रविवार, 21 अप्रैल 2019

"श्री राम जन्म महोत्सव 2019"

"~~~ जय श्रीराम ~~~"
 "श्री राम जन्म महोत्सव 2019"
"आमंत्रण-पत्र"
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि का दिन था, भगवान श्रीराम अपने भाइयों सहित अयोध्या में प्रकट हुए। भक्तजन इस जन्मोत्सव को पूरे एक माह तक आनंद के साथ मानते हैं। भगवान की प्रेरणा और शक्ति से इस वर्ष जेपी आवासीय निवासियों ने इसे मानाने का निश्चय किया है। 
इस जन्म-महोत्सव के उपलक्ष में दिनांक 28 अप्रैल 2019, रविवार को संध्या 5 बजे से "आचार्य पण्डित श्रीरामजी भारद्वाज" के सानिध्य में सस्वर-संगीतमय "सुन्दरकाण्ड~पाठ" का आयोजन किया जा रहा है। आप सभी भक्तजन अपने बंधु-बांधव और परिवार के समस्त सदस्यों के साथ इसमें सम्मलित हो कर, भगवत-भक्ति का लाभ लें।" 
                               
तिथि - 28 -04-2019 रविवार
समय - संध्या 5.00 बजे से
स्थान - Kosmos Basket-Ball Court, B-38 Park
जोड़े में संकल्प के साथ "पाठ" में भाग लेने के लिए संपर्क करें (केवल आपकी उपस्थिति समय से चाहिए )
संपर्क - स्वाति & अमित @ 8130443330; 9599412375; 0120-6663709


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मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

"विवाह, प्रेम और प्रेम-विवाह"


       आज की चर्चा में आप सभी जनों का स्वागत करता हूँ। आज का विषय थोड़ा अलग है और गंभीर भी। गंभीर इसलिए की सामान्यतः हमलोग इस विषय पर चर्चा करने से बचते हैं। कहने और सुनने के लिए तो बहुत कुछ होता है, फिर भी यह विषय प्रायः अछूता ही रहता है। और अगर संयोग से कभी संवाद होता भी है, तो टुकड़ों में होता है और अधिकतर स्थिति में इसका अंत किसी और ही दिशा में जा कर होता है। ऐसे तो विषय एक ही है पर इसको तीन भागों में बांटतें हैं, "विवाह", "प्रेम" और "प्रेम-विवाह"। आज हम लोग इस पर एक-एक कर के गहन चर्चा करेगें। लोगों ने अलग-अलग कर इन विषयों पर प्रश्न पूछे हैं, जैसे, परिवार वाले प्रश्न पूछते हैं, लड़का-लड़की अब बड़े हो गए हैं, इनकी शादी की चिंता है, क्या करें? लड़का-लड़की पूछते हैं, घर वाले शादी के लिए बहुत कह रहे हैं, क्या किया जाये? कोई पूछता है, बेटा प्रेम में है, और शादी की ठान राखी है, क्या करें? समाज क्या कहेगा? कुछ प्रश्न यूँ होते हैं, वर्षों से प्रेम में हूँ पर समाज में कहने से डरता हूँ? कुछ प्रश्न तार्किक भी होते हैं, जैसे, किसी ने पूछा है मैंने प्रेम कर लिया, अब विवाह की क्या जरुरत है? मनुष्य को छोड़ और कोई जीव तो विवाह नहीं करता, मैं विवाह क्यों करूँ? कुछ प्रश्न थोड़े कठिन भी होते हैं, जैसे एक प्रश्न आया है, प्रेम-विवाह करना चाहता हूँ पर अभी तक प्रेम नहीं हुआ है? पेट भर खाता हूँ और पैर फैला के सोता हूँ, बहुत मज़े में हूँ अब कुछ और नहीं चाहता? किसी ने कहा, जिंदिगी में ऐसे ही क्या कोई कम समस्या है जो विवाह कर के एक और पालें? आदि-आदि, प्रश्न तो बहुत हैं पर मूल में यही तीन विषय है "विवाह, प्रेम और प्रेम-विवाह"। आइए अब एक-एक कर इन पर चर्चा आरंभ किया जाये। 
