बुधवार, 23 नवंबर 2016

" नशा : सबसे ज्यादा किसका ? "

           सबसे पहले भगवत भक्ति की इस अनुपम चर्चा में आप सभी का स्वागत करता हूँ। ऐसे तो अक्सर हम किसी न किसी नए विषय को लेकर, अपनी चर्चा का आरंभ करते हैं, लेकिन आज का जो प्रश्न आया है, वह थोड़ा अलग सा है। एक भक्त ने पूछा है, "सबसे ज्यादा नशा किससे होता है?" प्रश्न थोड़ा अलग सा है और आप ये भी कह सकते हैं, भक्ति विषयक चर्चा में यह विषय क्यों? पर मेरा मनना है, मन में द्वन्द की स्थिति नहीं रहनी चाहिए। आप के मन में अगर कोई प्रश्न है, तो जल्द से जल्द उसका समाधान कर लेना चाहिए। मन में अगर कोई बात रह जाती है, तो धीरे-धीरे वह अपनी पैठ बना लेती है। और फिर उसका समाधान कठिन हो जाता है। तो आइए अब बात करते हैं, आज के प्रश्न पर," नशा : सबसे ज्यादा किसका ? "
           ऐसे तो दुनियाँ में बहुतों प्रकार का नशा होता है। लेकिन सबसे ज्यादा नशा किसका होता है, इस पर लोगों की अपनी-अपनी राय हो सकती है। और अगर विज्ञान की बात करें, डॉक्टरों की बात करें तो ये सूचि बड़ी होते जाएगी। लेकिन हमारा मकसद, और शायद प्रश्नकर्ता का भी मकसद इसे विज्ञान की नजरों से देखना नही है। विज्ञान और डॉक्टरों वाली बात, आप आसानी से इंटरनेट आदि पर खोज कर पा सकते हैं। उस पर शोध आदि भी कर सकतें हैं। तो इस बात को हम आप पर छोड़ते हैं। लेकिन एक बात, विज्ञान वाले नशे का प्रयोग स्वयं पर कभी न करें, वार्ना आप के  शोध का तो पता नहीं, पर आप किसी गली-चौराहे, नदी-नाले में गिरे-पड़े अवश्य ही मिलेगें। ऐसा शोध कभी न करें जिसमें, आप के खुद के खो जाने का भय हो। आपकी शोध तो जाएगी ही आप भी नहीं मिलेगें। तो संसार में ऐसे बहुत सी चीजें हैं, जिनमें नशा होता है। और डॉक्टर लोग इनका प्रयोग, रोगों का उपचार करने में करते हैं। लेकिन नशा और भी कई कारणों से सकता है, जो कि बहुत ही खतरनाक है। कहतें हैं, नशे में आदमी को कुछ भी पता नहीं रहता। लोग नशे की हालात में अपना-पराया, अच्छे-बुरे सब कुछ भूल जाते हैं। तो ये नशा बहुत ही खतरनाक है, पीड़ादायी है। खाश कर जब आप नशे से बहार निकलते हैं तो, खुद से नजर मिलाने के लायक नहीं रहते। एक तो हुआ नशा, जो कि खाने-पीने से आता है। दूसरा, कभी-कभी बिना खाये-पीये भी लोग नशे में होते हैं। कबीरदास जी ने कहा है,
" कनक कनक ते सौ गुणी, मादकता अधिकाय। 
एक  खाय बौराय नर,  एक  पाय  बौराय॥ "
- "कबीर" 
"कनक का एक अर्थ होता है सोना, और दूसरा अर्थ होता है धथूरा ,कबीरदस जी कहते हैं सोने (वाले कनक )में ,धथुरे (वाले कनक) से , सौ गुना ज्यादा नशा होता है, क्योंकि धथुरे को तो खाने के बाद नशा होता है, किन्तु सोने को पाने से ही नशा हो जाता है। " बात बिल्कुल सही भी है, आज हम लोगों को धन-संपत्ति, रुपये-पैसों आदि के नशे में  देखते हैं, और ये नशा इतना गहरा होता है कि लोग आजीवन इससे बहार नहीं निकल पाते। खाने-पीने के नशे से तो लोग धंटे दो-चार घंटे में बहार हो जाते हैं, लेकिन धन का जो नशा है, उसका जाना मुश्किल होता है। धन का ये नशा कुछ ऐसा