मंगलवार, 28 जून 2016

बुधवार, 22 जून 2016

"भक्ति का वरदान - २. अहल्या जी"

"भक्ति का वरदान - २. अहल्या जी"


दोहा-गौतम नारि  श्राप बस उपल देह धरि धीर । 
         चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ 
"गौतम मुनिकी स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किये बड़े धीरजसे आपके चरणकमलोंकी धूलि चाहती है । हे रघुवीर!इसपर कृपा कीजिये "

छंद -परसत पद पावन  सोक नसावन प्रगट भई  तपपुंज सही । 
    देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि सही  ॥
"श्रीरामजीके पवित्र और शोकको नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गयी। भक्तों को सुख देनेवाले श्रीरघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गयी "

   अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही । 
   अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
"अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गयी । उसका शरीर पुलकित हो उठा;मुख से वचन कहने में नहीं आते थे । वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गयी और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनन्द के आँसुओं )की धारा बहने लगी "


धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ  चीन्हा रघुपति कृपाँ  भगति पाई । 
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥
"फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्रीरघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की । तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने [इस प्रकार]स्तुति प्रारम्भ की -हे ज्ञान से जानने योग्य श्रीरघुनाथजी!आपकी जय हो "

मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई । 
राजीव बिलोचन भव  भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥ 
"मैं [सहज ही]अपवित्र स्त्री हूँ;और हे प्रभो!आप जगत को पवित्र करनेवाले,भक्तोंको सुख देनेवाले और रावण के शत्रु हैं । हे कमलनयन!हे संसार (जन्म मृत्यु )के भय से छुड़ानेवाले!मैं आपकी शरण आयी हूँ,[मेरी]रक्षा कीजिये,रक्षा कीजिये "
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना । 
देखेउँ भरि लोचन हरि  भव  मोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥ 
"मुनिने जो मुझे शाप दिया,सो बहुत ही अच्छा किया । मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह मल्टी हूँ जिसके कारण  मैंने संसारसे छुड़ाने वाले श्रीहरि (आप )को नेत्र भरकर देखा । इसी(आपके दर्शन )को शंकर जी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं।   "
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर  आना । 
पद कमल परागा रस  अनुरागा मन  मन मधुप करै  पाना ।
"हे प्रभो!मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ,मेरी एक विनती है। हे नाथ!मैं और कोई वर नहीं माँगती,केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मनरूपी भौंरा आपके चरणकमल की रजके  प्रेमरूपी रसका सदा पान करता रहे"

जेहिं  पद सुरसरिता परम पुनीता  प्रगट भई सिव सीस धरी । 
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर  धरेउ कृपाल हरी ॥
"जिन चरणोंसे परमपवित्र देवनदी गङ्गाजी प्रकट हुईं,जिन्हें शिवजी ने सिरपर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं,कृपालु हरि (आप )ने उन्हीं को मेरे सिरपर रखा "

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि  चरन  परी । 
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै  पति लोक अनंद  भरी ॥
"इस प्रकार [स्तुति करती हुई ]बार बार भगवानके चरणों में गिरकर जो मनको बहुत ही अच्छा लगा,उस वर को पाकर गौतमकी स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोकको चली गयी "

दोहा -अस प्रभु दीनबंधु हरि  कारन रहित दयाल । 
       तुलसिदास  सठ  तेहि भजु छाड़ि  कपट जंजाल ॥ 
"प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं हे शठ [मन ]!तू कपट-जंजाल छोड़ कर उन्हीं का भजन कर "

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"भक्ति का वरदान - १. शतरूपा जी"

"भक्ति का वरदान - १. शतरूपा जी"

सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।।142।।

दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग।।143।।

दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार।।144।।
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम।।146।।
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि।।148।।
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।149।।
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई।।
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।।
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।।
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु।।150।।
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।।
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।

सोमवार, 20 जून 2016

"भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग २"