       अब सबसे पहले बात करते हैं, "विवाह" की।  ये विवाह क्या है? शब्दकोष की सुने तो, "विवाह, वह सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया है, जिसके अनुसार एक स्त्री और एक पुरुष अपने अधिकारों और दायित्त्वों के साथ पत्नी और पति रूप में स्थापित होते हैं, सम्बंधित होते हैं।"। कहते हैं, भगवान् ने जब संसार रचने की इच्छा की तो स्वयं को दो भागों में विभक्त किया। एक भाग पुरुष तत्त्व और दूसरा भाग स्त्री तत्त्व बना और तब से स्त्री और पुरुष तत्त्व मिल कर इस सृष्टि को आगे बढ़ा रहे हैं। अब थोड़ा समझते हैं, ये स्त्री और पुरुष तत्त्व क्या है? कैसे है? पुरुष ऊर्जा का प्रतीक है और स्त्री इस ऊर्जा को धारण करने का स्थूल रूप। स्त्री अगर शरीर है, तो पुरुष उस शरीर में बैठा प्राण है। पुरुष आकाश है, तो स्त्री धरती। यूँ कहें, पुरुष को तभी समझा जा सकता हैं जब स्त्री रूपी धारण शक्ति साथ हो। इसको एक उदाहरण से समझें। आप ने अपने आप को देखा हैं? आप बोलेगें, हैँ! ये कैसा प्रश्न हैं! बहुतों बार देखा है अपने आप को, दर्पण में, चित्र में, मोबाइल विडियो में। हाँ, बिलकुल सही, आप ने अपने आप को बहुतों बार देखा होगा, लेकिन आप,अपने आप को ऐसे नहीं देख सकते। आप को दर्पण की जरुरत होती है, चित्र की जरुरत होती है, वीडियो की जरुरत होती है। जैसे अगर आप को जल का संचय करना हो, तो एक पात्र की आवश्यकता होती है। ऐसे ही पुरुष तत्त्व होता है, स्त्री के बिना उसको जाना नहीं जा सकता। पुरुष को जानना है तो स्त्री तत्त्व चाहिए। वैसे ही जैसे परमात्मा को जानने के लिए भक्ति। तो पुरुष तत्त्व को अकेले नहीं जाना जा सकता है और स्त्री बिना पुरुष के वीरान सी होती हैं। किन्तु जब स्त्री तत्त्व और पुरुष तत्त्व मिलते है तो सृजन होता है। सदा से की सृजन की ये परिक्रिया चल रही है। साधारण शब्दों में अगर पुरुष को बीज शक्ति माने तो स्त्री उस बीज को वृक्ष बनाने के लिए धरती शक्ति है। अगर स्त्री हार्डवेयर है, तो पुरुष इसका सॉफ्टवेयर है और ये हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर मिलकर के सम्पूर्ण सयंत्र बनाते हैं। जैसे किसी मशीन को सुचारु रूप से चलने के लिए उसका हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों का ठीक होना जरुरी है, उसी प्रकार से संसार का संचरण सही ढंग से चलता रहे इसके लिए स्त्री और पुरुष तत्त्वों का सही ढंग से चलना जरुरी है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है। अपने आप में दोनों अधूरे हैं, दोनों आपस में मिल कर ही पूर्णता को प्राप्त होते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, दोनों उसी परमात्मा के जो अंश हैं। तो ये बात हुई स्त्री और पुरुष तत्त्व के मिलने की। इन स्त्री और पुरुष के मिलने की नींव विवाह है। विवाह प्रतीक है, उस सृजन के प्रारंभ की जिसमें बंधकर स्त्री और पुरुष अपने पूर्णता की यात्रा, शुरू करते हैं। विवाह बीजारोपण की वह प्रक्रिया है, जिसमें  हम एक विशाल वृक्ष की परिकल्पना करते हैं। वह वृक्ष जिसमें एक दिन रंगबिरंगें फूल होगें, वह वृक्ष जिसमें मीठे और रसदार फल लगेगें, वह वृक्ष जो एक दिन राहगीरों को छाया देगा, वह वृक्ष जो रात में पंछियों का ठिकाना बनेगा। यह परिकल्पना ही आंनद देती है।इसलिए किसी भी समाज में विवाह एक उत्सव का विषय होता है, आनंद का विषय होता है, हर्षोउल्लास का विषय होता है। तो विवाह करने और कराने की सारी उत्कांक्षा, इसी आनंद को जीने की होती है। इसकारण जीवन जीने के चार प्रकार या चार आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सबसे श्रेष्ठ और उत्तम बताया गया है। 
