभु ने जब यह संसार बनाया तो संसार में दुःख कैसे हो सकता है? जैसे चीनी से बनाया गया रसगुल्ला मीठा होता है, आप सब ने खाया होगा, लेकिन उसी रसगुल्ले को अगर नमक से बनाया जाये तो क्या वह मीठा होगा? नहीं, बिलकुल नहीं, नमक से बना रसगुल्ला नमकीन ही होगा। तो ऐसे ही आनंदघन स्वरुप भगवान ने संसार को रचा है तो इसे उन्हीं के जैसा सुखमय होना चाहिए!
           पर आप  कहेंगें, ये जो दिन-रात लोगों को कष्ट सहते देखतें हैं उसका क्या? जगह-जगह दुःख देखने को मिल जाता है, यह कैसे? ये दुःख कहाँ से आ गया? तर्क कहता है संसार में बस सुख ही सुख होना चाहिए, पर देखतें हैं इसका उल्टा। ऐसा क्यों, इसका क्या कारण  है?   
           आप की बात सही है, इसको समझने के लिए संसार को समझना होगा। कुल मिला के मोटे तौर पर तीन चीजें हैं, एक ब्रह्म, एक उस ब्रह्म की माया और एक हम सब जीव। तो जो कुछ भी हम देखतें हैं, कहिये तो सारा संसार, भगवान  की माया शक्ति से बना है, जो की जड़ है। अब आप पूछ सकतें हैं कि, भगवान ने संसार को बनाया ही क्यों? तो भगवान ने हम सब जीवों को सुख देने के लिए, हम सब के कल्याण के लिए, कृपा करके संसार की रचना की।  ताकि जीव संसार में आ कर, भगवान के नाम, गुण, रूप, लीला, धाम आदि का गान करते हुए उनकी सहज भक्ति कर सके और आसानी से उनको पा सके। 
           किन्तु जीव संसार में आ कर परम दयालु-कृपालु परमात्मा को भूल गया, उनसे विमुख हो गया। जहाँ उसे भगवान  की भक्ति करनी चाहिए वहाँ  वह उनसे ही अलग हो गया। परमात्मा से विमुख होने के कारण ही, जीव संसार में दर-बदर भटक रहा है, दुःख प्राप्त कर रहा है। और यह क्रम जन्म-जन्मों  से यूँ ही चला आ रहा है। संसार में दुःख प्राप्त होने का बस एक ही कारण है, भगवन से विमुख हो जाना। हम सब संसार को अपना मान बैठे हैं, और उसी को पाने की होर में लगें हैं। बस ९९ को १०० करने के चक्कर में दिन-रात लगे रहतें हैं। थोड़े समय के लिए कुछ मिल जाता है तो सुखी हो जातें हैं और किसी कारण  से अगर न मिलें तो दुःखी, और ये स्वाभाविक है। अब मान लीजिये, किसी ने आप को कुछ सामान दिया रखने के लिए, और आप थोड़े दिनों में उसे अपना मान बैठे, उसका उपयोग करने लगे, उस से मन लगा लिया और उस में आशक्त हो गए। तो जब कभी वह व्यक्ति अपना सामान लेने आएगा, तो देने में आप को दुःख होगा। आप का था नहीं, पर आपने अपना मान लिया तो दुःख होगा। ऐसे ही हम सब ने संसार को अपना मान लिया है, वस्तुतः अपना है ही नहीं, कल किसी का था, बस आज थोड़े से समय ले लिए अमानत रूप से अपने पास है, कल फिर किसी और के पास चला जायेगा, जाना तय है। तो फिर क्यों इसमें आशक्त होना? तो भगवान से विमुखता और संसार में आशक्ति ही मूलतः दुःख का कारण है। 
           जिस क्षण जीव भगवान के सन्मुख हो पूर्णरूपेण शरणागत हो जाता है, भगवान उसी क्षण बिना देर किये, अपनी कृपा कर देतें हैं। उसका सारा अज्ञान हर कर, उसे हमेशा के लिए दुखों से मुक्त कर देतें हैं। उसे कभी न ख़त्म होने वाले परमानन्द की प्राप्ति करा देतें हैं। और उसे सदा-सर्वदा के लिए अपनी माया से मुक्त कर देतें हैं। फिर वह जीव सदा- सदा के लिए  दुःखों से छुटकारा पा लेता है।  