होता है कि लोग अपनों तक को भूल जाते हैं। गाँव-समाज की बात कौन कहे, लोग माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि सभी रिश्तों को दरकिनार कर जाते हैं। ऐसा नहीं की ये धन सदा आप के पास रहने वाला है। कहते हैं लक्ष्मी चंचला होतीं हैं। कभी भी एक जगह नहीं ठहरती, लेकिन फिर भी लोग इसके लिए पागल बने बैठे हैं। धन का आना जाना तो लगा ही रहता है और आगे भी जारी रहेगा, लेकिन उसके लिए ये दीवानगी, कि हम अपने माता-पिता को ही भूल जाएँ, ये सही नहीं।
           ये तो रही धन की बात, एक और चीज है, जिसका नशा इस धन से भी ज्यादा होता है। धन तो भौतिक पदार्थ है, इस को प्राप्त करना, संग्रह करना समझ में आता है। लेकिन यह जो नशा है, इसे आप छू नहीं सकते, देख भी नहीं सकते, तिज़ोरी  में बंद कर रख नहीं सकते। लेकिन इसका जो नशा होता है, वह अतिसय भयावह होता है।  .... 
continue ...




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सोमवार, 21 नवंबर 2016

"एक भक्त की कथा"

           आज की भगवत-चर्चा में आप सभी महानुभावों का स्वागत करता हूँ, अभिनन्दन करता हूँ। आज की चर्चा कुछ खास है। खास इसलिए कि, आज की चर्चा में हम लोग "एक भक्त की कथा" पर विचार करेगें। बात बिल्कुल सच्ची और आत्म बीती है। हो सकता है, आप लोगों को भी ऐसा अनुभव हुआ हो। जब आप किसी से मिलते हों और बातचीत के क्रम में कुछ बातें आप के मन को छू जातीं हों। मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। अभी कुछ दिन पहले की बात है, मुझे एक भगवत-भक्त से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जान-पहचान पहले से थी, जब भी वहाँ जाता उनसे जरूर मिलता था और समय-समय पर हमलोग मिलकर भगवत विषयक चर्चा करा करते थे। उनके स्नेह का सदा मैं पात्र रहा। तो इस बार भी जब मैं उनसे मिला तो यूँ ही कुछ भगवत-विषयक चर्चा आरंभ हुई। उन्होंने अपने जीवन की दो दृष्टांतों के बारे में बताया। जिसका प्रतिबिम्ब आज भी मेरे मानस पटेल पर पड़ा हुआ है। आज हम लोग उन्हीं दो दृष्टांतों पर चर्चा करेगें।
           पहली बात उन्होंने जो बताई, वह है लोग चंदन क्यों लगते हैं, टीका क्यों लगते हैं। बात साधारण हो सकती है। आप में कईयों को ये बात वैज्ञानिक तरीके से भी पता हो, पर उनका उत्तर मुझे बहुत पसंद आया। इसकारण  वह आप सबों से साझा करना चाहता हूँ। बात शुरू करूँ, इससे पहले थोड़ा उन संत का परिचय दे दूँ। उम्र क़ोई ४५-५० वर्ष की है। एक छोटे से गाँव  में रहते हैं। किसान परिवार से हैं, इस कारण ज्यादा पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला। बस थोड़ी बहुत तो पैतृक संपत्ति है, उसी में खेती-वारी कर के अपना और परिवार का गुजर-वसर कर रहे हैं। वर्षों उन्होंने एक सामान्य सा जीवन जीया। एक दिन भगवत कृपा और संतों के समागम से, पुण्यों का उदय हुआ और उनकी जीवन-शैली बदल गयी। भगवत-भक्ति का रंग, कुछ ऐसा चढ़ा कि दुनियादारी घीरे-धीरे पीछे छूटने लगी। जो कभी गलती से भी भगवान का नाम नहीं लेते थे, अब बिना भगवत भजन किये