सोमवार, 14 मार्च 2016

"साधनापथ में अनुकूलता"

           साधनापथ में अनुकूलता, कुछ दिन पहले एक साधक मित्र का पत्र आया। पत्र में उन्होंने लिखा है, "भगवत भक्ति की चाह में, अभी कुछ दिनों से साधना आरंभ किया हूँ। लेकिन इस भगवत पथ में अनुकूलता के वजाय, बहुत सारी प्रतिकूलतायें पता हूँ। करने का कुछ सोचता हूँ, परन्तु होता कुछ और ही है। भगवत-भक्ति के पथ में भी इतनी सारी प्रतिकूलता, क्यों? भगवान के भक्त के लिए तो सब कुछ अनुकूल होना चाहिए। और भगवत-भक्ति के मार्ग पर तो चीजें आसान होनी चाहिए। पर ऐसा क्यों होता है कि भक्ति-भाव में भी बहुत सारे विघ्न-वाधा आते रहते हैं? भक्ति का मार्ग अनुकूल क्यों नहीं होता?" बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है, आपको इसके लिए साधुवाद। मेरा मानना है, मार्ग चाहे कोई भी हो, सबसे पहली परिभाषा उसकी प्रतिकूलता ही है। अगर सब कुछ अनुकूल-अनुकूल रहे तो वो मार्ग कहाँ कहलायेगा, वो तो मंजिल ही हो जाएगी। मंजिल दूर है इसलिए तो रास्ते की जरुरत होती है। वर्ना फिर कहेंगें, रास्तों पर चलने की भी क्या जरुरत सीधे-सीधे मंजिल ही माल जये। मंजिल अगर आसानी से मिल जाए, तो फिर मंजिल का क्या महत्व रह जायेगा। बात अनुकूलता या प्रतिकूलता की की तो है ही नहीं, बात ये है की मंजिल से कितना प्यार है। मंजिल पाने की कितनी चाहत है। उससे मिलने की कितनी बेकरारी है। अनुकूलता या प्रतिकूलता तो सब मन की बात है। आप जिसे प्रतिकूल कह रहें हैं, शायद वो किसी के लिए अनुकूल हो। और भगवत-भक्ति के मार्ग में रास्तों पर चलना ही मंजिल है। आपने सुना होगा, 'जब भगवान् पूछते हैं, माँगो भक्त क्या वर माँगते  हो? तो भक्त कहता है, प्रभु अगर देना ही है तो अपनी भक्ति दे दीजिये। ऐसा कुछ दीजिये जिससे सदा-सदा मैं आपके चरणों का अनुरागी बना रहूँ। तुलसीदास जी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से कहा है,
"अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागउँ। 
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ॥"
- रा . च . मा . ४/९/९-१० 
"हे नाथ! अब मुझपर दयादृष्टि कीजिये और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिये । मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ,वहीं श्रीरामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ। " 
साधना में सफलता या असफलता, इस बात पर निर्भर नहीं करता कि रास्तों में अनुकूलता या प्रतिकूलता कितनी रहीं, बल्कि वो इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी ईमानदारी से प्रयास किया गया। जब राम-रावण में युद्ध चल रहा था, तो रावण के पास बहुत ही उत्तम रथ, बुद्धिमान सारथि, सुसंगठित सेना आदि थे। लेकिन राम बस अपने धनुष-वाण के साथ पैदल थे। इसको देख कर विभीषणजी बहुत ही डर गए, कहाँ तो तीनो लोकों को अपनी भुजाओं के बल से जीतने वाला रावण और वो भी युद्ध की सारी अनुकूलता के साथ और कहाँ ये अयोध्या के सुकुमार बालक(वो पहले भगवान राम का रण कौशल नहीं देखे थे), वो भी बिना किसी रथ घोड़ों के साथ। तो वे डर गए, घबड़ा गए। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं,
"रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।। 
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।"
- रा . च . मा . ६/७९/१-२ 
"रावण को रथ और श्रीरघुनाथजी को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर ही गये। प्रेम अधिक होने से उनके मन में संदेह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेगें )। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की वंदना कर के वे स्नेहपूर्वक कहने लगे।" 
"नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।"
- रा . च . मा . ६/७९/३ 
"हे नाथ ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करनेवाला कवच है और न ही जूते ही हैं। वह बलवान वीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा ? "
विभीषण जी को भयभीत देख कर, भगवान राम ने उन्हें समझाया,  
"सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।। 
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।। 