            संसार स्वयं में जड़ होने के कारण, कोई सुख या कोई दुःख प्रदान नहीं कर सकता, वरन भगवान से विमुखता दुःख और उनकी सन्मुखता सुख देती है। जीवों के भगवान से विमुख होने के कारण संसार दुःख स्वरुप, कर्म फल के बंधन के कारण सुखमय-दुःखमय, जड़ माया से बने होने के कारण न सुख, न दुःख रूप और भगवान को भक्ति कर प्राप्त होने की जगह के कारण सुखमय कहा गया है। इसलिए जीवों को भगवान के शरणागत हो उनकी कृपा और दया पाने कि चेष्ठा करनी चाहिए। अतः आप सभी हरि के शरणागत हों और आनंद को प्राप्त हों..... हरि  ॐ ॥ 
"करम बचन मन छाड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार । 
तब लगि  सुख  सपनेहुँ  नहीं,  किएँ  कोटि  उपचार  ॥"
-रा. च. मा. २/१०७ 
"जबतक कर्म,वचन और मनसे छल  छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता,तबतक करोड़ों उपाय करनेसे भी,स्वप्नमें भी वह सुख नहीं पाता "
  
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शनिवार, 18 जुलाई 2015

" भगवान कैसे मिलें ? "

           " भगवान कैसे मिलें ? " संसार में हर कोई भगवान से मिलना चाहता है, हर कोई उनका दर्शन पाना चाहता है, हर कोई उनकी कृपा दृष्टि चाहता है। इसका कारण है, बस एक बार अगर भगवान मिल जाएँ तो सारे दुःखों से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जायेगा, जीवन में परम सुख व शांति आएगा और जीवन आनंद से सराबोर हो जायेगा। केवल सर्वशक्तिमान प्रभु ही हम सब को सांसारिक दुःखों से मुक्त कर सकतें हैं और कभी न ख़त्म होने वाला आनंद दे सकतें हैं । तो प्रश्न उठता है कि भगवान कैसे मिलें, सच्चिदानंद स्वरूप प्रभु का दर्शन कैसे हो, उन परम दयालु की कृपा कैसे प्राप्त हो ?
           लोग भगवान को पाने के बहुत से उपाय बतातें हैं, कोई कहता है कर्म करो, कोई कहता है धर्म करो, कोई ज्ञान की बात करता है तो कोई योग की। साधारण मनुष्य इन सबों में बहुत उलझ गया है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों की बात माने तो भगवान को केवल भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। और कोई दूसरा साधन, परमात्मा के पथ में आगे तो ले जा सकता है पर अंतिम लक्ष्य, जो की प्रभु का साक्षात्कार है, को नहीं दिला सकता। तो अब प्रश्न यह नहीं कि  भगवान कैसे मिले, प्रश्न यह है कि भगवान की भक्ति कैसे मिले? और एक बार अगर परमपिता परमेश्वर की भक्ति मिल जाये फिर भगवान स्वयं ही मिल जायेगें, इसमें कोई दो मत नहीं। भगवान स्वयं इस बात की पुष्टि करतें हैं।
"जातें  बेगि  द्रवउँ  मैं  भाई ।  सो मम भगति भगत सुखदाई ॥"
- रा. च. मा. ३/१५/२ 
"हे भाई!जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ,वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देनेवाली है" 
इतना ही नहीं भगवान ने तो यहाँ तक कहा है कि,
"कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥"
- रा. च. मा. ३/३४/४
"श्रीरघुनाथजी ने कहा-हे भामिनि!मेरी बात सुन!मैं तो केवल एक भक्तिहीका सम्बन्ध मानता हूँ "
          तो मूल प्रश्न यह है कि भगवन की भक्ति कैसे प्राप्त हो ? भक्ति का सीधा सा अर्थ है "सेवा करना", "खुश करना"। संसार में भी अगर आपको किसी से कुछ चाहिए तो हम क्या करतें है? हम उसकी सेवा करतें हैं, उसको खुश करतें हैं। हर वो काम करतें हैं जिससे उसे आराम मिले, उसकी इच्छाओं के अनुसार चलतें हैं... आदि-आदि। ठीक इसी प्रकार अगर आपको भगवान से मिलना है तो उनको प्रसन्न करने की कोशिश करना होगा, उनकीं इच्छाओं को अपनी इच्छा बना कर कार्य करना होगा, उनकी सेवा करनी होगी ।