                                                                                  "भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग १" से आगे 
           आज की भगवत भक्ति चर्चा में आप सभी का फिर से स्वागत करता हूँ। हम सब ने यह चर्चा, रामचरितमानस की कथाओं में आये उन भक्तों पर शुरू की थी, जिन्होंने भगवान् से वरदान के रूप में केवल और केवल उनकी भक्ति ही मांगी। इससे पहले वाली चर्चा में हम सब ने देखा, मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है भगवान् के चरणों में जिस किसी भी प्रकार से हो प्रेम हो जाना। क्योंकि प्रभु के चरणों में प्रेम हो जाने के बाद स्वतः ही सारे काम बन जाते हैं। सब कुछ आनंदमय हो जाता है। जब भगवान् के चरणों में प्रेम होगा तो अंतःकरण में स्थित परमपिता परमेस्वर का ह्रदय में दर्शन होगा। जो कि सब मंगलों की खान है। आज हमलोग देखेगें कि भगवान् के चरणों में प्रेम कैसे हो, इसको समझने की कोशिश करेगें। भगवान के चरणों में प्रेम तभी होगा जब आप भगवान् को ठीक-ठीक जान लेगें। अब कुछ लोग कह सकते हैं भगवान को ठीक-ठीक जान पाना तो संभव नहीं है क्योंकि वेद-शास्त्र ऐसा ही कहते हैं। हाँ, ये बात सही है कि भगवान् को पूर्ण रूपेण जाना जा सकना कठिन है, लेकिन आप प्रयास तो कर सकते हैं। पूरे-पूरे न सही कुछ तो जान ही सकते हैं। तो भगवान् को जाने कैसे? भगवान् को जानने और उनके चरणों में प्रेम का सबसे सहज रास्ता है- 'सत्संगति'। भगवान को जानने का तो आसान सा तरीका है, भगवान के प्रेमी भक्तों का संग और उनके पद चिन्हों का अनुकरण। इससे एक तो आप धीरे-धीरे भगवान् के बारे में जानने लगेगें और दूसरा भक्तों के संग और कृपादृष्टि से आप का भगवान् के चरणों में प्रेम भी जागृत होने लगेगा। भगवान् और भगवान् के भक्तों की कथाओं में प्रेम होने लगेगा। इस तरह दिनों-दिन आप की भक्ति दृढ होती जाएगी। फिर आप अपने अंतःकारण में भगवान का साक्षात्कार कर सकेगें।
           तो लक्ष्य है, भगवान् के चरणों में प्रेम होना तथा अंत में भगवान का ह्रदय में निवास और उनका सतत दर्शन। इसके लिए ऐसे संतों का संग करना जिन्हें भगवान् के चरणों में प्रेम है और जिनके मन और ह्रदय में स्वयं भगवान् रहते हैं। साथ ही साथ ऐसे साधु-संतों के पद चिन्हों का अनुकरण करना ताकि, हम अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकें। अब प्रश्न है, किनके मन और ह्रदय में भगवान् रहते हैं और ऐसे संत की पहचान हो, उनके स्वाभाव कैसे होते हैं? ऐसे तो भगवान् की तरह ही भगवान् के भक्तों की कथायें, गुण-स्वाभाव भी अनन्त हैं, जिनका सही-सही पता पाना कठिन है। फिर भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में इनका कुछ वर्णन किया है। गोस्वामी जी ने बताया है कि भगवान् किनके ह्रदय में निवास करते हैं। मानस में प्रसंग आता है, जब भगवान् राम माता सीता जी और भाई लक्ष्मण जी साथ वन गए तो उन्होंने वाल्मीकि जी से रहने के लिए स्थान पूँछा। तब वाल्मीकि जी ने भगवान के निवास के १४ स्थान बताये, जहाँ भगवान् रहते हैं। और वो प्रसंग कुछ इस प्रकार है। आइए हम सब मिल कर इसका मन से पाठ करें:
दो0-पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ।।१२७॥  

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने।।
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी।।
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।

दो0-जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु।।१२८।।

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।

दो0-सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।१२९।।

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।

दो0-स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।१३०।।

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।
दो0-जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।१३१।।