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।। 

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।। 

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।"
- रा . च . मा . ६/७९/४-११ 
"कृपानिधान श्रीरामजी ने कहा -हे सखे सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है । शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इन्द्रियों का वश में होना ) और परोपकार - ये चार उसके धोड़े हैं , जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ में जुड़े हुए हैं। ईस्वर का भजन ही (उस रथ को चलने वाला )चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचंड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञानं कठिन धनुष है। निर्मल (पापरहित )और अचल (स्थिर ) मन तरकश के समान है। शम  (मन का वश में होना ),(अहिंसादि ) यम ,(शौचादि )नियम - ये बहुत से वाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का  पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे सखे ! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो  उसके लिए जितने को कहीं शत्रु ही नहीं है। "
"महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर। 
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।"
- रा . च . मा . ६/८०'
"हे धीरबुद्धि वाले सखा ! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ रथ हो , वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु ) रूपी महान दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या )। "
"सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज। 
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज।।"

- रा . च . मा . ६/८०''
"प्रभु के वाचन सुनकर विभीषण जी ने हर्षित होकर उनके चरणकमल पकड़ लिए (और कहा -)हे कृपा और सुख के समूह श्रीरामजी ! आपने इसी बहाने मुझे (महान )उपदेश दिया। "
इसीप्रकार का कुछ प्रसंग भागवत महापुराण में आता है, 'एकबार दानवों ने मयदानव की सहायता से त्रिपुर(तीन  अलौकिक विमान जो की अदृश्य थे और जिनका आना-जाना दिखाई नहीं पड़ता था) में रह कर लोगों पर बहुत से अत्याचार करने लगे। जब दानवों का आतंक बहुत बढ़ गया तो सब देवता मिलकर भगवान् शंकर के पास गए। भगवान् शंकर के प्रयास  के बाद भी दानवों का आतंक ख़त्म नहीं किया जा सका। तब भगवान् शंकर अपने भक्तों को दुःखी  देख कर उदास हो गए। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवान् शंकर के लिए युद्ध की सामग्री तैयार की।
"धर्मज्ञान विरक्त्यृद्धितपोविद्याक्रियदिभिः। 
रथं सूतं ध्वजं वाहान्ध नुर्वर्म शरादि यत्॥ "
-भागवत महापुराण ७/१०/६६ 
"उन्होंने धर्म से रथ, ज्ञान से सारथि, वैराग्य से ध्वजा, ऐश्वर्य से घोड़े, विद्या से कवच, क्रिया से बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियों से अन्यान्य वस्तुओं का निर्माण किया। "