           पर आप कहेगें, संसार में तो लोग मिल जाते हैं, तभी तो हम उसकी सेवा कर पातें हैं। लेकिन भगवान का मिलना तो दूर, दिखतें तक नहीं, उनकी सेवा क्या खाक करेंगें। बात सही है, मिलें तब तो कुछ सेवा हो, ऐसे हवा में क्या हो सकता है। तो बात फिर वहीँ पर पहुंच गईं जहाँ से शुरू हुई थी, कि भगवन का मिलना पहले जरूरी है, तभी कुछ बात बनेगी। लेकिन ऐसा नहीं है, भगवान भक्ति से खुश होतें हैं, ये बात सही है पर संसार में जैसे लोग सेवा चाहते हैं, भगवन वैसी सेवा की बात नहीं करतें। भगवान पूर्णरूपेण शरणागति चाहतें हैं। आप सबने नवधा भक्ति के बारे में सुना होगा। श्रीमद्भागवत में कहा गया है,
"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पदसेवनम् । 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥" 
श्रीमद्भागवत ७/५/२३ 
"भगवान  विष्णु  के  नाम , रूप , गुण , और  प्रभाव  आदि का श्रवण , कीर्तन  और स्मरण  तथा  भगवान  की  चरण सेवा , पूजन  और वंदन  एवं  भगवान में दास भाव , सखा भाव  और  अपने को समर्पण कर देना - यह  नौ प्रकार की भक्ति है । "
           संसार के लोगों की सेवा में थोड़ी बहुत कठिनाई भी है, आपको मेहनत करनी पड़ती है, पैसे खर्च करने होतें हैं, किन्तु भगवान की भक्ति बिल्कुल सरल है, सहज है। कुछ करने की जरुरत नहीं, कोई मेहनत नहीं, कोई पैसे भी नहीं लगते। आप जहाँ हैं, जिस जगह भी हैं, जिस किसी अवस्था में हैं, वहीँ पर भगवान की भक्ति कर सकतें हैं। भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहतें हैं,
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रच्छति । 
तदहं   भक्त्युपहृत्तमश्रामि  प्रयतात्मनः ॥"
 -भगवत गीता  ९/२६ 
"जो  कोई  भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र , पुष्प ,फल , जल आदि अर्पण करता है , उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र -पुष्पादि मैं  सगुण  रूप से प्रगट हो कर प्रीतिसहित खाता  हूँ  । "   
           अब इससे आसान क्या होगा, भगवान को तो कुछ भी नहीं चाहिए। और आपके पास ऐसा क्या है, जो आप भगवान  को दे सकतें हैं। आपको जो कुछ भी लगता है कि वो आपका है, वो भी तो भगवन का ही दिया हुआ है। सर्वशक्तिमान प्रभु केवल आपकी भावना के भूखे हैं। आप मन से उनकी भक्ति करें, तो और कुछ करने की जरुरत नहीं होगी। भगवान को खुश करना है तो बस उनके शरणागत हो जाइये। उनकी अनन्य भक्ति ही उनको पाने का एक मात्र तरीका है और कुछ नहीं। और प्रभु की भक्ति आसान है जैसा कि  ऊपर कहा गया है । तो फिर देर किस बात की, अभी तक, जो आपने मन को प्रभु से विमुख कर, संसार में लगा रखा है, उस मन को संसार से हटा के, प्रभु के संन्मुख कर दीजिए,फिर काम बन गया.…
  "सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥" 
- रा. च. मा. ५/४३/२  
"जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है,त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं "
           शुरू-शुरू में, आप को सन्मुख होने में थोड़ा समय लग सकता है, बार बार मन संसार की तरफ भागेगा, हो सकता है लगे कि कहाँ आ के फस गया, क्योंकि सदियों से मन संसार में लगा हुआ है, आसानी से नहीं छूटेगा, थोड़ी कठिनाई तो होगी। लेकिन आप विस्वास रखते हुए, अभ्यास के द्वारा इस मन को भगवान में लगाते रहिए, फिर आपको कुछ करने की जरुरत नहीं। बाकीं सारा काम प्रभु स्वयं करेगें और आपको अवश्य ही उनका दर्शन प्राप्त होगा। .... हरि ॐ ॥