दिन की शुरुआत नहीं करते। खानपान बदला, पहनावा बदला, संगती बदली, एक प्रकार से कहें उनकी सारी दुनियाँ ही बदल गयी। लेकिन परिवर्तन हमेशा अनुकूल ही नहीं होता। जब चीजें बदलती हैं तो सभी अच्छा-अच्छा ही नहीं होता, कुछ विपरीत परिवर्तन भी होते हैं। प्रतिकूलता उनके साथ भी आई भी। सबसे पहले आस-पास के लोगों ने ही कहना-सुनना शुरू किया। ये वो घड़ी थी, जब अपनों ने ही रास्ता रोकने का काम किया। लोग भजन, करने, चन्दन करने, पूजा करने आदि का मज़ाक उड़ने लगे। राह चलते, रास्ता रोक कर न जाने कैसे कैसे बात कहने लगे। मनुष्य के जीवन में ये घड़ी बड़ी कठिन होती है, जब अपने लोग ही रास्ता रोक के खड़े हो जाते हैं। यही वो समय होता है जब आप परीक्षा दे रहे होते हैं। आप दुनियाँ से तो लड़ कर आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन आप की असली परख तब होती है, जब आप अपनों से विरोध सह रहे होते हैं। उनका भी वही समय चल रहा था। जिन्हें वो अपना मानते थे, जिन्हें अपना समझते थे, वो लोग ही आज उनके पीछे पड़े हुए थे। पर उन्होंने हार नहीं मानी और अपना विस्वास बनाये रखा। भगवत कृपा से वे सभी बाधायों को पार करते चले गए। सच कहतें हैं, प्रभु अपने भक्तों को कभी हारने नहीं देते। हाँ थोड़े समय के लिए कष्ट होता है पर अंत में हमेशा जीत होती है।
           बात उन्ही दिनों की है, जब लोग आ-आ कर उनसे तरह-तरह के सवाल पूँछा करते थे। एक दिन की बात है, किसी ने मजाक के लहजे में उनसे पूँछा, महात्मा जी! आप जो यह चन्दन-टीका लगते हैं वो क्यों लगते हैं? पूंछने वाले सज्जन को लगा गंवार आदमी है, जबाब तो दे नहीं पाएगा, इसकी खिल्ली जरूर उड़ेगी। लेकिन इनका जबाब बहुत ही सुंदर था। इन्होंने कहा, मैं शरीर के सात अंगों पर चन्दन लगता हूँ। माथे पर चन्दन इसलिए लगता हूँ कि मेरी बुद्धि हमेशा शुद्ध हो। माथे का चन्दन हमेशा मुझे याद दिलाते रहता है, कि हम अपनी सात्विक बुद्धि से अपने मन और इन्द्रिय को भगवत-भक्ति में लगाए रहें। दोनों कान में चन्दन इसलिए लगता हूँ कि हमेशा अच्छी-अच्छी बातों को ही सुनूँ ग्रहण करूँ। कानों का चन्दन इस बात का याद दिलाये रखता है कि भगवत चर्चा के सिवाय सारी बातें व्यर्थ हैं, इसलिए हमेशा भगवान के प्यारे गुणों का ही श्रवण होता रहे। अपने दोनों हाथों में चन्दन इसलिए लगता हूँ, ताकि इन हाथों से हमेशा अच्छे कर्म कर सकूँ। हाथों का चन्दन याद दिलाते रहता है कि हमारे कर्म भगवत विषयक हों। कर्मों में कर्तापन का अभिमान न हो। कण्ठ में चन्दन लगता हूँ, ताकि हमेशा मीठी और अच्छी वाणी बोल सकूँ। भगवान के भजन गा सकूँ। कण्ठ का चन्दन भगवान के प्यारे नामों का निरंतर जयकार लगाने का याद दिलाते रहता है। और ह्रदय में चन्दन इसलिए लगता हूँ ताकि, भगवान् में प्रेम हो सके। ह्रदय का चन्दन याद दिलाते रहता है, प्रेम का, करुणा का। भगवान् की सारी सृष्टि, भगवन्मय है। इसकारण हमेशा सब जीवों से प्रेम हो, किसी के लिए गलती से भी द्वेष-भावना न हो। ये सात अंगों का चन्दन प्रतीक है, भगवत-भक्ति का, उनकी कृपा