        अब आतें हैं, अपने दूसरे विषय "प्रेम" पर। ये प्रेम क्या है? "प्रेम" को शब्दों में कहना कठिन है, क्यूंकि यह अनुभव की विषय-वस्तु है। किन्तु हाँ प्रेम के लक्षण को जरूर देखा जा सकता है। आप किसी से पूँछें प्रेम क्या है! तो उसके कुछ भी बोलने से पहले, उसके चेहरे पर एक मुस्कान दिखेगी। यही प्रेम का लक्षण है। इस मुस्कान के बाद, वह जो कुछ भी कहेगा, वो प्रेम न हो के, बस प्रेम का प्रतिबिम्ब भर होगा। शब्दों को मत पकड़ियेगा, प्रश्न और उसके उत्तर के बीच की मुस्कान को परखिये यही प्रेम है। शब्द तो एक छलावा भर होगा, प्रेम चहरे की भाव-भंगिमा में दिखेगा। प्रेम प्रकृति के सौंदर्य में, फूलों के सुगंध में, भौरों के गूंज में, कल-कल बहती नदी आदि में, आपको दिखेगा। जब आप प्रेम में होते है तो सबसे ज्यादा शांत होते हैं, आनंद में होते हैं। ये प्रकृति का प्रेम है। इनके अलावा आप और भी अलग-अलग तरह के प्रेम से रुबरु होते रहते हैं। जैसे, किसी संगीतकार का गीत सुन कर, किसी चित्रकार का चित्र देख कर, किसी मूर्तिकार की कलाकृति देख कर आप प्रेम का अनुभव करते हैं। किन्तु ये सभी एकतरफ़ा प्रेम है, कोई भी अच्छी वस्तु होती है, वह आपको आनंदित करती है आप उसके प्रेम में होते हैं, जैसा कि ऊपर बताया गया।अभी जो हम प्रेम की बात कर रहे हैं, वो पुरुष और स्त्री के बीच के प्रेम का है। इस प्रेम और पहले कहे गए प्रेम में बस इतना सा अंतर है, पहले वाले प्रेम को आप बहार से अनुभव कर रहे होते हैं, जबकि दूसरा वाला प्रेम में आप स्वयं प्रेम में होते हैं। वैसा ही अंतर जैसे जब आप कोई खेल, मैदान के बहार से देखें रहे हों या जब आप स्वयं खेल रहें हों। पहले वाला प्रेम स्थिर है, स्टैटिक है, जबकि दूसरे वाला डायनामिक है, प्रतिक्षण बढ़ते रहता है। जैसे किसी कवि ने कोई कविता रची, आप के लिए वो स्थिर प्रेम है,  परन्तु वो कवि का कविता के साथ बढ़ने वाला प्रेम है, वो उस कविता के साथ जीता है। तो डायनामिक प्रेम, गतिशील प्रेम,  सृजन करता है। स्त्री और पुरुष का प्रेम डायनामिक प्रेम है। यह सृष्टि का निर्माण करता है, संसार को आगे ले जाता है। यह वही प्रेम हैं, जिसमें फूल खिलते हैं, फल लगते हैं, राहगीरों को छाया मिलती है, पंछियों का बसेरा बनता है आदि। प्रेम के और भी कई रूप होते हैं। अलग-अलग स्तर का होता है, अलग-अलग कक्षा का होता है। अभी तक जिस प्रेम की चर्चा हुई वो पहले वाली कक्षा का प्रेम है। प्रतिक्षण बढ़ने वाला होने के कारण इसका पार पाना मुश्किल है। आप प्रेम में जितना आगे जायेगें, आपकी रचनात्मकता उतनी ही बढ़ती जाएगी। समयाभाव के कारण, यहाँ पर और चर्चा करना संभव नहीं, बाद में फिर अलग से प्रेम के कुछ और पहलुओं पर चर्चा करेगें।