- रा . च . मा . २/१२७-१३१ 

१. श्रवण समुद्र समान - ह्रदय में निवास 
२. आँख चातक  के समान - ह्रदय में निवास
३. जीभ हंस की तरह - ह्रदय में निवास
४. भगवत सेवा, देवता, गुरु और ब्राह्मण का आदर, भगवान् की पूजा और पूर्ण शरणागति - मन में निवास
५. हरि नाम जप, ब्राह्मणों  की सेवा, गुरु भक्ति और केवल भगवान् के चरणों में प्रेम - मन में निवास
६. काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से जो दूर रहता हो - ह्रदय में निवास
७. सभी का भला चाहने वाला और अनन्य शरणागति - मन में निवास
८. पराये स्त्री और धन से दूर और आप से प्राणों के समान प्रेम - मन में निवास
९. जिसने सारे रिस्तेदार आप को ही मन लिया है - मन में निवास
१०. जो दूसरों के अवगुण को छोड़ उसके गुणों को ही ध्यान में रखता हो और कष्ट सह कर भी विप्र और गाय की सेवा करता हो - मन में निवास
११. जो आप का गुण  और अपना दोष देखता हो, जिसे केवल आप का ही भरोसा हो और आपके भक्त प्रिय हों - ह्रदय में निवास
१२. जो सब कुछ छोड़  कर आप की ही शरण में आ गया हो - ह्रदय में निवास
१३. जो सर्वत्र आप को ही देखता हो - ह्रदय में निवास
१४.  जिसे आप के प्रेम को छोड़  कर और कुछ भी नहीं चाहिए - मन में निवास
७-ह्रदय में निवास और ७-मन में निवास

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शुक्रवार, 17 जून 2016

"भक्ति का वरदान - पृष्ठभूमि : भाग १"