का। उन्होंने उस व्यक्ति से कहना जारी रखा और बोले "मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं। ज्ञान-विज्ञान की बातों से कोसों दूर हूँ। चन्दन लगाने के और भी कोई वैज्ञानिक कारण हों, तो वो मुझे नहीं पता। लेकिन ये चन्दन मैं  रोज इस लिए लगता हूँ ताकि, प्रभु की कृपा यूँ ही सदा पा सकूँ। उनके भक्तों का संग पा सकूँ।" उनकी ये सारी बातें, मेरे मन को छू गयीं। इसमें भी हो सकता है लोग कुछ तर्क निकाल लें, पर इसमें उनकी सरलता और निष्कपता दिखती है। यहाँ उनका उत्तर महत्त्व पूर्ण तो है ही, साथ ही साथ उनकी भावना कहीं और गहरी हैं। और मूल में तो केवल तो केवल उनकी अनन्य भक्ति ही है।     
           अब आतें हैं, उनके जीवन के दूसरे दृष्टान्त की बातों पर, जो की बहुत मार्मिक है। ये घटना पहले वाली से भी पहले की है और उनके जीवन के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुई। इस घटना के बाद ही उनका जीवन बदल गया। बात उन दिनों की है जब वो एक सामान्य सा ग्रामीण जीवन जी रहे थे। काम था, सुबह उठ कर खेतों पर जाना और उसमें लगे फसलों को देखना। जब वो यह दृष्टान्त मुझे सुना रहे थे तो लगा वो बिलकुल उस पुराने समय में पहुँच गए हैं। चेहरे पर निःशब्ता झलक पड़ी थी। उनका मन एक गहरी वेदना में डूब गया था। आँखों में शायद पश्चाताप के आँसू थे। घटना कुछ इस प्रकार थी, सर्दियों का मौसम था, अन्य दिनों की भांति वो अपने खेतों को देखते-देखते आगे जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा, सामने एक मादा खरगोश धूप में लेटी हुई अपने चार-पाँच बच्चों को दूध पिला रही थी। एक तो सर्दी का मौसम और ऊपर से सुबह की प्यारी धूप, मादा खरगोश थोड़ी सुस्ता गयी। उसे इनके पास आ जाने का कुछ पता नहीं चला। वो अभी भी पहले की भाँति आँखें बंद किए लेटी हुई थी। तभी मन में न जाने सूझी, इन्होंने पास में पड़े एक डंडे को हाथ में उठा लिया। सोचा होगा, आज अच्छा शिकार हाथ लगा है, एक मोटा-ताज़ा खरगोश तो मिलना तय है, हो सकता है दो-तीन भी हाथ लग जाये। ये बात उन दिनों की है जब ये और इनका परिवार शाकाहार-मांसाहार सब कुछ खाता-पीता था। उस समय इनकी सोच जो कुछ भी रही होगी, ये हाथ में डंडा ले कर उस मादा खरगोश की ओर लपके। सहसा अपने पास एक मानुष को हाथ में डंडा लेकर आते देख वो मादा खरगोश बिलकुल डर गई। घबराहट का और कारण था, उसके छोटे-छोटे बच्चे, जिन्हें छोड़ वह भाग भी नहीं सकती थी। डर और घबराहट के बीच उसे न जाने क्या हो गया, एका-एक निष्पंद हो गई, हाथ-पैर बिखर गए, शरीर उल्टा हो गया। खरगोश के बच्चे भी अपनी माँ की ये हालत देख कर अपनी ही आवाज में रोने लग गए। ये सब कुछ इतनी जल्दी हुआ की, इनके हाथ का डंडा  हाथ में ही रह गया। सामने एक मादा बेसुब्ध पड़ी थी और उसके बच्चे माँ की हालात देख रो रहे थे। ये कारुण्य दृश्य देख कर न जाने इनके ह्रदय में क्या हुआ। इनका शरीर शिथिल सा हो गया, हाथ ज्यूँ उठे के उठे रह गए, डंडा छूट के नीचे गिर गया। पैर आगे बढ़ नहीं रहे थे। सोचने-समझने की शक्ति न जाने कहाँ चली गयी