किन्तु अभी, आप को कुछ संकेत करना चाहूँगा। स्त्री और पुरुष का जब प्रेम बढ़ता है, तब स्त्री, स्त्री नहीं रह जाती, पुरुष, पुरुष नहीं रह जाता। दोनों अपनी पहचान खो देतें हैं। एक वह दौर आता है, जब स्त्री पुरष हो जाता है और पुरुष स्त्री हो जाती है। दोनों के बीच का भेद मिट जाता है। आपने सुना होगा, देखा होगा, भगवान् शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप को, यह प्रेम के उसी पराकाष्ठा को बताता है। जिसमें  दो के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। ये इतने घुल-मिल गए होते हैं की एक ही दिखते हैं। जैसे गुड़ को जल में घोल दीजिए, फिर जल गुड़ जैसा मीठा हो जाएगा और गुड़ जल जैसा तरल। यही प्रेम श्रीराधा-कृष्ण, श्रीसीता-राम के बारे में आप ने सुना होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में संकेत किया है,
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ।।
रा. च. मा. १/१८ 
"जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं।"
तो प्रेम अनुभव की विषय-वस्तु है, थोड़े में भी बहुत कहा जा सकता है और बहुत कहने सुनने पर भी थोड़ा ही रहेगा। प्रेम के बारे चर्चा को कबीरदासजी के एक दोहे से विराम करता हूँ,
अंबर बरसै धरती भीजै, यहु जाने सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई।।
प्रेम बिरला के बूझ का नाम है। परमात्मा ने हम सबों को बहुत कुछ दिया है। अब हमारी बारी है, लौटने की।और हम बस प्रेम लौटा सकते हैं, प्रेम दे सकते हैं, प्रेम बाँट सकते हैं। प्रेम में रहें और प्रेम बाटें।
        अब चर्चा के अंतिम विषय "प्रेम-विवाह" की बात करते हैं। भारत में विवाह, मनुष्य जीवन के सोलह संस्कारों में से एक संस्कार होता है। कहते हैं, विवाह की जोड़ियाँ ऊपर से बन कर आतीं हैं, धरती पर तो हम उसे बस भौतिक रूप देतें हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं, ऐसी मान्यता है, एक बार विवाह के बंधन में बंध जाने पर वो जन्म-जन्मांतर तक साथ रहता है। अब तो विज्ञान भी इस बात को मान रहा है। परमात्मा की सारी सृष्टि ही द्वैत प्रकृति की है। संसार की बात करें तो संसार में सबसे ज्यादा कोई प्रिय हो सकता है, तो वह जीवन-साथी होता है। भले ही साथ चलने की जीवन यात्रा, जन्म के कुछ वर्षों बाद से शुरू होती है, लेकिन ये जीवन पर्यन्त तक चलती जाती है। और शायद इसलिए विवाह के साथी को जीवन साथी कहते हैं। ऐसे तो विवाह बहुत प्रकार के बताये गए हैं, उन सभी में प्रेम विवाह का एक प्रमुख स्थान है, बशर्ते प्रेम हो, उच्च कोटि का हो। आज-कल प्रेम का विकृत स्वरूप खूब प्रचलन में है, इससे बचना चाहिए। आम तौर पर विवाह रूपी बीजारोपण पहले होता है और बाद में प्रेम रूपी जल से इसका सींचन कर पेड़ बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। बहुत हद तक यह प्रयोग सफल होता है, क्यूँकि इसमें जब तकआप समझ पाते पौधा अपना जड़ जमा चुका होता है। एक बार जड़ जमने के बाद यह आसानी से मौसम की प्रतिकूलता को सह लेता है या सहने की क्षमता विकसित कर लेता है। प्रेम-विवाह इससे अलग होता है। एक "आदर्श प्रेम-विवाह" में पहले मिट्टी को खुरद कर हलका किया जाता है, फिर इसको प्रेम रूपी जल से सींचा जाता है। और जब मिट्टी तैयार हो जाती है तब विवाह रूपी बीजारोपण किया जाता है। इस