           आज के भगवत चर्चा में आप सभी का स्वागत है। आप सभी महानुभाव ने जो अपना बहुमूल्य समय निकाल के इस हरि नाम चर्चा में शामिल हुए, इसके लिए आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें, धन्यवाद, साधुवाद। ऐसे तो अक्सर हम सभी किसी न किसी भगवत विषय पर चर्चा करते आये हैं, पर आज की चर्चा मेरे लिए कुछ खास है। बहुत दिनों से इच्छा थी कि "रामचरित-मानस" में आये भक्तों पर एक चर्चा श्रृंखला शुरू की जाये। भगवत कृपा और आप लोगों के सहयोग से आज इसका आंरभ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह विचार, बहुत समय पहले रामचरितमानस का मनन करते समय, मन में आया था। मानस में बहुतों बार प्रसंग आया है, जब भक्त अपनी साधना से, अपनी तपस्या से, अपनी भक्ति से भगवान को प्रशन्न कर लेतें हैं, तो भगवान् साक्षात दर्शन देतें हैं और दर्शन का लाभ दे कर वर मांगने को कहते हैं। ऐसे में भक्त हमेशा, केवल और केवल भगवान् की भक्ति का ही वरदान मांगते हैं। ऐसे ही एक प्रसंग का मनन करते समय, यह विचार मन में आया कि क्यों न भगवान के भक्तों पर एक चर्चा शुरू की जाये और इसमें खास कर उन प्रसंगों को शामिल किया जाये, जहाँ पर भक्तों ने भगवान् से वरदान रूप में केवल और बस केवल भक्ति की ही मांग की है। अपनी कुछ लापरवाही और कुछ आलसपन की वजहों से ये छूटता ही जा रहा था। आज आपलोगों के सहयोग से, वह शुभदिन आ पड़ा है, जब यह चर्चा शुरू करने का परम सौभाग्य मिला है। चलिए हम सब मिलकर अब इस चर्चा श्रृंखला की शुरुआत करें।         
           चर्चा जब रामचरितमानस के भक्तों की हो तो सबसे पहले जिनका नाम जहन में आता है वो हैं, परम पूज्य श्री गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज। और इसका कारण भी है, "रामायण" की कथा को जनमानस के रोम-रोम में पहुँचाने का श्रेय परम पूज्य गोस्वामीतुलसीदासजी महाराज को जाता है। एक समय था जब पठन-पाठन का ज्ञान, अपने कठिन व्याकरण की वजहों से केवल कुछ पंडितों के पास रह गया था। साधारण जनों के लिए, इसको समझना अत्यन्त ही कठिन और असम्भव सा हो गया था। उस समय में, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए, मूर्धन्य विद्वानों का विरोध झेलते हुए, समाज में प्रचलित धारणाओं(उस समय ज्ञान और विद्वता का प्रतीक संस्कृत भाषा ही सर्वमान्य भाषा थी) को तोड़ते हुए, उन्होंने "रामचरितमानस" रूपी अमूल्य निधि हम सबको दी। और यह ग्रन्थ, तब से इस धरा के कण-कण में रच-बस गया है। सदियाँ बीत गयीं लेकिन आज भी यह उतना ही नवीन है जितना उस समय में था। पश्चिम के किसी दार्शनिक ने कहा है, "उत्तर भारत की जनता को अगर जानना-समझना है तो सबसे पहले 'रामचरितमानस' को जानना और समझाना होगा।" ये बात बस केवल किसी दार्शनिक के गूढ़ दर्शन की बात नहीं, रामचरितमानस वास्तव में भारतियों में कुछ इस तरह से रचा-बसा है कि अगर इसको भारत की आत्मा कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ये तो रही जन सामान्य की बात, और जहाँ तक भक्त, साधक और भक्ति की बात है, इसके बिना भगवत-भक्ति की परिकल्पना भी संभव नहीं है। कहते हैं, भारत भूमि के कण-कण में भक्ति, ज्ञान और दर्शन की ज्योति प्रज्वलित होते रहती है। प्रकाण्ड विद्वत जनों की बात क्या कहें, यहाँ उत्कृष्ट ज्ञान की गंगा जन-जन में प्रवाहित हो रही है। इसमें रामचरितमानस का एक अभूतपूर्व योगदान है। ऐसे में अगर तुलसीदासजी को आधुनिक गुरुओं की अग्रीम पंक्ति में रखा जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
           गुरु साक्षात् भगवत स्वरुप ही होते हैं, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर सहज में ही ले आते हैं। इनके बारे में कहा गया है,
"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर् विष्णुः र्गुरुर्देवो महेश्वरः|
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||
गुरु "गुरु ब्रह्मा हैं ,गुरु विष्णु हैं ,गुरु देवो के देव महादेव हैं और गुरु ही परम ब्रह्म हैं। हम सब ऐसे परम दयालु-कृपालु गुरु को नमन करते हैं, उनकी शरण में जाते हैं।"
इतना ही नहीं कबीरदास जी ने तो गुरुओं को देवताओं से भी बड़ा बताया, क्योंकि देवताओं की पहचान तो तब होगी न जब गुरु अज्ञान रूपी पर्दे को सामने से हटा लें ,  
"गुरु गोबिन्द दोउ खडे काके लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने गोबिन्द दियो बताय॥" 
 -कबीर
आइए सर्व प्रथम हम सब इन्हीं परम पूज्य गुरुओं के चरण कमलों की वंदना करते हुए भगवत-भक्तों की यह चर्चा श्रृंखला शुरू करें। "भक्ति का वरदान", इस चर्चा श्रृंखला में हम सब "रामचरितमानस" के कथा-प्रसंगों में आए उन भक्तों की चर्चा करेगें, जिन्होंने भगवान् से वरदान रूप में केवल और केवल उनकी भक्ति ही माँगी है। जहाँ तक याद आ रहा है, मानस में कुल ऐसे २१ भगवत भक्तों की कथाओं का वर्णन आता है। अगर मेरी गणना  में कोई त्रुटि हो तो सहृदय भक्तगण इसके लिए मुझे क्षमा करेगें और भूल सुधार निमित्त पथ प्रदर्शित भी करेगें। मानस में भक्ति का वरदान रूपी प्रसंग कुछ इस प्रकार आया है,
१. बालकाण्ड :
       १. शतरूपा जी (१/१५०) चरणों में प्रेम
       २. अहल्या जी (१/२१०/१-१६) चरणों में प्रेम
२. अयोध्याकाण्ड : 
       ३. केवट (२/१०२) भक्ति
       ४. भरद्वाज जी (२/१०६/८) चरणों में प्रेम
       ५. श्री भरत जी (२/२०४) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम
३. अरण्यकाण्ड :
       ६. शरभंग जी (३/७/७; ३/८) हृदय में निवास
       ७. सुतीक्ष्ण जी (३/१०/२६; ३/११) हृदय में निवास 
       ८. अगस्त जी (३/१२/१०-११) हृदय में निवास
       ९. जटायु (३/३१/१८, ३/३२) हृदय में निवास
      १०. सबरी (३/३५/७) प्रेम
४. किष्किन्धाकाण्ड :
      ११. बाली (४/९/१०-११) जन्म-जन्म चरणों में प्रेम
      १२. तारा (४/१०/६) चरणों में प्रेम
      १३. सुग्रीव जी (४/६/२१) भक्ति
      १४. स्वयंप्रभा (४/२४/८) भक्ति
५. सुन्दरकाण्ड :
      १५. श्री हनुमान जी (५/३३/१) भक्ति
      १६. श्री विभीषण जी (५/४८/७) भक्ति
६. लंकाकाण्ड :
      १७. इन्द्र (६/११२/१५) हृदय में निवास 
      १८. श्री शिवजी (४/१६४/७) हृदय में निवास 
७. उत्तरकाण्ड :
            श्री शंकर जी (७/१४) चरणों में प्रेम
      १९ . सनकादि मुनि (३/३४) हृदय में निवास , ३ -टाइम्स
      २०. काकभुसुंडि जी (७/८४) भक्ति
      २१. गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज (७/१३०'') प्रेम