"बचन कर्म मन मोरि गति, भजनु करहिं निःकाम । 
तिन्ह के ह्रदय कमल महुँ,  करउँ   सदा  बिश्राम ॥ "
- रा. च. मा. ३/१६
"जिनको कर्म,वचन और मनसे मेरी ही गति है;और जो निष्काम भावसे मेरा भजन करते हैं,उनके ह्रदय-कमलमें मैं सदा विश्राम किया करता हूँ "

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

" मानस-भक्ति: क्या, क्यों और कैसे ? "

           मानस-भक्ति: क्या, क्यों और कैसे ? " मानस-भक्ति ", यहाँ दो शब्द आया है, एक "मानस" और दूसरा "भक्ति"। 'मानस' का मतलब होता है 'मन से निकला हुआ' और 'भक्ति' का साधारण सा मतलब है 'सेवा करना'। ऐसे भक्ति शब्द "भज" धातु से बना है जिसका अर्थ होता है, सेवा कर, गुणगान कर, उसकी इच्छा को अपनी इच्छा बना कर, या चाहे किसी और प्रकार से, जिसकी भक्ति की जाये, उसको खुश करना, प्रसन्न करना। तो सीधे-सीधे 'मानस-भक्ति' का अर्थ हुआ "मन से की जाने वाली सेवा"। तो यहाँ प्रश्न है, हम जीवों को भक्ति किनकी, क्यों और कैसे करनी चाहिए और अंत में मन से कि गई भक्ति ही क्यों करनी चाहिए? आइये मिल कर हम इन सब बातों को एक-एक कर समझें।
           तो पहला प्रश्न है, हम जीव किनकी भक्ति करें? इसको समझने के लिए, आइये देखें हम किन-किन की भक्ति कर सकतें हैं और ऐसा करने से क्या-क्या मिल सकता है।? तो हम किन-किन की भक्ति कर सकतें हैं? विचार कर देखें, तो पता चलेगा, हम हर किसी की भक्ति कर सकतें हैं, हमारा मन है कौन रोकेगा? जिसकी भक्ति चाहे कर लो, धन-दौलत, रिश्ते-नातेदार, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़ आदि कुछ भी, यहाँ तक की अपने आप की भी। पर हमें अब ये सोचना है की इन से क्या मिलेगा। वास्तव में देखें तो हमने आज तक, इन्हीं सब की, भक्ति तो की है।अनंत जन्म बीत गए यूँ ही संसार की भक्ति करते। दिन-रात न न जाने क्या-क्या करते रहतें हैं, संसार को खुश करने के लिए। कभी-कभी तो सही-गलत भी भूल जातें हैं। पर मिला क्या, केवल दुःख! आप कहेगें सुख भी तो मिला है, संसार में कितने सारे सुख हैं, इनका क्या? पर क्या ये सारे सुख सही में सुख हैं? सांसारिक सुख छणिक होता है, और इसकी एक सीमा है। आज जिस किसी चीज से आपको सुख मिल रहा है, समय के साथ वो सुख कम होता जायेगा। मान लीजिये आपने सालों पैसे जमा कर अपने लिए एक विदेशी गाड़ी खरीदी। पहला दिन उस में बैठ कर, आप अपने आपको इन्द्र से कम नहीं समझेगें, दूसरे दिन वो सुख थोड़ा कम होगा, सप्ताह के अंत तक तो आप आदी हो जयेगें और महीने में तो ध्यान भी न रहेगा कि उस से कोई ख़ुशी भी मिला करती थी। फिर उस में दाग लग जाये, रंग हलका लगे, छोटी-मोटी खराबी आ जाये, कहेंगें चलता है। तो सांसारिक सुख छणिक होता है, और इसकी सीमा है क्यूंकि ये सुख मिलने के बाद भी आपकी सुख कामना ख़त्म नहीं होती, वरन कहें तो बढ़ती ही जाती है। जैसे ही आपने वो गाड़ी ली अब उससे अच्छी गाड़ी की कामना घर कर गयी। भले ही आप दुनियाँ की सबसे महँगी गाड़ी ली हो पर उसमें कुछ कमी होगी ही होगी। और किसी कारण से आप के मन की चीज आप को नहीं मिलती तो, क्रोध आता है और अंततः दुःख मिलता है।