थी। पता नहीं ये उस स्थिति में वहाँ कब तक खड़े रहे। जब होश आया तो वहाँ  कुछ भी न था। न मादा खरगोश, न उसके बच्चे। हाँ पास में वो डंडा जरूर पड़ा था। मादा खरगोश के निःशब्द शरीर वाला वो दृश्य, इनके मन, बुद्धि, ह्रदय सबको भेद चूका था। शरीर में लगा जान ही नहीं बचा हो। एक-एक पैर उठाना भड़ी पड़ रहा था। किसी तरह एक पेड़ के नीचे जा बैठे और कब तक यूँ ही बेमने से वहाँ बैठे रहे कुछ पता न चला। भूख और प्यास भी मनो ख़त्म हो गई थी। शाम हुई घर की और चले, मन अभी भी बुझा-बुझा सा था। रह-रह कर वही दृश्य मन  था। गाँव शुरू होने से पहले एक मन्दिर था। मन बेचैन था घर जाने को नहीं कर रहा था, सोचा मंदिर में थोड़ी देर बैठते हैं। मंदिर प्रांगण में शांति थी, और इनके मन में अभी-अभी एक तूफान गया था। उस दिन मन और मंदिर का कुछ तारतम्य सा बन गया। मंदिर में भगवान् की आरती हुई, इन्होंने भगवान् का प्रसाद लिया और घर को आ गए। इस घटना के बाद से ही इनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। मन पवित्र हुआ, सात्विकता आई, तो विचार बदले, बोल-चाल बदला, खाने-पहनने का तरीका बदला। मन भगवत-भक्ति में सुख पाने लगा। फिर दुनियाँदारी की कौन परवाह करे। आस-पास के लोग थोड़े दिनों तक अजीब निगाहों से देखे, लेकिन फिर सब छोड़ दिया। आखिर वो लोग भी तो अपनी दुनियाँदारी में व्यस्त थे। हाँ इनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। तब से आज तक अनवरत भगवत-भक्ति के पथ पर आगे बढ़ते रहे। स्वयं तो भक्ति करते ही हैं, दूसरे लोग भी लाभान्वित होते हैं, और भक्ति-मार्ग के लिए प्रेरित होते हैं।
           कहते हैं, महर्षि वाल्मीकि को भी ज्ञान की प्राप्ति कुछ इसी प्रकार हुई थी। कथा कुछ यूँ आती है, एक समय की बात है, महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ तमसा नदी के किनारे संध्या वंदन के लिए गए थे। संध्या वंदन के पश्चात्, जब वो लौट रहे थे तो देखा एक, कौंच पंछी का जोड़ा आपस में खेल रहा था। नदी का शीतल किनारा और पंछियों की करतल ध्वनि, बड़ा ही मनोरम दृश्य था। तभी एक बहेलिये ने एक बाण चलाया, जो कि सीधे उस नर क्रोंच को जा लगा और वो उसी समय मर गया। अपने प्रेमी पंछी को मृत देख वो मादा भी व्यथा से वहीं मर गयी। इस करुणामय दृश्य को देख कर, अनायास ही वाल्मीकि जी एक श्लोक कहा,
"मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥"
कहा जाता है, यह महर्षि वाल्मीकि जी के द्वारा रचित पहला श्लोक था। इसके बाद ही उन्होंने महाकाव्य "रामायण" की रचना की। हमारे जीवन की कोई घटना का, कब क्या असर होता है, इसका कहना मुश्किल है। करुणा, भगवत-भक्ति जगाने का पहला कदम हो सकता है। कहते हैं जिसके ह्रदय में करुणा है, उसके ह्रदय में ही प्रेम हो सकता है। और प्रेम, भक्ति की पहली सीढ़ी है। प्रेम से ही भगवान् द्रवित होते हैं। प्रेम, करुणा, क्रोध, लोभ, मोह आदि हर किसी के ह्रदय में होते हैं। लेकिन आप कब करुणा और प्रेम में होते हैं, ये आप पर ही निर्भर करता है। महर्षि बाल्मीकि भी पहले जंगलों