अगर गौर से विचार करें तो पता चलता है, भक्तों ने भक्ति के रूप में मूलतः दो चीजों की प्रार्थना की है,माँग की है। वह है, पहला चरणों में प्रेम और दूसरा ह्रदय में निवास। सम्पूर्ण रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने इन दो विषयों पर बहुत ज्यादा ध्यान दिए हैं। भक्ति के बस दो ही तत्व हैं, पहला भगवान के चरणों में प्रेम और दूसरा भगवान् का ह्रदय में निवास या यूँ कहें सबके ह्रदय में बसने वाले पभु का ह्रदय में दर्शन।  तो पहला प्रयास ये होना चाहिए, जिस किसी भी प्रकार से भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाये। और जब प्रभु के चरणों में प्रेम हो जायेगा तो स्वतः ही करुणानिधान आपके ह्रदय में आ विराजेंगे, दर्शन देगें। जब ह्रदय में आ बसेगें तो चरणों में और भी ज्यादा प्रेम बढ़ेगा और ज्यादा श्रद्धा होगी, इससे और भी भक्ति दृढ होगी, और आपका ह्रदय भगवान् का स्थाई निवास हो जायेगा। चरणों में प्रेम ---> ह्रदय में निवास ---> ह्रदय में निवास ---> चरणों , में प्रेम : भक्ति और प्रेम का यह सिलसिला अनवरत रूप से चलता रगेगा और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहेगी। आप सब ने ध्यान दिया होगा, गोस्वामी जी ने भी बालकाण्ड से उत्तरकाण्ड तक भक्ति का यही क्रम मानस में दर्शाया है।
"भक्ति का वरदान"

पहले चार बार चरणों में प्रेम, 
फिर भक्ति, 
इसके बाद चार बार ह्रदय में निवास, 
फिर प्रेम । 

दो बार चरणों में प्रेम, 
 चार बार भक्ति, 
दो बार ह्रदय में निवास । 

चरणों में प्रेम,
ह्रदय में निवास,
भक्ति, और 
प्रेम ।।

ऐसे भगवत-भक्ति में कोई नियम और शर्तें नहीं होती हैं(जैसे शंकर भगवान्, पहले ह्रदय में निवास फिर चरणों में प्रेम), आप कहीं से प्रारंभ करें भगवत दर्शन निश्चित है। फिर भी हम सब साधारण जीवों को भगवत भक्ति आसानी से समझा में आ जाये, इस कारण साधु-संतों थोड़े बहुत सुगम रस्ते बताये हैं। 
तो गोस्वामी जी कहते हैं, जीवन का अंतिम लक्ष्य भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाना है, अंतिम इसलिए कि इसके बाद आप का काम ख़त्म हो जाता है। इसके बाद भगवान् का काम शुरू होता, इसके आगे आपको कुछ करने की जरुरत नहीं, वो आप के लिए आपका सब काम करते हैं। तो भगवान् के चरणों में प्रेम कैसे हो यह प्रश्न है? इसका उत्तर हम सब अगली चर्चा में सुनेगें समझेगें। आज की चर्चा यहीं पर समाप्त काटें हैं। परमपिता परेश्वर आप सब का कल्याण करें, सदबुद्धि दें, सन्मार्ग पर ले चलें। हरि  ॐ, हरि  ॐ, हरि ॐ...   
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