          तो कुल मिला के संसार की भक्ति करने से कुछ मिलने वाला नहीं है। और अपनी भक्ति से तो बिल्कुल ही नहीं क्यूँकि हमारी शक्तियाँ सिमित है। और अगर हम अपनी मदद खुद कर पते तो अब तक काम बन गया होता। तो अब बच गए केवल भगवान, परम पिता परमेस्वर जिन्होंने इस सम्पूर्ण जगत की रचना की है और जिसको वो सुचारू रूप से चला भी रहें हैं। तो जो कुछ भी हो सकता है, वो भगवान की भक्ति से ही हो सकता है।  पर हम भगवन की भक्ति क्यों करें, उनसे क्या मिल सकता है, और क्या वो हमारी इच्छित वस्तु  दे सकतें हैं? इस बात पर विचार करें। हाँ, प्रभु सर्व-समर्थ हैं और वो हम सब को वो सब कुछ दे सकतें हैं जो हमें चाहिए। मानस में तुलसीदास जी ने कहा है,
"जो चेतन कहँ जड़ करइ, जड़हि करइ चैतन्य। 
अस समर्थ रघुनायकहि, भजहिं जीव ते धन्य॥"
- रा. च. मा. ७/११९''
"जो चेतन को जड देता है और जो जडको चेतन कर देता है,ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजी को जो जीव भजते हैं,वे धन्य हैं |"
और हम ने सुना है, न जाने कितने लोग उन परम दयालु प्रभु का सहारा ले कर सहज ही संसार सागर से पर हो -गए। वेदों-पुराणों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं और आज भी बहुत से संत मिल जायेगें जिन्होंने भगवत साक्षात्कार कर लिया है, और सांसारिक सुख-दुःख से मुक्त हो गए हैं।                
            तो एक बात तय हुई कि भक्ति केवल और केवल भगवान की ही करनी है। अब प्रश्न है भक्ति कैसे करें और मन से करने का क्या मतलब है? आप कहेगें भक्ति या सेवा तो शरीर से की जाती है, हाथों से पूजा कर के, पैरों से मंदिर और तीर्थ जा कर के, आँखों से भगवान की सुन्दर छवि का दर्शन कर के, कान से उनके रूप, गुण, लीला, धाम आदि का श्रवण कर के, मुख से उनके नामों का उच्चारण और भजन कर के, आदि-आदि। पर ये मन से भक्ति कैसे करें? मन स्वयं में कोई काम थोड़े ही करता है? हाँ आप की बात सही है, मन स्वयं में कोई काम नहीं कर सकता, लेकिन, मन ही सारी इन्द्रियों को नियंत्रित और संचालित करता है। फिर अगर आप केवल इन्द्रियों से भक्ति करें और आपका मन कहीं और हो तो, यह तो ढोंग होगा, ठगना होगा। संसार को आप थोड़ी देर के लिए ऐसे ठग सकतें हैं, पर क्या सारे ब्रह्माण्ड को चलने वाले, जिनको कण-कण का पता होता है, ठगा जा सकता है? नहीं बिल्कुल नहीं, यह संभव नहीं, ऐसे में आप उनको नहीं ठगते, वरन अपने आप को ही ठगते हैं। तो आप जब तक मन से भक्ति न करेगें, उनके प्रशन्न होने का सवाल ही नहीं उठता। और एक बात मन से भक्ति करना सुलभ भी है, कोई परिश्रम नहीं कोई खर्च नहीं। अभी मन किया बैठे-बैठे वृन्दावन घूम के आ गए, अभी घर में ही बैठे संगम स्नान कर लिया, नित नए नए रूपों का दर्शन कर लिया, हो गयी भक्ति, बिल्कुल आसान है। और भगवान तो मन से की गयी भक्ति को ही मानतें हैं। इसकारण आप मन से भक्ति करें, शरीर और इन्द्रियों से करें तो और अच्छी बात है, सोने पर सुहागा होगा, लेकिन शर्त बस एक है, मन का लगाव होना चाहिए। जो कुछ भी करें मन से करें, उनको मानते हुए करें, विस्वास कर करें। तो फिर कल्याण ही कल्याण होगा, मंगल ही मंगल होगा। हरि  ॐ।।
"बिनु बिस्वास भगति नहिं, तेहि बिनु द्रवहिं न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह विश्रामु ॥" 
- रा. च. मा. ७/९०'
"बिना बिश्वास के भक्ति नहीं होती,भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते नहीं और श्रीरामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता "
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