रविवार, 23 अक्तूबर 2016

"त्याग"

""माँ! माँ!"
एक नन्हें बालक ने, माँ के गोद में आ कर कहा। उम्र यही कोई सात-आठ साल की होगी। दुबला-पतला शरीर रंग बिलकुल गोरा, चेहरे पर रौनक, आँखों में अशीम निश्छल शांति और भाव गंभीर। माँ समझ गयीं, जरूर कोई विशेष बात है।बड़े प्यार से बालक को सीने से लगाया और सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं। 
"बोलो मेरे लाल, क्या हुआ? क्या चाहिए?"
"माँ" एक लंबी और गहरी साँस...
"हाँ बेटा! बोलो।"
"माँ, मुझे संन्यास लेना है।" बेटे ने बड़े ही शांत भाव से अपनी बात रख दी। 
एक लंबी ख़ामोशी! थोड़ी देर के लिए तो माँ को समझ ही नहीं आया कि बेटे ने क्या माँगा। बेटे ने सच में संन्यास की माँग की या यह एक बालक की चंचलता बस भर है। माँ थोड़ी देर के लिए विस्मित सी हो गयी। बालक का प्रश्न गंभीर था और माँ को शायद पता था कि ये किसी अबोध बालक का माशूम प्रश्न नहीं है। उसे अपने बेटे की बौद्धिक कौशलता का आभास है। लेकिन वो इस माँग के लिए अभी तैयार नहीं थी। माँ को पता है, उसका बेटा असाधारण पतिभा का धनी है। वो साक्षात् ज्ञान की गंगोत्री से निकला है और उसे ज्यादा दिनों तक घर-गृहस्थी में बाँध कर रखना संभव नहीं। लेकिन वो दिन इतनी जल्दी आ जाएगा, उसने सपने में भी न सोचा था। माँ को पुरानी बातें याद आने लगीं। कैसे शादी के बाद बहुत दिनों तक बिना संतान के दुःख भरे दिन गुजारे थे। और न जाने कितने व्रत, तपस्या और पुण्य कर्मों के बाद उसे बेटे की प्राप्ति हुई थी। उसे याद है कैसे बेटे के जन्म के बाद घर-घर में मिठाइयाँ बटीं थी। कैसे बेटे के नींद के साथ सोना और जगना हुआ करता था। कैसे उसके हँसी के साथ हँसती और उसके दुःख से रोती थी। उसका बेटा उसका जीवन था। बेटे के जन्म ने उसके दामन को खुशियों से भर दिया था। लेकिन शायद विधाता को कुछ और ही मंजूर था। उसकी खुशियाँ ज्यादा दिनों तक नहीं रहीं। एक दिन अकस्मात्
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"गर्व से कहो.... मैं शूद्र हूँ!"

           आज की भगवत विषयक चर्चा में आप सभी महानुभावों का स्वागत करता हूँ, और आप सभी ने जो अपना कीमती समय निकाल कर, कष्ट सह कर यहाँ पधारे, इसके लिए आप सबों को बहुत-बहुत धन्यवाद। ऐसे हम सभी, प्रायः किसी न किसी प्रश्न को ले कर अपनी चर्चा आरंभ करते हैं। किन्तु आज जो प्रश्न आया है, उसे पढ़ कर मन थोड़ा दुःखी हुआ। प्रश्नकर्त्ता ने पूछा है, "जाति से मैं शूद्र हूँ, और कभी-कभी अपनी जाति बताने में लज्जा का अनुभव करता हूँ। मेरे मानसिक दुविधा को शांत करें। और साथ ही साथ उन्होंने पूछा है आप का क्या वर्ण है, आप की जाति क्या है?" उनका पत्र लंबा है और उन्होंने और भी कई दृष्टान्तों का वर्णन किया है। पर मैंने छोटे में उनके प्रश्न को बताया।  प्रश्न केवल उनका ही नहीं, वरन ये प्रश्न बहुतों का है। उन्होंने अपने मन के विचारों को बड़े ही मार्मिक ढंग से रखा है। उनके दुःखी मन के साथ-साथ हमारा मन भी रो रहा है, कष्ट पा रहा है। और उनकी वेदना से, मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। आज के वैज्ञानिक युग में भी हम इन बातों को ख़त्म नहीं कर पाए, जान कर दुःख होता है। केवल रहन-सहन में ही बदलाव आया है, सोच हमारी अभी भी बहुत छोटी है, ये सोच मन दुःखी होता है, रोता है।
           लेकिन अगर विचार करें तो उनके मन की वेदना, आरोपित की गई वेदना है, ऊपर से थोपी गई वेदना है। वास्तव  में इसका कोई स्थान ही नहीं। वर्ण व्यवस्था तो समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाई गयी थी।उस समय यह वर्णों का विभाग केवल दैनिक कर्मों के अनुसार तय की गयी थी। उसमें  कोई उच्च और निम्न होने की बात ही नहीं। आज भी जैसे हम कहते हैं कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर है, कोई चित्रकार है। हम ये नहीं कहते इंजीनियर बड़ा है, डॉक्टर छोटा। दोनों अलग-अलग हैं, समाज के लिए दोनों जरुरी हैं। दोनों का काम अलग-अलग है, कोई छोटा या बड़ा नहीं। कोई उच्च और निम्न नहीं। इसीप्रकार शुरू में भी वर्ण व्यवस्था, कर्मों को ध्यान में रख कर के की गयी थी। उस समय कोई वर्ण छोटा या बड़ा न था। धीरे-धीरे समाज को कुरीतियों ने घेड़ लिया और फिर एक वर्ण के लोग अपने आप को बड़ा समझने लगे और दूसरे वर्ण को छोटा समझा दिया गया। और समय के साथ-साथ ये छोटे-बड़े का भेद भी बढ़ता ही चला गया। आज ये स्थिति ये है, कि एक खास वर्ण-जाति के लोग अपने आपको छोटा ही समझने लगे हैं। तो हमारी जो यह वर्ण-जाति व्यवस्था उच्च-निम्न, छोटा बड़ा आदि में बटी हुई है, यह ऊपर से थोपी गयी सोच है। जिसे जितनी जल्दी हम बदलेगें, उतनी जल्दी ही एक मजबूत समाज की आधार शिला रख पायेगें।
           आज की चर्चा में हम इस बात को थोड़ी गहराई से देखेगें। वेदों ने वर्ण और आश्रम की जो व्यवस्था बताई है उसमे चार प्रकार के वर्ण और चार प्रकार के आश्रम है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये वर्ण व्यवस्था के चार अंग हैं तथा बह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, ये आश्रम व्यवस्था के चार अंग हैं। कोई भी मनुष्य इन चार वर्ण और आश्रम में से अपनी रूचि के अनुसार चुनाव कर सकता है। जैसे वर्ण से ब्राह्मण और आश्रम से गृहस्थ, वर्ण से शूद्र और आश्रम से संन्यास आदि। और ये चुनाव बिल्कुल स्वेच्छा से होना चाहिए, व्यक्ति के विचारों और कर्म कौशल से होनी चाहिए। वर्णाश्रम व्यवस्था के अंग इस प्रकार हैं :