में लूट-पाट किया करते थे, लेकिन जब ह्रदय में करुणा प्रस्फुटित हुई तो वो एक साधारण मनुष्य से महर्षि हो गए। ऐसी और भी कई घटनाएं इतिहास पन्नो में दबे पड़े हैं। आत्मज्ञान, भक्ति का प्रेरक हो सकता है, साथ ही साथ जीवों के प्रति करुणा और प्रेम भी भक्ति का प्रेरक हो सकता है। या यूँ कहें कि करुणा और प्रेम भक्ति का ही दूसरा रूप है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं। स्वामी विवेकानंद के उपदेसों का सार भी इसी में है। वो अक्सर कहा करते थे,
     "आत्मनो मोक्षार्थम्, जगत् हिताय च " 
"लोगों का कर्म जन्म-मृत्यु (स्वयं के उद्धार के लिए )से छुड़ाने और संसार के कल्याण के लिए होने चाहिए। यही आध्यात्म है, यही भक्ति है।" और ऐसा कर पाना तभी संभव है जब आप सारे जीवों में उसी एक परमात्मा का दर्शन करते हों। आप के ह्रदय में प्रेम और करुणा का संचार हुआ, समझिये भगववान की कृपा हुई। आप सब जीवों पर प्रेम और करुणा दें, प्रभु आप को अवश्य ही भक्ति देगें। आप बूँदों में देगें, वो बरसात करायेगें।
भगवत-भक्ति "आत्मनो मोक्षार्थम" और "जगत हिताय" इन दो किनारों के बीच बहने वाली नदी है। जिसमें प्रेम और करुणा रूपी जल सदा प्रवाहित होते रहती है। अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं। भगवत-भक्ति आप अपने उद्धार के लिए करें या दूसरों के कल्याण के लिए, दोनों एक दूसरे से अलग नहीं है। अपने उद्धार में जगत का हित है और जगत के हित में अपना उद्धार। दोनों अन्योनाश्रय है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं,
"परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।। "
- रा. च. मा. ३/३०/९ 
"जो कोई दूसरों की कल्याण के लिए सदा तत्पर रहते हैं , उनके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं है । "
           भगवत-भक्ति के बिना, हम सब का जीवन भी यूं ही निरर्थक बीता जा रहा है, ख़त्म हो रहा है। जरुरी है, हम अनन्य भक्ति कर प्रभु को प्राप्त कर सकें। हमारे जीवन की कोई भी घटना प्रेरक बन सकती है, हम अपनी आस-पास की घटनाओं से सीख ले सकते हैं। कोई जरुरी नहीं की हमारे साथ घटे तभी बात बनेगी। हम देख-सुन कर भी सीख ले सकते हैं। हर किसी को प्रभु ने बिल्कुल अलग बनाया है, तो हमारी प्रेरणा भी अगल-अलग हो सकती है। पर लक्ष्य वही हो कि किसी भी प्रकार से भगवत-भक्ति प्राप्त हो सके। आप को महाभारत की यक्ष-युधिष्ठिर वाली कथा याद होगी। यक्ष प्रश्न पर प्रश्न किये जा रहे थे और युधिष्ठिर एक-एक कर के समुचित उत्तर दे रहे थे। बहुत सारे प्रश्न पूछने के बाद, अंत में यक्ष ने पूँछा, "किमाश्चर्य?" आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर का उत्तर था,
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यामालयम ।
शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम॥ ९७
"रोज-रोज प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं, किन्तु जो हैं,वो सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़ और क्या आश्चर्य होगा !" 