प्रकार का बीज जल्दी अपना जड़ जमाता है और विकसित होते जाता है। ऐसा पेड़ जल्द ही सबसे आगे निकल जाता है। किन्तु ऐसे प्रेम विवाह देखने को कम ही मिलते हैं। अक्सर प्रेम-विवाह ऐसा होता है, जैसे बाजार से कोई गमले में लगा पौधा खरीद लाये हों। ऐसे विवाह बंधन में स्त्री-पुरुष को मिट्टी की तैयारी, उसका सींचन, बीजारोपण आदि का कुछ भी पता नहीं होता। इनकी यात्रा जड़ से शुरू ही नहीं होती, मिट्टी के ऊपर-ऊपर का ही इनको पता होता है। सीधे इनका ध्यान फूल और फल देखने का होता है। कभी-कभी कुछ एक स्थिति में तो इनको लगता है, गमला सहित पौधा ले आए अब सारी जिम्मेवारी खत्म। इस अवहेलना के कारण, अगर ठीक से रख-रखाव न किया जाए तो ऐसे पौधे की वृद्धि धीमी हो जाती है, विकास रुक जाता है, पत्तियाँ मुरझाने लगती हैं। और कभी-कभी स्थिति इतनी भयावह हो जाती है की इनको लगने लगता है, जो पौधा खरीद के लाए थे, वह पौधा ही खराब था, निर्णय गलत था। जबकि स्थिति कुछ और ही होती है। आप विवाह किसी भी प्रकार का करें, बीजारोपण करें, पौधा खरीद कर लायें, गमले में ले आयें, फूल और फल सहित लायें, कोई फर्क नहीं पड़ता।आपका लक्ष्य हमेशा वृक्ष तैयार करने का होना चाहिए। जिस किसी भी स्थिति से शुरुआत किये हों, उसे बढ़ाने और बड़ा करने का होना चाहिए। और इसके लिए जरुरी है यात्रा में जड़ को शामिल किया जाए। भले ही कुछ समय के लिए आप की यात्रा उल्टी हो, कुछ समय के लिए तने से जड़ की ओर जा रहे हों, वृद्धि हो सकता है थोड़ी कम दिखे लेकिन जब आप जड़ पर पहुँच कर पुनः यात्रा को आगे बढ़ाएगें तो कोई खतरा नहीं होगा। फिर आपको घना पेड़ बनने से कोई रोक नहीं पाएगा। तो प्रेम-विवाह उत्तम है, जब आप उसके स्वरुप को भली-भाँति समझें हुए हों। यह आग के साथ खेलने जैसा है। एक कुशल खिलाड़ी तो इसे आसानी से कर जाता है पर अनजान के लिए थोड़ी सी असावधानी एक बड़े दुर्घटने को निमंत्रित भी कर देती है। आप प्रेम कर विवाह करें या विवाह कर के प्रेम, दोनों ही स्थिति में आप का लक्ष्य एक ही होता है, सृष्टि-सृजन, समाज का निर्माण। और जब लक्ष्य एक हो तो यात्रा भी एक ही प्रकार से होगी और वह है "प्रेम" का रास्ता। लक्ष्य अगर एक बड़े पेड़ की है तो पौधे को अनवरत प्रेम रूपी जल से सींचते रहना होगा। और ये प्रेम कोई सीखा नहीं सकता, कोई बता नहीं सकता, आप कितने ही पुस्तक पढ़ लें उससे कुछ नहीं होगा। इस प्रेम की खोज आप को स्वयं करनी होगी। और अगर प्रेम होगा तो अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, आप आगे और आगे बढ़ते ही जाएगें, इसमें कोई संदेह नहीं। प्रेम की शक्ति ही कुछ ऐसी होती है, इसका बल ही कुछ अलग होता है। यह किसी भिखारी को राजा बना दे, लंगड़े को भी पहाड़ चढ़ा दे। ये प्रेम अमूल्य है, प्रेम ही जीवन है। इसे हर समय प्रज्ज्वलित रखें। कबीरदास जी ने कहा है,
प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देय ले जाई ।।
ऐसे तो हमने "विवाह", "प्रेम" और "प्रेम-विवाह" पर अलग-अलग चर्चा कर ली और परोक्ष रूप से सारे प्रश्नों को देख चुके। अब जाते-जाते संक्षेप में इन पर विचार कर लेते हैं...
लड़का-लड़की अब बड़े हो गए हैं, इनकी शादी की चिंता है, क्या करें? 