           तो रस्ते की अनुकूलता या प्रतिकूलता को आप कैसे देखते हैं। ये आप पर निर्भर करता है। सारी प्रतिकूलताओं को पार पाने की शक्ति हमारे अंदर स्वयं छुपा हुआ है। आप सब ने अनुभव किया होगा, जो हम करना चाहते हैं, उनमें से कुछ चीजें कर पातें हैं और वो वो उसी अनुरूप में, हो भी जातीं हैं। लेकिन, कभी-कभी सोची हुई या यौं कहें की प्रयत्न की हुई चीजें भी, नहीं होतीं हैं। और कुछ समय ऐसा भी होता है, जब हमारे न चाहते हुए भी कुछ चीजें हो जातीं हैं। जीवन में प्रयत्न तो जरूरी है पर हर कोशिश सफल हो जाये, इसकी कोई निश्चिता नहीं। परन्तु एक बात है, यदि आप कोई भी काम पूरी ईमानदारी से करते हैं, तो उसके होने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। तो जीव प्रयास कर सकता है, चीजें को अपने अनुरूप करने का, और एक न एक दिन वो अपने कार्य में सफल होता है। अब दूसरी बात लें, जब हमारे नहीं चाहते हुए भी कुछ चीजें जीवन में घटित हो जातीं हैं। ऐसे में हमारा साथ परमात्मा देते हैं। और अगर उनमें पूर्ण श्रद्धा रखें तो धीरे-धीरे न चाहने वालीं चीजें कम होने लगेगीं, जीवन की अनिश्चितायें घटेगीं, जीवन सुखमय होगा। तो हम जो चाहते हैं की हो, इसके लिए हमें प्रयास  करना होगा, और जो नहीं चाहते हैं हो परमात्मा उसे होने नहीं देगा।
           एक बात और, आपने पूछा भगवत-भक्ति के मार्ग में भी वाधा-विघ्न क्यों होता है। मेरा तो मानना है, भक्ति के मार्ग में ही वाधायें आतीं हैं, वर्ना संसार में तो जीव हमेसा से भटकता ही आ रहा है, भगवान की माया ऐसी ही है कि संसार में चित का लगाना तो बहुत ही सहज है। ऊपर उठने के लिए ही आपको प्रयास करने जी जरुरत होती है, नीचे गिरने के लिए तो कुछ करना ही नहीं। आप सहज ही नीचे गिरते जातें हैं। गिरने के लिए कहाँ परिश्रम करना होता है। और भगवान ने अपनी लीला-कथाओं में भी यही कर के बताया है। आपने सुना होगा, हनुमानजी जब अपने वानर मित्रों के साथ, माँ सीता की खोज में निकले तो, उनका मार्ग कोई आसान न था। नौवत तो यहाँ तक आ गयी थी कि लगा अब प्राण जाने ही वालें हैं। लेकिन उन विषम परिस्थितियों में भी उन सब ने अपनी श्रद्धा-भक्ति को डिगने नहीं दिया और अंत में माँ सीता की खोज कर ही आये। तो मार्ग में प्रतिकूलता तो होगी ही, बहुत सी कठिनाईयाँ भी होगीं, कदम-कदम पर ठोकरें भी लगेगीं, लेकिन आपको अपना विस्वास बना के रखना है। भगवत-भक्ति का जो मार्ग आपने चुना है, उस पर अनवरत चलते रहना है। एक दिन अवश्य ही मंजिल मिलेगी इसमें कोई संदेह नहीं। और एक बात, अगर मार्ग में प्रतिकूलता आ रही है, इसका मतलब आप सही रस्ते पर चल रहें हैं। अगर वाधायें आ रहीं हैं तो अब मंजिल दूर नहीं रहा। अब पहुँचने ही वाले हैं। परमपिता परमेस्वर आप के साथ हैं तो फिर किस बात का डर। सबका उद्धार करने वाले जब साथ में हों तो डूबने की कहाँ चिंता। और ऐसे भी हमारा काम है बस भगवत-भक्ति के मार्ग पर चलना, मंजिल तक पहुचाने का काम तो उनका है। अब वो जाने कि हमें मंजिल तक कैसे ले जाना है, हम तो सब कुछ सौंप कर, बस निकल पड़े हैं। रह दिखाना, मंजिल तक ले जाना सब उनका काम है। पर हाँ, अपनी ओर से पूर्ण शरणागति होनी चाहिए, अनन्य भक्ति होना चाहिए, श्रद्धा और विस्वास बन के चलना चाहिए। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ अनुकूल होगीं, समय परवर्तित होगा, भगवान अवश्य ही मिलेगें। आप भगवत-भक्ति के मार्ग पर बस अनवरत चलते रहें, भगवान् कब मिलेगें, कैसे मिलेगें ये सब भी भगवान् पर ही छोड़ दे, परम कल्याण होगा, सब मंगलमय होगा।
"मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥"
- रा . च . मा . ७/१३०'
"हे रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिए । "
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