बात बिल्कुल सही भी है। हम सब को पता है, जिसने जन्म लिया है, एक न एक दिन उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन तब भी हम इस संसार में ऐसे रमे रहते हैं, जैसे कि कभी हम इसे छोड़ के जाने वाले नहीं। अपनी दुनियाँदारी में यूँ लगे रहते की कालचक्र हमें प्रति क्षण, मृत्यु के करीब और करीब, लेते जा रहा है इसका कुछ भी फिक्र नहीं। छल-कपट, झूठ-सच आदि न जाने क्या-क्या कर केवल पाप कमाते हैं। पाप  की इस गठरी बड़ी और बड़ी किये जा रहे हैं। यह भी याद नहीं रहता, एक दिन सारी की सारी गठरी यहीं पर रह जानी है। हम सब को इसी आश्चर्य से बहार निकलना है।संसार के भूलभुलैया से बहार निकलना है। हमें अपने सच्चे स्वरूप परमात्मा का अनुभव करना है। और जिस किसी दिन, जिस किसी भी कारण से हमें ये अनुभव हो जायेगा, उस दिन हमारा काम बन जायेगा। फिर किसी के रास्ता दिखने की जरुरत नहीं रह जाएगी। मंजिल पर कदम खुद-ब -खुद आगे बढ़ते चले जाएगें। परमपिता परमेश्वर हम सभी को सदबुद्धि दे, ताकि हम सब उनको ही प्राप्त करने के लिए, उनके ही रास्ते पर चल पड़ें। आज के लिए बस इतना ही। सबका कल्याण हो, सब सुखी से रहें, हर एक जगह शांति हो, शांति हो, शांति हो। हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ....    
"एक धड़ी आधो घड़ी, आधो में पुनि आध। 
तुलसी संगत साधु के, हरे कोटि अपराध ॥" 
"गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं, साधू-संतों के साथ ,अगर एक क्षण का भी संग हो जाये, एक क्षण की बात कौन करे,यदिआधे क्षण या उसके भी आधे क्षण का,अगर संग हो जाये तो जन्मों-जन्मों के संचित पाप खत्म हो जाता है।"  ऊपर की पंक्तियाँ शायद तुलसीदास जी की या कबीर जी की लिखी हुई है, या फिर किन्ही और की, पता नहीं। अभी इतिहास के पन्नों में नहीं जाऊँगा, और इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता कि इसे किन्होंने लिखा है। संदेश इतना सा है, साधु-संतों की संगति का एक क्षण भी हमारे जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल सकता है। बस शर्त इतनी सी है कि जब भी संतों से मिलें किसी पूर्वाग्रह से दूषित हो कर न मिलें। निष्कपट और सरलता से भगवान के भक्तों का संग करेगें तो जीवन में परिवर्तन जरूर होगा। भगवत-भक्ति अवश्य मिलेगी। कल्याण होगा। 
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