इस प्रकार कोई भी मनुष्य इन सोलह प्रकार के जीवन धर्मों में से किसी भी प्रकार के जीवन को अपना सकता है। इसके लिए कोई रोक-टोक नहीं। वेदों ने वर्णाश्रम व्यवस्था का विभाग कर इन सभी के लिए कुछ नियम निर्धारित किये हैं। चारों वर्ण के लिए अलग-अलग नियम और चारों आश्रम के लिए अलग-अलग नियम। और ये नियम समाज को व्यवस्थित रखने के लिए हैं, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए हैं। वेदों ने कहीं पर भी किसी एक वर्ण या आश्रम को बड़ा या छोटा नहीं बताया है। और बात क्या कहें, वेदों में प्रमाण हैं शूद्रों के संन्यासी होने के। उदाहरण स्वरुप पुराणों के वक्ता को ही ले लें। तो शुरू में इस व्यवस्था में कोई भेद-भाव न था। सदियों ये नियम सुचारू रूप से समाज को चलाते रहे। लेकिन समय के साथ-साथ, कुछ स्वार्थी लोगों ने इसमें भी अपना स्वार्थ ढूंढना शुरू कर दिया। वो बैठे-बिठाये, बिना परिश्रम के अपना काम बनाने की बात सोचने लगे। उनके पास स्वयं का तो पुरुषार्थ था नहीं, कि खुद को ऊपर उठा पाते। इसकारण से उन्होंने एक सोची-समझी नीति के तहत धीरे-धीरे एक खाश वर्ग के लोगों को निम्न दिखाने लगे। उनके मन में ये बात बिठाने लगे की तुम छोटे हो। और वे भी भोले- भाले लोग इस बात को मन बैठे की वो छोटे हैं, उनका समाज छोटा है। उनके ऐसे मनाने का भी कारण है, उनकी निश्चलता, उनकी सादगी, अपने मेहनत और कर्म में पूर्ण विश्वास। ऐसे भोले-भाले लोग उन कपटी लोगों की बातों में आ गए। और फिर शुरू हुआ शोषण और अत्याचार का भयावह दौर। जिसे सोच कर भी आपके रोंगटे खड़े हो जायेगें। इस प्रकार जाति और वर्ण की व्यवस्था समय के साथ-साथ कुलषित होते चली गयी। अभी थोड़े समय से लोगों की सोच में परिवर्तन आया है, आना शुरू हुआ है। लेकिन अभी भी एक बड़ा वर्ग इस व्यवस्था से पीड़ित है। इसके लिए हम सब को एक साथ मिल कर काम करना होगा। खुद की सोच बदलनी होगी, आस-पास के लोगों को इस भ्रम से निकलना होगा। और सबसे महत्वपूर्ण बात ये की आने वाली पीढ़ी में ये जहर न फैले इस की लिए उन्हें अच्छे संस्कार देने होंगें। हमारी नयी पीढ़ी वही देखती और सीखती है जो हम सोचते और करते हैं। तो हमें अपनी सोच बदलनी होगी। अपना व्यवहार बदलना होगा। तभी धीरे-धीरे हम अपने लक्ष्य में कामयाब हो सकते हैं और एक सांस्कृतिक रूप से समृद्धशाली समाज की स्थापना कर सकते हैं, स्थापना कर पायेगें।
          अब आते हैं, प्रश्नकर्ता के दूसरे प्रश्न पर, जिसमें उन्होंने मेरी जाति पूछी है। ....  
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