जब बच्चे बड़े हो गए हों तो साथ में बैठ कर खुल कर बात करें। कहते हैं, बात करने से बात बनती है। और जब भी बात करें अपने अनुभवी होने का भाव किसी तिजोरी में बंद कर के आएं, माहौल सामान्य रहेगा।
घर वाले शादी के लिए बहुत कह रहे हैं, क्या किया जाये?
बचपन से ले कर आज तक घर वालों ने जो कुछ भी किया है, आप के भले के लिए किया है। अब आपको डर क्यों लग रहा है? आपकी सोच से उनका अनुभव कहीं बड़ा है, उस अनुभव को सम्मान दें।
बेटा प्रेम में है, और शादी की ठान राखी है, क्या करें? समाज क्या कहेगा? 
आप कुछ करें या न करें, समाज तो कुछ न कुछ कहेगा ही। दूसरों के बजाय अपने बच्चों की सुनें। आगे जीवन की गाड़ी उन्हें ही चलानी है।
वर्षों से प्रेम में हूँ पर समाज में कहने से डरता हूँ?
अभी आपका प्रेम परिपक्कव नहीं हुआ है, प्रेम में थोड़ा और समय दें।
मैंने प्रेम कर लिया, अब विवाह की क्या जरुरत है? 
प्रेम पाठ्यक्रम नहीं जो वर्ष भर पढ के परीक्षा उत्तीर्ण कर गए। प्रेम तो चन्द्रमा की कलाओं की तरह है, जिस दिन बढ़ाना बंद हुआ समझो उसी दिन से घटना शुरू हो गया।
मनुष्य को छोड़  कोई और जीव तो विवाह नहीं करता, मैं विवाह क्यों करूँ? 
लगता है, मनुष्य योनि में आपका प्रमोशन दुर्धटना वश हो गया। विवाह कर उसका आनंद लें।
प्रेम-विवाह करना चाहता हूँ, पर अभी तक प्रेम नहीं हुआ है? 
आप विवाह कर लें, फिर प्रेम करना मजबूरी हो जाएगी।
पेट भर खाता हूँ और पैर फैला के सोता हूँ, बहुत मज़े में हूँ, अब कुछ और नहीं चाहता? 
कोई जरुरी नहीं हर कोई शादी करे ही, कुछ लोगों के लिए हिमालय भी है। लेकिन ऐसा न हो की बाद में विचार  बदल जाए और फिर कोई जीवन साथी मिले नहीं।
किसी ने कहा, जिंदिगी में ऐसे ही क्या कोई कम समस्या है जो विवाह कर के एक और पालें?
आप को तो विवाह अवश्य ही करनी चाहिए, वो भी जितनी  जल्दी हो सके। इतना ज्ञान तो शादी के बाद ही आता है। आप तो पहले से ही ज्ञानी हैं, बहुत आगे जाएगें।

आज के लिए बस इतना ही... अब, आप सबों लिए एक विशेष सूचना, ध्यान दें, -
१. उपर्युक्त चर्चा के बाद अगर आप को अपने जीवन साथी के प्रति ज्यादा प्यार उमड़े और आप कोई ऐसा-वैसा वादा कर दे, वचन दे दें, जिसकी पूर्ति आपके लिए संभव न हो तो इसके लिए चर्चा करने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। उन सभी स्थितियों का सामना आप को स्वयं करना होगा। बस भगवान से प्रार्थना है, उन सभी परिस्थियों से उबरने के लिए आप को शक्ति प्रदान करें।
२. जीवन-साथी के गुण-स्वाभाव को जानने की शक्ति तो देवताओं में भी नहीं होती है। ऐसे में हम मनुष्यों का तो कहना ही क्या। शादी-विवाह हमेशा सोच-विचार कर ही करें। शादी के बाद की किसी भी परिस्थिति के लिए चर्चा करने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं है।
३. यह चर्चा न तो आप को शादी के लिए प्रेरित करता है और न ही सन्यास ले हिमालय जाने के लिए कहता है। जो भी निर्णय आप लेगें वह आप का स्वयं का निर्णय होगा और किसी भी परिस्थिति के लिए चर्चा करने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। सूचना समाप्त हुई
आप यूँ ही हँसते रहें, मुस्कुराते रहें, हर्षोउल्लास से जीवन को खुल कर जिएँ... परमपिता परमेश्वर आप सभी को शक्ति, समृद्धि, शांति और आनंद  प्रदान करें...  हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ
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